ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 20
स हि विश्वा॑नि॒ पार्थि॑वाँ॒ एको॒ वसू॑नि॒ पत्य॑ते। गिर्व॑णस्तमो॒ अध्रि॑गुः ॥२०॥
स्वर सहित पद पाठसः । हि । विश्वा॑नि । पार्थि॑वा । एकः॑ । वसू॑नि । पत्य॑ते । गिर्व॑णःऽतमः । अध्रि॑ऽगुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स हि विश्वानि पार्थिवाँ एको वसूनि पत्यते। गिर्वणस्तमो अध्रिगुः ॥२०॥
स्वर रहित पद पाठसः। हि। विश्वानि। पार्थिवा। एकः। वसूनि। पत्यते। गिर्वणःऽतमः। अध्रिऽगुः ॥२०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 20
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कीदृशो राजा कर्त्तव्य इत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्याः ! स ह्येको गिर्वणस्तमोऽध्रिगू राजा विश्वानि पार्थिवा वसूनि पत्यतेऽतोऽस्माभिः सत्कर्तव्योऽस्ति ॥२०॥
पदार्थः
(सः) (हि) यतः (विश्वानि) (पार्थिवा) पृथिव्यां विदितानि (एकः) असहायः (वसूनि) द्रव्याणि (पत्यते) पतिरिवाचरति (गिर्वणस्तमः) अतिशयेन वाग्भिः प्रशंसनीयः (अध्रिगुः) सत्यगतिः ॥२०॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! योऽद्वितीयबुद्धिविद्यः पृथिव्यादिपदार्थविद्यावित्प्रशंसनीयगुणकर्मस्वभावः सत्याचारी जनो भवेत्तमेव राजानं कुरुत ॥२०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को कैसा राजा करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (सः) वह (हि) जिससे (एकः) सहायरहित (गिर्वणस्तमः) अतिशयित वाणियों से प्रशंसा करने योग्य (अध्रिगुः) सत्यगमनवाला राजा (विश्वानि) समस्त (पार्थिवा) पृथिवी में जाने हुए (वसूनि) द्रव्यों को (पत्यते) स्वामी के सदृश आचरण करता है, इससे हम लोगों से सत्कार करने योग्य है ॥२०॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो विलक्षण बुद्धि और विद्या से युक्त, पृथिवी आदि पदार्थों की विद्या का जाननेवाला, प्रशंसा करने योग्य गुण, कर्म, और स्वभावयुक्त और सत्य आचरण करनेवाला जन होवे, उसी को राजा करो ॥२०॥
विषय
एक अद्वितीय
भावार्थ
( सः हि ) वह ही ( एकः ) अकेला, अद्वितीय, ( विश्वा पार्थिवा ) समस्त पृथिवी के ( वसूनि ) ऐश्वर्यों को ( पत्यते ) प्राप्त होता और उन पर स्वामित्व करता है और वही ( गिर्वणः-तमः) सबसे अधिक प्रशंसनीय और ( अध्रि-गुः ) बे रोक जाने वाला, तथा सत्य गति वाला होता है । इति चतुर्विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १-३० इन्द्रः । ३१-३३ बृबुस्तक्षा देवता ।। छन्दः—१, २, ३, ८, १४, २०, २१, २२, २३, २४, २८, ३०, ३२ गायत्री । ४, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १६, १७, १८, १९, २५, २६, २९ निचृद् गायत्री । ५, ६, २७ विराड् गायत्री । ३१ आर्च्यु-ष्णिक । ३३ अनुष्टुप् ॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
अध्रिगुः
पदार्थ
[१] (सः) = वह (एकः) = अद्वितीय प्रभु (हि) = ही (विश्वानि) = सब (पार्थिवा) = पृथिवी में होनेवाले (वसूनि) = धनों को (पत्यते) = अपने में सुरक्षित करते हैं। सम्पूर्ण धनों के स्वामी वे प्रभु ही हैं। [२] ये प्रभु (गिर्वणस्तमः) = इन ज्ञान की वाणियों के द्वारा अधिक-से-अधिक सम्भजनीय हैं व (अध्रिगुः) = अधृतगमन हैं, प्रभु को अपने कार्यों में कोई विहृत नहीं कर पाता।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ज्ञान की वाणियों द्वारा सम्भजनीय हैं, सर्वशक्तिमान् हैं। प्रभु ही सब ऐश्वर्यो के स्वामी हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जो अद्वितीय बुद्धी व विद्येने युक्त, पृथ्वी इत्यादी पदार्थांची विद्या जाणणारा, प्रशंसनीय गुण, कर्म, स्वभावयुक्त व सत्याचरण करणारा असेल त्यालाच राजा करा. ॥ २० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
He alone, most adorable, instant mover and omnipresent lord of the universe, solely by himself, rules, protects and promotes all treasures of the earth.$(He alone deserves to be ruler of the world who is an earthly embodiment of such universal virtues.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What sort of king should be elected by men-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! he alone (being matchless ), is the best among those to be praised, is of true movement and is the lord of the good articles known on earth, is worthy of our praise.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should elect him as king, who is endowed with unparalleled intellect and knowledge, is knower of the science of earth and other objects, is a man of admirable virtues, actions and temperaments and truthful conduct.
Foot Notes
(अघ्रिगुः) सत्यगतिः । अध्रिगुः अधृतगमनः इति (NKT 5, 2, 10) । अथवा प्रशासनम्मेवाभित्रतस्यात् तच्छब्दवत्वात (NKT 5,-, 10) यः प्रशासनं करोति सोऽधिगः = प्रशासन मेवादेशरूपा वाक् सा चापि सस्त्राधिवृत्तौ हिमति प्रशासक: इन्द्रोऽप्यधिगुरुच्यते ( NKT 5, 2, 11)।= A man of truthful movement (गिर्वणस्तम:) अतिशयेन वाग्मिः प्रशंसनीयः । = The best, worthy of praise.
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