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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गर्गः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्रा॒तार॒मिन्द्र॑मवि॒तार॒मिन्द्रं॒ हवे॑हवे सु॒हवं॒ शूर॒मिन्द्र॑म्। ह्वया॑मि श॒क्रं पु॑रुहू॒तमिन्द्रं॑ स्व॒स्ति नो॑ म॒घवा॑ धा॒त्विन्द्रः॑ ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रा॒तार॑म् । इन्द्र॑म् । अ॒वि॒तार॑म् । इन्द्र॑म् । हवे॑ऽहवे । सु॒ऽहव॑म् । शूर॑म् । इन्द्र॑म् । ह्वया॑मि । श॒क्रम् । पु॒रु॒ऽहू॒तम् । इन्द्र॑म् । स्व॒स्ति । नः॒ । म॒घऽवा॑ । धा॒तु॒ । इन्द्रः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्रं हवेहवे सुहवं शूरमिन्द्रम्। ह्वयामि शक्रं पुरुहूतमिन्द्रं स्वस्ति नो मघवा धात्विन्द्रः ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रातारम्। इन्द्रम्। अवितारम्। इन्द्रम्। हवेऽहवे। सुऽहवम्। शूरम्। इन्द्रम्। ह्वयामि। शक्रम्। पुरुऽहूतम्। इन्द्रम्। स्वस्ति। नः। मघऽवा। धातु। इन्द्रः ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 11
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा किं कुर्यात् प्रजाश्च तं किमर्थमाश्रयेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो मघवेन्द्रो नः स्वस्ति धातु तं हवेहवे त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्रं सुहवं शूरमिन्द्रं शक्रं पुरुहूतमिन्द्रं ह्वयामि तथैतं यूयमप्याह्वयत ॥११॥

    पदार्थः

    (त्रातारम्) पालकम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तम् (अवितारम्) ज्ञानादिप्रदम् (इन्द्रम्) अविद्यादुष्टजनविनाशकम् (हवेहवे) सङ्ग्रामे सङ्ग्रामे (सुहवम्) शोभनो हव आह्वानं सङ्ग्रामो वा यस्य तम् (शूरम्) निर्भयत्वादिगुणोपेतम् (इन्द्रम्) सेनाधरम् (ह्वयामि) आह्वयामि (शक्रम्) शक्तिमन्तम् (पुरुहूतम्) बहुभिराहूतम् (इन्द्रम्) शुभगुणधरम् (स्वस्ति) सुखम् (नः) अस्मभ्यम् (मघवा) परमपूजितधनयुक्तः (धातु) दधातु (इन्द्रः) परमैश्वर्यः ॥११॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या यथा सर्वत्र सहायं परमेश्वरमाह्वयन्ति ते तथाभूतं राजानमपि सर्वत्राऽऽश्रयन्तु ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा क्या करे और प्रजायें उसका किसलिये आश्रयण करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (मघवा) अत्यन्त श्रेष्ठ धन से युक्त (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य्यवाला (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) सुख को (धातु) धारण करे उसको (हवेहवे) सङ्ग्राम सङ्ग्राम में (त्रातारम्) पालन करनेवाले (इन्द्रम्) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त (अवितारम्) ज्ञानादि के देने और (इन्द्रम्) अविद्या से दुष्ट जन के नाश करनेवाले (सुहवम्) सुन्दर पुकारना वा सङ्ग्राम जिसका उस (शूरम्) निर्भयत्व आदि गुणों से युक्त (इन्द्रम्) श्रेष्ठ गुणों के धारण करनेवाले (शक्रम्) समर्थ (पुरुहूतम्) बहुतों से पुकारे गये (इन्द्रम्) सेना के धारण करनेवाले को (ह्वयामि) पुकारता हूँ, वैसे इसको आप लोग भी पुकारो ॥११॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य जैसे सर्वत्र सहायक परमेश्वर को पुकारते हैं, वे वैसे ही राजा का भी सर्वत्र आश्रयण करें ॥११॥

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    विषय

    इन्द्र के लक्षण ।

    भावार्थ

    मैं प्रजाजन ( त्रातारम् ) त्राण करने वाले, पालक ( इन्द्रम् ) परमैश्वर्यवान् को ( अवितारम् इन्द्रम् ) ज्ञान रक्षादि देने वाले अविद्या आदि दोषों के नाशक, (शूरम् ) शत्रुहिंसक, (इन्द्रम् ) सेना के स्वामी, ( सु-हवं ) उत्तम नाम वाले वा उत्तम संग्रामकारी पुरुष को ( हवे-हवे ) प्रति संग्राम में ( ह्वयामि ) पुकारता हूं । और ( शक्रं ) शक्तिशाली ( पुरु-हूतं ) बहुतों से आह्वान करने योग्य ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् शुभ गुणधारी पुरुष को भी मैं 'इन्द्र' नाम से ही कहता हूं । और ( मघवा ) उत्तम धनवान् ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यप्रद पुरुष ( नः स्वस्ति धातु ) हमें कल्याण, सुख प्रदान करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    त्राता-अविता

    पदार्थ

    [१] (त्रातारम्) = बाह्य शत्रुओं व रोगों से हमारा रक्षण करनेवाले (इन्द्रम्) = शत्रुविद्रावक प्रभु को (ह्वयामि) = पुकारता हूँ। (अवितारम्) = काम-क्रोध-लोभ आदि अध्यात्म शत्रुओं से बचानेवाले (इन्द्रम्) = उन सब असुरों के संहारक प्रभु को पुकारता हूँ उन प्रभु को पुकारता हूँ जो (हवेहवे सुहवम्) = प्रत्येक पुकार के अवसर पर सुख से पुकारने योग्य हैं। (शूरम्) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले (इन्द्रम्) = प्रभु को पुकारता हूँ। [२] (शक्रम्) = सम्पूर्ण संसार को धारण करने में शक्त (पुरुहूतम्) = बहुतों से पुकारे जाने योग्य (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को पुकारता हूँ। यह (मघवा) = परमैश्वर्यशाली (इन्द्रः) = शत्रुविद्रावक प्रभु (नः) = हमारे लिये (स्वस्ति) = कल्याण का (धातु) = धारण करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें अन्तः व बाह्य शत्रुओं से बचाते हैं। वे प्रभु हमें कल्याण में धारण करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे सर्वत्र परमेश्वराला सहायक या नात्याने जशी हाक मारतात तसा त्यांनी राजाचाही सर्वत्र आश्रय घ्यावा. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    In every battle of life one after another, I invoke Indra, lord giver of wealth, honour and power, saviour Indra, protector Indra, brave Indra invoked with love and devotion, pure and powerful, universally invoked and adored. May Indra bring us the good life and all round well being.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a king do and why should the subjects resort to him-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! as I invoke a prosperous king, who is endowed with great wealth, who is giver of knowledge, destroyer of ignorance and wicked persons. fearless and brave, mighty, invited by many men, bearer of good virtues and a good fighter in the battle. May that Indra-endowed with greatly admired wealth, give happiness to us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As men invoke God, who is our great Helper every where, so they should resort to a God-like pure and good king also.

    Translator's Notes

    Rishi Dayanand Saraswati's (purport) clearly denotes that the mantra is equally applicable to God with slight change in the meaning of some words. Shakra in that sense is almighty, अवितारम् Protector, शूरम् is Destroyer of all evils and so on.

    Foot Notes

    (अवितारम्) ज्ञानादिप्रदम् । अव धातोदनार्थमादाय ज्ञानादिप्रदम् इति व्याख्यानम् । = Giver of knowledge etc. (इन्द्रम्) अविद्यादुष्टजनविनाशकम् । इन्दन् शत्रूणां दारयिता या द्रावयिता वा (NKT 10, 1, 8) । = Destroyer of ignorance and wicked persons. (इन्द्रम्) सेनाधरम् । = Upholder or supporter of the army.

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