ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 15
क ईं॑ स्तव॒त्कः पृ॑णा॒त्को य॑जाते॒ यदु॒ग्रमिन्म॒घवा॑ वि॒श्वहावे॑त्। पादा॑विव प्र॒हर॑न्न॒न्यम॑न्यं कृ॒णोति॒ पूर्व॒मप॑रं॒ शची॑भिः ॥१५॥
स्वर सहित पद पाठकः । ई॒म् । स्त॒व॒त् । कः । पृ॒णा॒त् । कः । य॒जा॒ते॒ । यत् । उ॒ग्रम् । इत् । म॒घऽवा॑ । वि॒श्वहा । अवे॑त् । पादौ॑ऽइव । प्र॒ऽहर॑न् । अ॒न्यम्ऽअ॑न्यम् । कृ॒णोति॑ । पूर्व॑म् । अप॑रम् । शची॑भिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
क ईं स्तवत्कः पृणात्को यजाते यदुग्रमिन्मघवा विश्वहावेत्। पादाविव प्रहरन्नन्यमन्यं कृणोति पूर्वमपरं शचीभिः ॥१५॥
स्वर रहित पद पाठकः। ईम्। स्तवत्। कः। पृणात्। कः। यजाते। यत्। उग्रम्। इत्। मघऽवा। विश्वहा। अवेत्। पादौऽइव। प्रऽहरन्। अन्यम्ऽअन्यम्। कृणोति। पूर्वम्। अपरम्। शचीभिः ॥१५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 15
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः के कान् पृच्छेयुः समादध्युश्चेत्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसोऽत्र क ईं स्तवत्कः सर्वं पृणात् कस्सत्यं यजाते यद्यो मघवा शचीभिर्विश्वहोग्रमिदवेत् पादाविवान्यमन्यं प्रहरन् पूर्वमपरं कृणोति ॥१५॥
पदार्थः
(कः) (ईम्) प्राप्तव्यं परमात्मानम्। ईमिति पदनाम। (निघं०४.२) (स्तवत्) स्तूयात् (कः) (पृणात्) पालयेत् (कः) (यजाते) (यत्) (उग्रम्) तेजस्विनम् (इत्) एव (मघवा) बहुधनः (विश्वहा) सर्वाणि दिनानि (अवेत्) रक्षेत् (पादाविव) चरणाविव (प्रहरन्) (अन्यमन्यम्) (कृणोति) (पूर्वम्) प्रथमम् (अपरम्) पश्चिमम् (शचीभिः) कर्मभिः ॥१५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! वयं युष्मान् पृच्छामोऽस्मिञ्जगति क ईश्वरं प्रशंसति कः सर्वं न्यायेन पृणाति कश्च विदुषः सत्करोतीत्येतेषां क्रमेणोत्तराणि−यो विद्यायोगधनः स सर्वदा परमेश्वरमेव स्तौति, यो न्यायकारी राजा पक्षपातं विहायाऽपराधिनं दण्डयति धार्मिकं सत्करोति स सर्वरक्षको, यश्च स्वयं विद्वान् गुणदोषज्ञो भवति, स एव विदुषः सत्कर्त्तुमर्हतीत्युत्तराणि ॥१५॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर कौन किनसे पूछें और समाधान करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! इस संसार में (कः) कौन (ईम्) प्राप्त होने योग्य परमात्मा की (स्तवत्) स्तुति करे और (कः) कौन सबका (पृणात्) पालन करे (कः) कौन सत्य का (यजाते) यजन करे कि (यत्) जो (मघवा) बहुत धनवाला (शचीभिः) कर्म्मों से (विश्वहा) सब दिन (उग्रम्) तेजस्वी (इत्) ही की (अवेत्) रक्षा करे तथा (पादाविव) चरणों को जैसे वैसे (अन्यमन्यम्) दूसरे-दूसरे को (प्रहरन्) मारता हुआ (पूर्वम्) पहिलेवाले को (अपरम्) पीछे (कृणोति) करता है ॥१५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वान् जनो ! हम लोग आप लोगों से पूछते हैं कि इस संसार में कौन ईश्वर की प्रशंसा करता, कौन सब का न्याय से पालन करता और कौन विद्वानों का सत्कार करता है, इन प्रश्नों का क्रम से उत्तर-जो विद्या के योग से धन से युक्त है, वह सर्वदा परमेश्वर ही की स्तुति करता है और जो न्यायकारी राजा पक्षपात का त्याग कर अपराधी को दण्ड देता और धार्मिक का सत्कार करता है, वह सर्वरक्षक है और जो स्वयं विद्वान् गुण और दोषों का जाननेवाला है, वही विद्वानों का सत्कार करने योग्य है, ये उत्तर हैं ॥१५॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! आम्ही तुम्हाला विचारतो की, या जगात कोण ईश्वराची प्रशंसा करतो? कोण सर्वांचे न्यायाने पालन करतो? कोण विद्वानांचा सत्कार करतो? या प्रश्नांचे क्रमाने उत्तर असे की, जो विद्यारूपी धनाने युक्त आहे तो परमेश्वराची नेहमी स्तुती करतो व जो न्यायी राजा भेदभाव न करता अपराध्याला दंड देतो आणि धार्मिकांचा सत्कार करतो तो सर्व रक्षक असतो व जो स्वतः विद्वान गुण-दोषांना जाणणारा असतो तोच विद्वानांचा सत्कार करतो. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Who can praise and fully celebrate him? Who can finally serve and join him? Whoever is passionately dedicated and whom the lord of glory may favour, govern, and protect day and night, the lord who, like a man on the walk alternating his feet in motion moving the hind one forward and leaving the forward one then behind, dispenses people up and down according to their actions and the law of karma.
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