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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 15
    ऋषिः - गर्गः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    क ईं॑ स्तव॒त्कः पृ॑णा॒त्को य॑जाते॒ यदु॒ग्रमिन्म॒घवा॑ वि॒श्वहावे॑त्। पादा॑विव प्र॒हर॑न्न॒न्यम॑न्यं कृ॒णोति॒ पूर्व॒मप॑रं॒ शची॑भिः ॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः । ई॒म् । स्त॒व॒त् । कः । पृ॒णा॒त् । कः । य॒जा॒ते॒ । यत् । उ॒ग्रम् । इत् । म॒घऽवा॑ । वि॒श्वहा । अवे॑त् । पादौ॑ऽइव । प्र॒ऽहर॑न् । अ॒न्यम्ऽअ॑न्यम् । कृ॒णोति॑ । पूर्व॑म् । अप॑रम् । शची॑भिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क ईं स्तवत्कः पृणात्को यजाते यदुग्रमिन्मघवा विश्वहावेत्। पादाविव प्रहरन्नन्यमन्यं कृणोति पूर्वमपरं शचीभिः ॥१५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कः। ईम्। स्तवत्। कः। पृणात्। कः। यजाते। यत्। उग्रम्। इत्। मघऽवा। विश्वहा। अवेत्। पादौऽइव। प्रऽहरन्। अन्यम्ऽअन्यम्। कृणोति। पूर्वम्। अपरम्। शचीभिः ॥१५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 15
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः के कान् पृच्छेयुः समादध्युश्चेत्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसोऽत्र क ईं स्तवत्कः सर्वं पृणात् कस्सत्यं यजाते यद्यो मघवा शचीभिर्विश्वहोग्रमिदवेत् पादाविवान्यमन्यं प्रहरन् पूर्वमपरं कृणोति ॥१५॥

    पदार्थः

    (कः) (ईम्) प्राप्तव्यं परमात्मानम्। ईमिति पदनाम। (निघं०४.२) (स्तवत्) स्तूयात् (कः) (पृणात्) पालयेत् (कः) (यजाते) (यत्) (उग्रम्) तेजस्विनम् (इत्) एव (मघवा) बहुधनः (विश्वहा) सर्वाणि दिनानि (अवेत्) रक्षेत् (पादाविव) चरणाविव (प्रहरन्) (अन्यमन्यम्) (कृणोति) (पूर्वम्) प्रथमम् (अपरम्) पश्चिमम् (शचीभिः) कर्मभिः ॥१५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! वयं युष्मान् पृच्छामोऽस्मिञ्जगति क ईश्वरं प्रशंसति कः सर्वं न्यायेन पृणाति कश्च विदुषः सत्करोतीत्येतेषां क्रमेणोत्तराणि−यो विद्यायोगधनः स सर्वदा परमेश्वरमेव स्तौति, यो न्यायकारी राजा पक्षपातं विहायाऽपराधिनं दण्डयति धार्मिकं सत्करोति स सर्वरक्षको, यश्च स्वयं विद्वान् गुणदोषज्ञो भवति, स एव विदुषः सत्कर्त्तुमर्हतीत्युत्तराणि ॥१५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर कौन किनसे पूछें और समाधान करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् जनो ! इस संसार में (कः) कौन (ईम्) प्राप्त होने योग्य परमात्मा की (स्तवत्) स्तुति करे और (कः) कौन सबका (पृणात्) पालन करे (कः) कौन सत्य का (यजाते) यजन करे कि (यत्) जो (मघवा) बहुत धनवाला (शचीभिः) कर्म्मों से (विश्वहा) सब दिन (उग्रम्) तेजस्वी (इत्) ही की (अवेत्) रक्षा करे तथा (पादाविव) चरणों को जैसे वैसे (अन्यमन्यम्) दूसरे-दूसरे को (प्रहरन्) मारता हुआ (पूर्वम्) पहिलेवाले को (अपरम्) पीछे (कृणोति) करता है ॥१५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वान् जनो ! हम लोग आप लोगों से पूछते हैं कि इस संसार में कौन ईश्वर की प्रशंसा करता, कौन सब का न्याय से पालन करता और कौन विद्वानों का सत्कार करता है, इन प्रश्नों का क्रम से उत्तर-जो विद्या के योग से धन से युक्त है, वह सर्वदा परमेश्वर ही की स्तुति करता है और जो न्यायकारी राजा पक्षपात का त्याग कर अपराधी को दण्ड देता और धार्मिक का सत्कार करता है, वह सर्वरक्षक है और जो स्वयं विद्वान् गुण और दोषों का जाननेवाला है, वही विद्वानों का सत्कार करने योग्य है, ये उत्तर हैं ॥१५॥

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    विषय

    राजा का उन्नति पद की ओर बढ़ने का प्रकार

    भावार्थ

    ( यत् ) जो ( मधवा ) देने योग्य ऐश्वर्य का स्वामी ( उग्रम् इत् ) उग्र, बलवान्, समर्थ पुरुष को ही ( विश्वहा ) सदा ( अवेत् ) प्राप्त करता है, और जिस प्रकार ( पादौ प्रहरन् इव ) पैरों को चलाता हुआ पुरुष ( पूर्वम् अपरं अन्यम्-अन्यम् कृणोति ) पहले पैर को पीछे और दूसरे को आगे करता है उसी प्रकार जो ( शचीभिः ) अपनी बुद्धियों, शक्तियों और वाणियों द्वारा ( पूर्वम् अपरम् अन्यम्-अन्यम् ) पूर्व विद्यमान पदाधिकारी को पद से च्युत और पद पर अग्नियुक्त, पश्चात् आये नव युवक पुरुष को पद पर नियुक्त करता अथवा सैन्य सञ्चालन करते हुए आगे के जनों को पीछे और पीछे वालों को आगे करता रहता है, (कः ईं स्तवत् ) उसको कौन वर्णन या उपदेश कर सकता है, ( कः पृणात् ) और उसको कौन प्रसन्न कर सकता है और उसका ( कः यजाते ) कौन सदा साथ दे सकता है ? यह वह जाने । इति द्वात्रिंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 1087
    ओ३म् क ईं॑ स्तव॒त्कः पृ॑णा॒त्को य॑जाते॒ यदु॒ग्रमिन्म॒घवा॑ वि॒श्वहावे॑त् ।
    पादा॑विव प्र॒हर॑न्न॒न्यम॑न्यं कृ॒णोति॒ पूर्व॒मप॑रं॒ शची॑भिः ॥
    ऋग्वेद 6/47/15

    सुनता सबकी वो ही 
    हम तो हैं बटोही,
    आगे आगे चलते जाना 
    फर्ज से ही बढ़ते जाना,
    हो विजय कर्म की हे प्रभु !
    प्रेरणा कृपा तुम्हारी रोज़ पाई,

    परम ऐश्वर्यवान्
    इन्द्र प्रभु की स्तुति कर लो 
    यजन-पूजन करते रहो
    कर्म ही करेगा सब की भरपाई

    समझो ना के उग्र लोग 
    पाते विजय 
    और धर्मी होते शोषित 
    हर समय
    इस प्रकार सोचना 
    है हमारी भूल 
    पापियों को चुभते रहते 
    पाप रूपी शूल
    पाप का भरा घड़ा 
    टूटता सदा 
    सुन लो आर्यों मर्म को 

    सबसे आगे भी खड़ा 
    तो पीछे करता कूच 
    और कभी तो पीछे वाला 
    बनता अग्ररूप 
    जैसे आगे पीछे पैर 
    चलते रहते रोज़ 
    वैसे ही समाज में 
    अलग गति के लोग 
    पर प्रभु की स्तुति प्रार्थना
    रहे निरोग 
    सुन लो आर्यों मर्म को 

    दुर्जनों की पंक्ति में 
    ना तुम खड़े रहो 
    रोज़ सज्जनों के 
    पीछे पीछे तुम चलो 
    विजयी बनना है तो 
    उसकी स्तुति करो 
    मद को त्याग दो 
    प्रभु कृपा में ही रहो 
    बरसेगी प्रभु कृपा 
    सतत् जान लो 
    सुन लो आर्यों मर्म को 
    सुनता सबकी वो ही 
    हम तो हैं बटोही,
    आगे आगे चलते जाना 
    फर्ज से ही बढ़ते जाना,
    हो विजय कर्म की हे प्रभु !
    प्रेरणा कृपा तुम्हारी रोज़ पाई,
    प्रेरणा कृपा तुम्हारी रोज़ पाई,
    प्रेरणा कृपा तुम्हारी रोज़ पाई

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :- २३.५.१७    २१.३५
    राग :- जयजयवंती
    राग का गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर, ताल गरबा ६ मात्रा
                         
    शीर्षक :- क्यों करें हम उसकी स्तुति 663 वां भजन 
    *तर्ज :- *
    0105-705 

    बटोही = यात्री, पथिक
     

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

    क्यों करें हम उसकी स्तुति

    तुम कहते हो कि परम ऐश्वर्य व इन्द्र प्रभु की स्तुति करो,अर्चना करो, वंदना करो। पर हम पूछते हैं कि क्यों करें? हम उसकी स्तुति,उसका स्तवन, क्यों करें? कौन उसे रिझाये? कौन उसका यजन पूजन करें? यह सब करने से क्या लाभ है तुम्हारा? वह परम ऐश्वर्यशाली इन्द्र तो उसी की रक्षा करता है,जो उग्र है। संसार में जिसकी लाठी उसी की भैंस की ही लोकोक्ति चरितार्थ होती है। जो उग्र प्रचण्ड और बली है उसी की विजय होती है । पूजा करने से परमेश्वर हमारी रक्षा तो कर नहीं देगा । फिर उसकी पूजा में समय नष्ट क्यों करें?
     भाइयो यदि तो ऐसा समझते हो तो भूल करते हो। यदि जगत में उग्र लोगों की ही सदा विजय होती तो यह जगत कभी का समाप्त हो चुका होता। उग्र जब सदा पनपते रहते हैं और धर्मात्मार्ओं का शोषण करते रहते तो एक भी धर्मात्मा भूतल पर न बचता।भले ही कभी-कभी यह देखने में आता हो कि उग्र दुर्जन ही रक्षित हो रहे हैं,उन्हीं की विजय हो रही है, पर अंततः वह परमेश्वर के प्रकोप के ही भाजन बनते हैं ।जब उनके पाप का घड़ा भर जाता है तब एक दिन वह सबसे पीछे खड़े दिखाई देते हैं। और रक्षा तो दूर,उनके सत्ता भी खतरे में पड़ी दिखाई देती है। क्या तुम नहीं देखते हैं कि जो आज पिछड़े हुए हैं वे सबसे आगे की पंक्ति में पहुंच जाते हैं,और जो सबसे आगे खड़े हैं वह पीछे पहुंच जाते हैं। जैसे चलता हुआ कोई मनुष्य कर्म से पीछे के पैर को आगे बढ़ाता है और अगले पैर को पीछे ले जाता है वैसे ही समाज में लोगों की गति हो रही है इन्द्र परमेश्वर ही अपने कर्मों से यह सब कर रहे हैं अतः परमेश्वर की स्तुति को निष्फल मत समझो। उस की स्तुति कृपा और प्रेरणा से एक दिन तुम अवश्य ही सबके शिरोमणि बन जाओगे।
     उग्र की नहीं तुम्हारी रक्षा होगी तुम विजयीबनोगे। अतः सभी शंकाओं और संदेशों को मिटाकर बिना प्रमाद के तल्लीन होकर इन्द्र प्रभु की स्तुति और आराधना करो।
    प्रभु तुम पर अवश्य कृपा करेंगे।

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    विषय

    स्तवन-प्रीणत-यजन

    पदार्थ

    [१] (कः) = कोई एक विरल ही (ईम्) = निश्चय से (स्तवत्) = प्रभु स्तवन करता है। (कः) = कोई एक विरल पुरुष ही उस प्रभु को (पृणात्) = प्रीणित करने में तत्पर होता है। (कः) = कौन (यजाते) = प्रभु का उपासन करता है कि (उग्रं इत्) = तेजस्वी को भी मघवा वे ऐश्वर्यशाली प्रभु ही (विश्वहा) = सदा (अवेत्) = इन शक्तियों को प्राप्त कराते हैं [विद् लाभे] । शक्ति के मद में प्राय: मनुष्य शक्ति को अपना ही समझता है और प्रभु को भूल जाता है। [२] (पादौ प्रहरन्) = चलता हुआ पुरुष, पृथ्वी पर पाँवों को पटकता हुआ पुरुष (इव) = जैसे (अन्यं अन्यं पूर्वं अपरम्) = एक को आगे और एक को पीछे, अगले को पीछे और पिछले को आगे कृणोति करता है, इसी प्रकार वे प्रभु (शचीभिः) = अपनी शक्तियों व प्रज्ञानों से कर्मानुसार स्वामी को भृत्य व मृत्य को स्वामी बनाते रहते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें प्रभु का ही स्तवन, प्रीणत व यजन करना चाहिए। प्रभु ही कर्मानुसार हमें ऊपर-नीचे विविध स्थितियों में प्राप्त कराते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! आम्ही तुम्हाला विचारतो की, या जगात कोण ईश्वराची प्रशंसा करतो? कोण सर्वांचे न्यायाने पालन करतो? कोण विद्वानांचा सत्कार करतो? या प्रश्नांचे क्रमाने उत्तर असे की, जो विद्यारूपी धनाने युक्त आहे तो परमेश्वराची नेहमी स्तुती करतो व जो न्यायी राजा भेदभाव न करता अपराध्याला दंड देतो आणि धार्मिकांचा सत्कार करतो तो सर्व रक्षक असतो व जो स्वतः विद्वान गुण-दोषांना जाणणारा असतो तोच विद्वानांचा सत्कार करतो. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Who can praise and fully celebrate him? Who can finally serve and join him? Whoever is passionately dedicated and whom the lord of glory may favour, govern, and protect day and night, the lord who, like a man on the walk alternating his feet in motion moving the hind one forward and leaving the forward one then behind, dispenses people up and down according to their actions and the law of karma.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who should ask whom and how should they answer is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened persons ! who glorifies God in this world, and who nourishes all? Who truly performs the Yajna in the form of honoring highly learned men ? That wealthy man, who with his good actions, always protects a person full of splendor, who like the moving feet makes the last precede, the foremost follower. (making first the last and vice versa).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons, we ask you some questions. 1. Who glorifies God is this world? 2. Who nourishes all, with justice? 3. Who honors the enlightened persons? The following are answers to the above questions respectively: 1. The man endowed with wisdom and Yoga always glorifies God. 2. That just king, who impartially punishes the guilty and honors a righteous person, is protector of all. 3. Only who is himself enlightened and knower of the merits and defects, can honor highly learned persons.

    Foot Notes

    (ईम्) प्राप्तव्यं परमात्मानम् । ईमिति पदनाम (NG '4, 2)। = Who praises the God. (पुणात्) पालयेत । पुण-प्रीणने (तुदा.) प्रीणनं तर्पणं पालनं वा = May nourish.

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