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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 17
    ऋषिः - गर्गः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    परा॒ पूर्वे॑षां स॒ख्या वृ॑णक्ति वि॒तर्तु॑राणो॒ अप॑रेभिरेति। अना॑नुभूतीरवधून्वा॒नः पू॒र्वीरिन्द्रः॑ श॒रद॑स्तर्तरीति ॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑ । पूर्वे॑षाम् । स॒ख्या । वृ॒ण॒क्ति॒ । वि॒ऽतर्तु॑राणः । अप॑रेभिः । ए॒ति॒ । अन॑नुऽभूतीः । अ॒व॒ऽधू॒न्वा॒नः । पू॒र्वीः । इन्द्रः॑ । श॒रदः॑ । त॒र्त॒री॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परा पूर्वेषां सख्या वृणक्ति वितर्तुराणो अपरेभिरेति। अनानुभूतीरवधून्वानः पूर्वीरिन्द्रः शरदस्तर्तरीति ॥१७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परा। पूर्वेषाम्। सख्या। वृणक्ति। विऽतर्तुराणः। अपरेभिः। एति। अननुऽभूतीः। अवऽधून्वानः। पूर्वीः। इन्द्रः। शरदः। तर्तरीति ॥१७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 17
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा किमकृत्वा किं कुर्य्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    यः सूर्य्य इवेन्द्रः पूर्वेषां सख्या वितर्तुराणोऽनानुभूतीरवधून्वानः परावृणक्त्यपरेभिस्सहैति सः सूर्य्यः पूर्वीः शरद इव संवत्सराँस्तर्तरीति ॥१७॥

    पदार्थः

    (परा) (पूर्वेषाम्) (सख्या) मित्रेण (वृणक्ति) त्यजति (वितर्त्तुराणः) विशेषेण भृशं हिंसन् (अपरेभिः) अन्यैः (एति) गच्छति (अनानुभूतीः) अनुभवरहितान्। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (अवधून्वानः) अर्वाक्कम्पयन् (पूर्वीः) प्राचीनाः (इन्द्रः) सूर्य्य इव राजा (शरदः) शरदाद्यृतून् (तर्तरीति) भृशं तरति ॥१७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो राजा वृद्धानां सखित्वं हित्वा नीचान् सखीनाप्नोति स श्रेयसश्च्युतो भवति यश्चानभिज्ञान् सखीन् विहायाऽभिज्ञान् सुहृदः करोति स एव पूर्णमायुः सुखेन तरति ॥१७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा क्या नहीं करके क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो सूर्य्य के सदृश (इन्द्रः) राजा (पूर्वेषाम्) पूर्वजनों के (सख्या) मित्र से (वितर्त्तुराणः) विशेष करके अत्यन्त हिंसा करता और (अनानुभूतीः) अनुभव से रहित जनों को (अवधून्वानः) नीचे को कम्पाता हुआ (परा, वृणक्ति) त्यागता है और (अपरेभिः) अन्यों के साथ (एति) जाता है वह जैसे सूर्य्य (पूर्वीः) प्राचीन (शरदः) शरद् आदि ऋतुओं को, वैसे वर्षों के (तर्तरीति) अत्यन्त पार होता है ॥१७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा वृद्ध जनों के मित्रपन का त्याग करके नीच मित्रों को प्राप्त होता है, वह कल्याण से च्युत होता है और जो अनभिज्ञ मित्रों का त्याग करके अभिज्ञों को मित्र करता है, वही पूर्ण आयु भर सुख से पार होता है ॥१७॥

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    विषय

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    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, अन्यों को वृत्ति आदि धन देकर पालने वाला राजा ( पूर्वेषां ) अपने से पूर्व विद्यमान बड़े अनुभवी लोगों के (संख्या) सख्य अर्थात् मित्रता के बल से वह (अनानुभूतीः ) अपनी अनुभवशून्यताओं वा अज्ञात बातों को ( वितर्तुराणः ) विविध प्रकार से विनाश करता हुआ अपने अज्ञानों को ( परावृणक्ति ) दूर करता है । और ( अपरेभिः ) अन्य नाना पुरुषों के साथ मिल कर भी ( अनानुभूतीः ) अनुभवरहित सामर्थ्यहीन, असहृदय जनों को भी ( अव-धून्वानः ) दूर करता हुआ (एति ) आगे बढ़ता है। इस प्रकार वह सूर्य के समान ( पूर्वी: शरदः ) अपने पूर्व की आयु के वर्षों को (तर्तरीति) व्यतीत करे ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रमाद दोष परिहार

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (संख्या) = मित्रभाव के कारण (पूर्वेषाम्) = अपना पालन व पूरण करने में प्रवृत्त लोगों के (परावृणक्ति) = रोगों व दोषों को [efface] मिटा देते हैं । (वितर्तुराणः) = इन शत्रुभूत रोगों व वासनाओं को हिंसित करते हुए वे (अपरेभिः एति) = इन अपने अपर [lower] मित्रों के साथ गतिवाले होते हैं । साहित्य में प्रभु 'पर' कहते हैं, तो जीव 'अपर' । वे पर प्रभु अपर जीव के साथ गतिवाले होते हैं। इस मित्रता से ही जीव शत्रुओं पर विजय पा सकता है। [२] (अनानुभूती:) = [neglect] प्रमादों को (अवधून्वान:) = हमारे से कम्पित करके दूर करते हुए प्रभु (पूर्वी: शरदः) = बहुत वर्षों तक (तर्तरीति) = हमें शत्रुओं से तरानेवाले होते हैं। प्रभु हमारे जीवनों को प्रमादशून्य बनाकर हमें इस दीर्घजीवन में शत्रुओं का शिकार नहीं होने देते।

    भावार्थ

    भावार्थ—प्रभु हमारे रोगों व दोषों को दूर करते हैं। हमारे शत्रुओं को नष्ट करते हुए हमारे साथ गतिवाले होते हैं। हमारे जीवन को प्रमादशून्य बनाकर दीर्घ व सुन्दर बनाते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो राजा अनुभवी लोकांची मैत्री सोडून नीच मित्रांची संगती धरतो त्याचे कल्याण होत नाही व जो अनभिज्ञ मित्रांचा त्याग करून अभिज्ञांबरोबर मैत्री करतो तोच पूर्ण आयुष्यभर सुखाने जगतो. ॥ १७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    With love and understanding, Indra, lord ruler, gives up the dead wood of the old and goes forward taking on other new forms of life and society like waves of the sea pressing on fast forward. Shaking off the callous who refuse to learn by experience he goes on like the sun crossing over the years of time gone by and living and shaping new eras of time.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Some Do's and Do not's for King - is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That king, who is full of splendor like the sun, who gives up the friendship of the bad people and shaking men, who are devoid of experience, and cultivates friendship with enlightened and experienced good men, goes beyond miseries, like the sun passing autumn season.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That king who gives up the friendship of old and experienced good men and keeps friendship of mean fellows, falls down from the path of welfare. That man enjoys full life with happiness, who gives up the company of ignorant persons and cultivates friendship with enlightened men.

    Foot Notes

    (ततैरीति) भृशं तरति । = Swims across or goes beyond miseries etc. (अवधून्वानः) अर्वाक्कम्पयन् = Shaking.

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