ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 18
रू॒पंरू॑पं॒ प्रति॑रूपो बभूव॒ तद॑स्य रू॒पं प्र॑ति॒चक्ष॑णाय। इन्द्रो॑ मा॒याभिः॑ पुरु॒रूप॑ ईयते यु॒क्ता ह्य॑स्य॒ हर॑यः श॒ता दश॑ ॥१८॥
स्वर सहित पद पाठरू॒पम्ऽरू॑पम् । प्रति॑ऽरूपः । ब॒भू॒व॒ । तत् । अ॒स्य॒ । रू॒पम् । प्र॒ति॒ऽचक्ष॑णाय । इन्द्रः॑ । मा॒याभिः॑ । पु॒रु॒ऽरूपः॑ । ई॒य॒ते॒ । यु॒क्ताः । हि । अ॒स्य॒ । हर॑यः । श॒ता । दश॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रूपंरूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय। इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दश ॥१८॥
स्वर रहित पद पाठरूपम्ऽरूपम्। प्रतिऽरूपः। बभूव। तत्। अस्य। रूपम्। प्रतिऽचक्षणाय। इन्द्रः। मायाभिः। पुरुऽरूपः। ईयते। युक्ताः। हि। अस्य। हरयः। शता। दश ॥१८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 18
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरयं जीवात्मा कीदृशो भवतीत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! य इन्द्रो मायाभिः प्रतिचक्षणाय रूपंरूपं प्रतिरूपो बभूव पुरुरूप ईयते तदस्य रूपमस्ति, यस्याऽस्य हि दश शता हरयो युक्ताः शरीरं वहन्ति तदस्य सामर्थ्यं वर्त्तते ॥१८॥
पदार्थः
(रूपंरूपम्) (प्रतिरूपः) तदाकारवर्तमानः (बभूव) भवति (तत्) (अस्य) जीवात्मनः (रूपम्) (प्रतिचक्षणाय) प्रत्यक्षकथनाय (इन्द्रः) जीवः (मायाभिः) प्रज्ञाभिः (पुरुरूपः) बहुशरीरधारणेन विविधरूपः (ईयते) (युक्ताः) (हि) खलु (अस्य) देहिनः (हरयः) अश्वा इवेन्द्रियाण्यन्तःकरणप्राणाः (शता) शतानि (दश) ॥१८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा विद्युत्पदार्थं पदार्थं प्रति तद्रूपा भवति तथैव जीवः शरीरं प्रति तत्स्वभावो जायते यदा बाह्यं विषयं द्रष्टुमिच्छति तदा तद्दृष्ट्वा तदाकारं ज्ञानमस्य जायते या अस्य शरीरे विद्युत्सहिता असङ्ख्या नाड्यः सन्ति ताभिरयं सर्वस्य शरीरस्य समाचारं जानाति ॥१८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर यह जीवात्मा कैसा होता है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रः) जीव (मायाभिः) बुद्धियों से (प्रतिक्षणाय) प्रत्यक्ष कथन के लिये (रूपंरूपम्) रूप-रूप के (प्रतिरूपः) प्रतिरूप अर्थात् उसके स्वरूप से वर्त्तमान (बभूव) होता है और (पुरुरूपः) बहुत शरीर धारण करने से अनेक प्रकार का (ईयते) पाया जाता है (तत्) वह (अस्य) इस शरीर का (रूपम्) रूप है और जिस (अस्य) इस जीवात्मा के (हि) निश्चय करके (दश) दश सङ्ख्या से विशिष्ट और (शता) सौ सङ्ख्या से विशिष्ट (हरयः) घोड़ों के समान इन्द्रिय अन्तःकरण और प्राण (युक्ताः) युक्त हुए शरीर को धारण करते हैं, वह इसका सामर्थ्य है ॥१८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! बिजुली पदार्थ के प्रति तद्रूप होती है, वैसे ही जीव शरीर-शरीर के प्रति तत्स्वभाववाला होता है और जब बाह्य विषय के देखने की इच्छा करता है, तब उसको देख के तत्स्वरूपज्ञान इस जीव को होता है और जो जीव के शरीर में बिजुली के सहित असङ्ख्य नाड़ी हैं, उन नाड़ियों से यह सब शरीर के समाचार को जानता है ॥१८॥
विषय
राजा और जीवात्मा का वर्णन ।
भावार्थ
राजा और जीवात्मा का वर्णन । वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् पुरुष ( रूपं रूपं ) प्रत्येक रूप अर्थात् प्रजा के प्रत्येक व्यक्ति का ( प्रति । रूपं ) प्रतिनिधि ( बभूव ) हो । ( अस्य ) इस राजा का ( तत् ) वह रूप ( प्रति-चक्षणाय ) प्रत्यक्ष में देखने और कहने के लिये है । (इन्द्रः)वह ऐश्वर्यवान् पुरुष ( मायाभिः ) अपनी नाना बुद्धियों और नाना शक्तियों से (पुरु-रूपः ईयते ) बहुत प्रकार का जाना जाता है। क्योंकि (अस्य) इसके अधीन ( शता दश ) हजारों ( हरयः) मनुष्य ( युक्ताः ) नियुक्त रहते हैं । इसी प्रकार ( इन्द्रः ) जीवात्मा भी विद्युत् के समान ( रूपं रूपं प्रतिरूपः बभूव ) प्रत्येक प्राणि के रूप में तदाकार होकर विराजता है। (तत् अस्य रूपं प्रति चक्षणाय ) उसका वह रूप सबको प्रकट नहीं है वह प्रत्येक के लिये गुरु द्वारा कथन करने और अध्यात्म दृष्टि से देखने योग्य है । वह जीवात्मा ( मायाभिः) नाना बुद्धियों, संकल्पों से ही ( पुरु-रूपः ईयते) नाना रूप का जाना जाता है । ( अस्य ) इसके शासन में, देह में ही ( दश शता हरयः ) दस सैकड़ों प्राणगण अश्वों वा भृत्यों के समान (युक्ताः ) जुड़ कर ज्ञानतन्तु, तथा शक्तितन्तुओं के रूप में काम करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
'अनेक रूप' प्रभु
पदार्थ
[१] (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (रूपं रूपम्) = प्रत्येक रूपवान् पदार्थ के (प्रतिरूपः) = प्रतिरूप बभूव होता है। सर्वव्यापक होता हुआ उस उस पदार्थ के अनुरूप रूपवाला होता है। उन पदार्थों में यह प्रभु की उपस्थिति ही विभूति की स्थापना का कारण बनती है। प्रभु सूर्य-चन्द्र में प्रभारूप से हैं, तो जलों में इस रूप से, और पृथिवी में पुण्यगन्ध के रूप से। बलवानों में बल के रूप में हैं, तो बुद्धिमानों में बुद्धि के रूप से हैं। (अस्य) = इस प्रभु का (तद् रूपम्) = वह रूप (प्रतिचक्षणाय) = प्रत्येक व्यक्ति से देखने योग्य होता है। स्वयं निराकार वे प्रभु दर्शन का विषय नहीं बनते । इन पदार्थों में प्रभु की महिमा ही दृष्टिगोचर होती है। वस्तुतः यही प्रभु का सगुण रूप है, जिसकी आराधना एक भक्त करता है। ज्ञान की कमी के होने पर यह भक्ति सूर्यादि की उपासना में रूपान्तरित हो जाती है। [२] (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (मायाभिः) = अपने अज्ञानों से (पुरुरूपः) = अनेक रूपोंवाले होते हुए ईयते-गति करते हैं । अस्य- इस प्रभु के (हि) = ही (दश हरयः) = ये दस संख्यावाले इन्द्रियाश्व (शता) = शतवर्षपर्यन्त (युक्ताः) = हमारे शरीर रथों में जुते होते हैं। इन इन्द्रियों की रचना में भी प्रभु की महिमा दर्शनीय होती है ।
भावार्थ
भावार्थ– वे निराकार प्रभु इन स्तवन पदार्थों में उस उस पदार्थ के अनुरूप दिखते हैं। इन पदार्थों में ही प्रभु की महिमा द्रष्टव्य होती है। सर्वत्र प्रभु की ज्ञानपूर्विका कृतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। हमारे शरीरों में इन्द्रियाश्व भी अद्भुत महिमावाले हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी विद्युत पदार्थांमध्ये तद्रुप होते तसा जीव शरीरामध्ये शरीर स्वभावाप्रमाणे बनतो. जेव्हा बाह्य विषय पाहण्याची इच्छा करतो तेव्हा त्याला पाहून त्याचे स्वरूप ज्ञान जीवाला होते. या शरीरात विद्युतसहित असंख्य नाड्या आहेत, त्यांच्याद्वारे जीव सर्व शरीराचे वर्तमान जाणतो. ॥ १८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, the supreme soul, pervades all forms of existence to reveal that pervasive form of presence according to each form. The individual soul, the jiva, takes on one form of life after another to reveal that existential form of its real self. The ruler takes over each form of the institutions of his governance to reveal his power and presence through that institution. Indra thus, of many many forms of manifestation goes on by manifold powers and potentials, assisted by thousands of its motive forces like the master of a chariot drawn by horses.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What is the nature of this soul-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! the soul by its manifestations conveys the same forms. This is its only form to talk about. It assumes many bodies according to its actions and is therefore multiformed. It has its thousands of forms of the senses (inner and outer) Pranas and thousands of nerves, which are comparable i fastness with horses.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! as electricity assumes practically the the soul same form as the object it enters, in the same manner, becomes, of the same nature as the body. When it desires to see an external object, its knowledge becomes of the same form having seen it. It comminates with the entire body through innumerable nerves which are contained in the body along with electricity.
Translator's Notes
It is opposed, therefore, to the Nirukta and the Jaimineeyo Brahmana to take Indra for God and मायाभिः as illusions as taken by Prof. Wilson, Griffith and others माया इति प्रज्ञानाम (NG 3, 9) To translate it as illusion is wrong. Shri Sayanacharya himself has rightly stated in his first interpretation of the mantra मायाभिः ज्ञाननामैतत् । ज्ञानै:-आत्मीयैः संकल्पैः । But he has given the other meaning as अनादिमायाश्क्तिभि: as not his own but as other's opinion saying अन्ये मन्यन्ते । इन्द्रिय-मिन्द्रलिङ्ग मिन्द्र दृष्टमिनु सृष्टमिन्द्र जुष्टमिन्द्र दत्तमिति वा इति पाणिनीयाय । व्याप्वाम् 5, 2, 3 इन्द्र आत्मा इति काशिकायामपि । The Neo-Vedantic interpretation is not authentic, opposed to the Nirukta, Jaimineey-punishad Brahman and other ancient literature, as well as, to reason or even common sense. It is simply ridiculous to say as Wilson has done 'Indra' multiform by his illusions, proceeds to his many worshippers, for the horses yoked to his car are a thousand” (Wilson). Its absurdity is evident on the face of it.
Foot Notes
(हरयः) अश्वा इवेन्द्रियाण्यन्तःकरणप्राणाः । तदवत् एतेःइदं सर्वं हरति तस्माद् हरयः (जैमिनीयो 1, 14, 35 ) तस्मात् हरणशीलत्वात् अश्वा: इन्द्रियान्त: करण प्राणादयो हरयः अदित्वस्य हरयः हरण आदित्य रश्मय: । (NKT 7,7,24) जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मणेऽस्यमूकस्यसूर्यपरक व्याख्यानेभिहितम् । युक्तस्यास्य (इन्द्रस्य) हरयः शता दशेति सहत्रहैत आदित्य खमयः। तेस्य युक्तास्तैरिव्म सर्वतरति तद्यदे तैरिदं सर्वं हरति तस्माद् हरयः (जैमिनीयोप 1, 14, 3, 5)। = Horses in the form of inner and outer senses, Prana's and thousands of nerves. (प्रतिचक्षणाय) प्रत्यक्षकथनाय । = For talking about. (प्रतिरूपः) तदाकारवर्तमानः । = Present in the same form. (मायाभि:) प्रज्ञाभिः। = By intellect.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal