ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 3
अ॒यं मे॑ पी॒त उदि॑यर्ति॒ वाच॑म॒यं म॑नी॒षामु॑श॒तीम॑जीगः। अ॒यं षळु॒र्वीर॑मिमीत॒ धीरो॒ न याभ्यो॒ भुव॑नं॒ कच्च॒नारे ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । मे॒ । पी॒तः । उत् । इ॒य॒र्ति॒ । वाच॑म् । अ॒यम् । म॒नी॒षाम् । उ॒श॒तीम् । अ॒जी॒ग॒रिति॑ । अ॒यम् । षट् । उ॒र्वीः । अ॒मि॒मी॒त॒ । धीरः॑ । न । याभ्यः॑ । भुव॑नम् । कत् । च॒न । आ॒रे ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं मे पीत उदियर्ति वाचमयं मनीषामुशतीमजीगः। अयं षळुर्वीरमिमीत धीरो न याभ्यो भुवनं कच्चनारे ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। मे। पीतः। उत्। इयर्ति। वाचम्। अयम्। मनीषाम्। उशतीम्। अजीगरिति। अयम्। षट्। उर्वीः। अमिमीत। धीरः। न। याभ्यः। भुवनम्। कत्। चन। आरे ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स सोमः किं करोतीत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथायं पीतः सोमो मे वाचमुशतीं मनीषामुदियर्त्ति येनाऽयं जनः काममजीगः। येनायं षडुर्वीर्धीरो नामिमीत याभ्य आरे कच्चन भुवनममिमीत सोऽयं वैद्यकशास्त्ररीत्या निर्मातव्यः ॥३॥
पदार्थः
(अयम्) (मे) मम (पीतः) (उत्) (इयर्त्ति) उन्नयति (वाचम्) (अयम्) (मनीषाम्) प्रज्ञाम् (उशतीम्) कामयमानाम् (अजीगः) गच्छति प्राप्नोति (अयम्) (षट्) (उर्वीः) षड्विधा भूमीः (अमिमीत) (धीरः) ध्यानवान् मेधावी (न) (याभ्यः) (भुवनम्) (कत्) कदा (चन) अपि (आरे) दूरे समीपे वा ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! येन पीतेन वाग्बुद्धितनु वर्धेत येन शास्त्राणि सङ्गृहीतानि स्युस्तस्यैव सेवनं कार्यं न च बुद्ध्यादिनाशकस्य ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह सोम ओषधि क्या करती है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (अयम्) यह (पीतः) पान किया गया सोमलता का रस (मे) मेरी (वाचम्) वाणी को (उशतीम्) कामना करती हुई (मनीषाम्) बुद्धि को (उत्, इयर्त्ति) बढ़ाता है जिससे (अयम्) यह जन कामना को (अजीगः) प्राप्त होता है जिससे (अयम्) यह (षट्) छः प्रकार की (उर्वीः) भूमियों को (धीरः) ध्यान करनेवाला बुद्धिमान् जन (न) जैसे (अमिमीत) निर्म्माण करता है और (याभ्यः) जिन से (आरे) दूर वा समीप में (कत्) कभी (चन) भी (भुवनम्) संसार को रचता है, यह वैद्यकशास्त्र की रीति से बनाने योग्य है ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिस पिये हुए से वाणी, बुद्धि, शरीर बढ़े और जिससे शास्त्र उत्तम प्रकार ग्रहण किये जायें, इसका ही सेवन करना चाहिये, न कि बुद्धि आदिकों के नाश करनेवाले का ॥३॥
विषय
ओषधि रस के दृष्टान्त से राजा के कर्तव्य।
भावार्थ
( अयं ) यह ओषधिरस जिस प्रकार ( पीतः वाचम् उत् इयर्ति ) पान किया जाकर उत्तम वाक्-शक्ति को उत्पन्न करता है, और ( अयम् ) जिस प्रकार ओषधिरस (उशतीम् मनीषाम् अजीगः ) कामना करने योग्य, उत्तम प्रजा या बुद्धि को जागृत करता है उसी प्रकार (अयं) यह विद्वज्जन वा सौम्य प्रजाजन ( पीतः ) पालित पोषित होकर ( वाचम् इत् इयर्ति ) वेदमय, ज्ञानवाणी का उपदेश करता है । ( उशतीम् ) उत्तम कमनीय ( मनीषाम् ) बुद्धि, मति को ( अजीगः ) अन्यों को प्राप्त कराता और जगाता है । और जिस प्रकार ओषधि रस के बल से ( धीरः ) बुद्धिमान् ध्यानी पुरुष (याभ्यः आरे कत् चन भुवनं न) जिनसे परे कोई भुवन नहीं उन ( षड् ऊर्वी: अमिमीत ) छहों विशाल चराचर लोक-सृष्टियों, प्रकृति की विकृतियों को भी जान लेता है उसी प्रकार ( अयं ) यह राजा भी ( धीरः ) धैर्यवान् होकर उस विद्वज्जन के द्वारा: ( षट् ऊर्वीः ) उन छः बड़ी, प्रजा संस्थाओं या राजप्रकृतियों को भी ( अमिमीत ) अपने अधीन कर लेता है ( याभ्यः आरे ) जिनसे परे या जिनसे निकट ( कत् चन भुवनं न ) कोई भी लोक नहीं है ।
टिप्पणी
षड् ऊर्वीः—प्रकृति के पांच भूत, पांच विकृति और महत्ततत्व, अथवा पांच इन्द्रिय, तन्मात्रा और छठा मानस तत्व । राजतन्त्र स्वपक्ष की षड् प्रकृतियां स्वामी के अतिरिक्त अमात्यादि, वा षड् गुण, अथवा द्वादश राज-चक्र में स्वपक्ष परपक्ष के छः छः सुहृदादि ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
नीषाम् ओषधि
पदार्थ
[१] (पीतः) = पिया हुआ, शरीर में ही सुरक्षित किया हुआ (अयम्) = यह सोम मे (वाचम्) = मेरे लिये ज्ञान की वाणियों को (उदियर्ति) = उद्गत करता है। (अयम्) = यह (उशती) = कान्त (मनीषाम्) = बुद्धि को [उद्य् अजीण:= [उद्गार यति]] प्रकाशित करता है । [२] (अयम्) = यह (धीर:) = बुद्धि को प्रेरित करनेवाला सोम [ धियं ईरयति] (षट्-छ: उर्वीः) = 'द्युलोक, पृथिवीलोक, दिन-रात व जल ओषधि' रूप उर्वियों को (अमिमीत) = सम्यक् जाननेवाला होता है। उन उर्वियों को (याभ्यः) = जिनसे कि (कच्चन भुवनं आरे न) = कोई भी लोक व प्राणी दूर नहीं होता। सब प्राणियों के जीवन का आधार ये छ: उर्वियाँ ही हैं। सोमरक्षक इन्हें सम्यक् जाननेवाला होता व अपने जीवन में इनका ठीक निर्माण करता है। मस्तिष्क ही द्युलोक है, पृथिवी शरीर है। इन्हें तो वह बनाते ही हैं । एक-एक दिन को वह ठीक बिताता है व दीर्घजीवनवाला होता है और जल- ओषधियों का समुचित प्रयोग करता है।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम [१] ज्ञान की वाणियों को उदित करता है, [२] बुद्धि को प्रकाशित करता है, [३] हमारे जीवन में 'द्युलोक, पृथिवीलोक, दिन-रात व जल ओषधियों' का ठीक स्थान में रखता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्याचे (सोमलतेचे) प्राशन केल्याने वाणी, बुद्धी व शरीर वाढते व ज्याद्वारे शास्त्राचे उत्तम प्रकारे ग्रहण केले जाते त्याचेच प्राशन केले पाहिजे, बुद्धीचा नाश करणाऱ्याचे नव्हे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This ecstasy of soma stimulates and refines my speech, it energises and sublimates my mind and awareness to love and passion for divinity. Man in the state of mental stability and spiritual constancy realises the six dimensional universe of existence beyond which there is no world of matter or mind higher or lower.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What does Soma do-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! this Soma when properly drunk stirs up my voice and strengthens my intellect desiring the knowledge of all objects, by which a man get his desires fulfilled. Like a wise man of meditation, it enables me to acquire the knowledge of all six kinds of earth including all creatures, far and near. This Soma should be prepared according to the medical science.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! only such articles should be taken as increase the strength of the speech, intellect and body and by which knowledge of the scriptures can be easily grasped. Things which diminish or spoil the power of intellect and body should never be taken.
Foot Notes
(मनीषाम्) प्रज्ञाम् । मनीषा-मनसईषया स्तुत्या प्रज्ञयावा (NKT 2, 7, 25 ) अत्र प्रज्ञार्थग्रहणम् | = Intellect. (उशतीम् ) कामयमानाम् । (उशती) वश-कान्तौ(अदा.) कान्तिः-कामना। = Desiring the knowledge.
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