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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 48/ मन्त्र 20
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - मरुतः छन्दः - स्वराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    वा॒मी वा॒मस्य॑ धूतयः॒ प्रणी॑तिरस्तु सू॒नृता॑। दे॒वस्य॑ वा मरुतो॒ मर्त्य॑स्य वेजा॒नस्य॑ प्रयज्यवः ॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒मी । वा॒मस्य॑ । धू॒त॒यः॒ । प्रऽनी॑तिः । अ॒स्तु॒ । सू॒नृता॑ । दे॒वस्य॑ । वा॒ । म॒रु॒तः॒ । मर्त्य॑स्य । वे॒जा॒नस्य॑ । प्र॒ऽय॒ज्य॒वः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वामी वामस्य धूतयः प्रणीतिरस्तु सूनृता। देवस्य वा मरुतो मर्त्यस्य वेजानस्य प्रयज्यवः ॥२०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वामी। वामस्य। धूतयः। प्रऽनीतिः। अस्तु। सूनृता। देवस्य। वा। मरुतः। मर्त्यस्य। वेजानस्य। प्रऽयज्यवः ॥२०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 48; मन्त्र » 20
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः कीदृशी नीतिर्धार्येत्याह ॥

    अन्वयः

    हे धूतयः प्रयज्यवो ! युष्मासु वामस्य वामी देवस्य वा मरुत ईजानस्य वा मर्त्यस्य सूनृता प्रणीतिरस्तु ॥२०॥

    पदार्थः

    (वामी) बहुप्रशस्तकर्मा (वामस्य) प्रशस्यस्य (धूतयः) कंपयितारः (प्रणीतिः) प्रकृष्टा नीतिः (अस्तु) (सूनृता) सत्यभाषणादियुक्ता (देवस्य) विदुषः (वा) (मरुतः) मरणधर्मस्य (मर्त्यस्य) साधारणमनुष्यस्य (वा) (ईजानस्य) यज्ञकर्तुः (प्रयज्यवः) प्रकर्षेण यज्ञसम्पादकाः ॥२०॥

    भावार्थः

    आप्तो राजाऽमात्यानुपदिशेत् भवन्तो न्यायकारिणो धर्मात्मानो भूत्वा पुत्रवत्प्रजाः पालयन्त्विति ॥२०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को कैसी नीति धारण करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (धूतयः) कम्पन करानेवाले (प्रयज्यवः) उत्तमता से यज्ञसम्पादको ! तुम में (वामस्य) प्रशंसा करने योग्य का सम्बन्धी (वामी) बहुत प्रशंसित कर्मकर्ता और (देवस्य) विद्वान् की (वा) वा (मरुतः) मरणधर्मा तथा (ईजानस्य) यज्ञकर्त्ता (वा) वा (मर्त्यस्य) साधारण मनुष्य की (सूनृता) सत्यभाषणादि युक्त (प्रणीतिः) उत्तम नीति (अस्तु) हो ॥२०॥

    भावार्थ

    आप्त राजा मन्त्रियों को उपदेश देवे कि आप लोग न्यायकारी तथा धर्मात्मा होकर पुत्र के समान प्रजाजनों को पालें ॥२०॥

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    विषय

    उससे प्रार्थनाएं ।

    भावार्थ

    (हे धूतयः) शत्रुओं को कंपाने और भीतरी दोषों को त्यागने हारे, (प्र-यज्यवः ) उत्तम दान, यज्ञ और सत्संग करने वाले, ( मरुतः ) विद्वान् पुरुषो ! ( वामस्य ) श्रेष्ठ ( देवस्य ) दानशील, व्यवहारज्ञ, और तेजस्वी, ( वा ) और ( ईजानस्य ) यज्ञशील ( मर्त्यस्य ) मनुष्य की ( सूनृता ) उत्तम सत्यवाणी और (प्र-नीतिः) उत्तम नीति (वामी अस्तु) सबको सुन्दर लगने वाली, प्रिय हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः। तृणपाणिकं पृश्निसूक्तं ॥ १–१० अग्निः। ११, १२, २०, २१ मरुतः । १३ – १५ मरुतो लिंगोत्का देवता वा । १६ – १९ पूषा । २२ पृश्निर्धावाभूमी वा देवताः ॥ छन्दः – १, ४, ४, १४ बृहती । ३,१९ विराड्बृहती । १०, १२, १७ भुरिग्बृहती । २ आर्ची जगती। १५ निचृदतिजगती । ६, २१ त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ भुरिग् नुष्टुप् । २० स्वरराडनुष्टुप् । २२ अनुष्टुप् । ११, १६ उष्णिक् । १३, १८ निचृदुष्णिक् ।। द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    वामी सूनृता [वाक्]

    पदार्थ

    [१] हे (धूतयः) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाले, (प्रयज्यवः) = प्रकृष्ट यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त होनेवाले (मरुतः) = प्राणो! (देवस्य) = दिव्य गुणों से युक्त (वा) = व (ईजानस्य मर्त्यस्य) = यज्ञशील मनुष्य = प्रणेत्री की (वामी) = सुन्दर (सूनृता) = प्रिय सत्यात्मिका वाणी (वामस्य) = सुन्दर धनों की (प्रणीतिः अस्तु) = हो। [२] प्राणसाधना करने से काम-क्रोध आदि शत्रुओं का विनाश होता है और यज्ञादि कर्मों की वृत्ति उत्पन्न होती है। यह प्राणसाधक देव बनता है तथा यज्ञशील मनुष्य बनता है । यह प्राणसाधक सदा सुन्दर सूनृत वाणीवाला बनता है। सुन्दर धनों को प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना वासनाओं को विनष्ट करके हमें यज्ञशील बनाती है। इस से हमारी वाणी सूनृत बनती है। प्राणसाधना हमें सुन्दर धनों को प्राप्त कराती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान राजाने मंत्र्यांना उपदेश करावा. तुम्ही न्यायी व धर्मात्मा बनून पुत्राप्रमाणे प्रजापालन करावे. ॥ २० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Maruts, tempestuous heroes, movers and shakers in action and holy creative performers, let the policy, programmes and acts of the people be noble and graceful, inspired and directed by truth and righteousness, promotive for all, whether the person is exceptionally noble, or brilliant, or ordinary mortal, or a priest and yajaka.

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