ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
वि॒शोवि॑श॒ ईड्य॑मध्व॒रेष्वदृ॑प्तक्रतुमर॒तिं यु॑व॒त्योः। दि॒वः शिशुं॒ सह॑सः सू॒नुम॒ग्निं य॒ज्ञस्य॑ के॒तुम॑रु॒षं यज॑ध्यै ॥२॥
स्वर सहित पद पाठवि॒शःऽवि॑शः । ई॒ड्य॑म् । अ॒ध्व॒रेषु॑ । अदृ॑प्तऽक्रतुम् । अ॒र॒तिम् । यु॒व॒त्योः । दि॒वः । शिशु॑म् । सह॑सः । शू॒नुम् । अ॒ग्निम् । य॒ज्ञस्य॑ । के॒तुम् । अ॒रु॒षम् । यज॑ध्यै ॥
स्वर रहित मन्त्र
विशोविश ईड्यमध्वरेष्वदृप्तक्रतुमरतिं युवत्योः। दिवः शिशुं सहसः सूनुमग्निं यज्ञस्य केतुमरुषं यजध्यै ॥२॥
स्वर रहित पद पाठविशःऽविशः। ईड्यम्। अध्वरेषु। अदृप्तऽक्रतुम्। अरतिम्। युवत्योः। दिवः। शिशुम्। सहसः। सूनुम्। अग्निम्। यज्ञस्य। केतुम्। अरुषम्। यजध्यै ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः कं स्तूयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! अध्वरेषु विशोविशो मध्येऽरतिमदृप्तक्रतुमीड्यं युवत्योर्दिवः शिशुं सहसस्सूनुमग्निमिव वर्त्तमानमरुषं यज्ञस्य केतुं यजध्यै स्तुवन्तु ॥२॥
पदार्थः
(विशोविशः) प्रजायाः प्रजाया मध्ये (ईड्यम्) स्तोतुमर्हम् (अध्वरेषु) अहिंसनीयेषु व्यवहारेषु (अदृप्तक्रतुम्) अमोहितप्रज्ञम् (अरतिम्) विषयेष्वरममाणम् (युवत्योः) युवावस्थां प्राप्तयोः स्त्रीपुरुषयोः (दिवः) कमनीयस्य (शिशुम्) बालकम् (सहसः) बलवतः (सूनुम्) (अग्निम्) पावकमिव वर्त्तमानम् (यज्ञस्य) (केतुम्) प्रज्ञापकम् (अरुषम्) आरक्तगुणम् (यजध्यै) यष्टुं सङ्गन्तुम् ॥२॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यो ब्रह्मचर्य्येण युवावस्थां प्राप्तयोः स्त्रीपुरुषयोरुत्तमाद् बलाज्जातोऽग्निरिव तेजस्वी भवेत्तमेव राजानमधिकारिणं वा कुरुत ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य किसकी स्तुति करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (अध्वरेषु) अहिंसनीय व्यवहारों में (विशोविशः) प्रजा-प्रजा के बीच (अरतिम्) विषयों में विना रमते हुए (अदृप्तक्रतुम्) जिसकी बुद्धि मोहित नहीं हुई उस (ईड्यम्) स्तुति करने योग्य (युवत्योः) युवावस्था को प्राप्त हुए स्त्री-पुरुष के (दिवः) मनोहर व्यवहारसम्बन्धी (शिशुम्) बालक की (सहसः) वा बलवान् के (सूनुम्) उस पुत्र की जो (अग्निम्) अग्नि के समान वर्त्तमान तथा (अरुषम्) कुछ लाल रंग युक्त और (यज्ञस्य) यज्ञादि कर्म का (केतुम्) अच्छे प्रकार समझानेवाला है (यजध्यै) सङ्ग करने के लिये स्तुति करो ॥२॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो ब्रह्मचर्य्य से युवा अवस्था को प्राप्त स्त्री-पुरुषों के उत्तम बल से उत्पन्न, अग्नि के समान तेजस्वी हो, उसको राजा वा अधिकारी करो ॥२॥
विषय
ब्रह्म, क्षत्र के कर्तव्य ।
भावार्थ
( विशः विशः ) प्रत्येक प्रजा में ( ईडयम् ) स्तुति योग्य, (अध्वरेषु ) हिंसारहित, अविनाश योग्य, स्थायी कार्य-व्यवहारों में, ( अदृप्त-क्रतुम्) बुद्धि में मोहित न होने वाला, कर्म करने पर गर्व रहित, (युवत्योः) युवा युवति दोनों के बीच (दिवः) अति कमनीय, तेजस्विनी, एक पुत्र की कामना करने वाली स्त्री और ( सहसः ) बलवान् पुरुष दोनों के ( सूनुम् ) पुत्र ( अग्निम् ) अग्नि के समान तेजस्वी, ( अरतिम् ) विषय में न रमने वाले, जितेन्द्रिय, ( यज्ञस्य केतुम् ) यज्ञ के परस्पर संगति, लेन देन के व्यवहार के ज्ञापक, प्रमुख चिह्न रूप और ( अरुषं ) रोष रहित, सौम्य पुरुष को ( यजध्यै ) आदर सत्कार करने के लिये उसकी स्तुति करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः - १, ३, ४, १०, ११ त्रिष्टुप् । ५,६,९,१३ निचृत्त्रिष्टुप् । ८, १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १४ स्वराट् पंक्तिः । ७ ब्राह्मयुष्णिक् । १५ अतिजगती । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
दिवः शिशुं, सहसः सूनुम्
पदार्थ
[१] (विशः विशः) -=सब प्रजाओं के (अध्वरेषु) = हिंसारहित कर्मों में (ईड्यम्) = प्रभु उपासनीय हैं। (अदृप्त क्रतुम्) = [दृप् माहने] अमूढ प्रज्ञावाले हैं, जिनकी चेतना कभी विलुप्त नहीं होती। (युवत्योः) = इन द्यावापृथिवी में (अरतिम्) = [अभिगन्तारं] गतिवाले हैं। सर्वत्र प्रभु की रचना व रचना का महत्त्व दृष्टिगोचर होता है। [२] (दिवः शिशुम्) = [दिव् स्तुतौ] स्तोता की बुद्धि को तीव्र करनेवाले हैं 'शो तनूकरणे' । (सहसः सूनुम्) = बल के पुत्र [पुतले= पुञ्ज] हैं। (यज्ञस्य केतुम्) = सब यज्ञों के प्रकाशक हैं । (अरुषम्) = आरोचमान हैं। इन (अग्निम्) = अग्रेणी प्रभु को यजध्यै उपासित करने के लिये मैं यत्नशील होता हूँ ।
भावार्थ
भावार्थ– सब यज्ञों के प्रकाशन व प्रवर्तक हमारे चेतन सर्वशक्तिमान् प्रभु का हम उपासन करें ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जो ब्रह्मचर्य पालन करून युवावस्था प्राप्त केलेल्या बलवान स्त्री-पुरुषाकडून उत्पन्न झालेल्या अग्नीप्रमाणे तेजस्वी असेल त्याला राजा किंवा अधिकारी बनवा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I admire and adore Agni, leader of light and fire, honoured and worshipped in every community, calm and delighted in yajnic projects of love and non violence, free from illusion and infatuation, generated by youthful parents, i.e., sun and earth, child of cosmic energy, symbol and column of yajna, and crimson red like the dawn which is brilliant and soothing. I pray may Agni come and join us at our yajna.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Whom should men praise-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should praise for association that person, who is a purifier like the fire, who is admirable in all non-violent dealings, free from attachment to worldly objects while living among men, whose intellect is devoid of illusion or ignorance, born from the union of youthful husband and wife, the son of a mighty and charming father, splendid and enlightener of the Yajna.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should elect him as a ruler or officer, who is born from the good vitality of the youthful couple, who have observed Brahmacharya (abstinence) and who is full of splendor like the fire.
Foot Notes
(अध्वरेषु) अहिंसनीयेषु व्यवहारेषु । ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेध (NKT 1, 3, 8)। = In non-violent and inviolable dealings. (अद्रिप्तक्रतुम्) जमोहितप्रज्ञम । दूप-हर्ष मोहनयोः (दिवा.) अत्र मोहनार्थ:। = Whose intellect is devoid of illusion or ignorance. (अरतिम्) विषयेव्वरममाणम् । = Not attached to worldly objects.
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