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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 7
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ओ॒मान॑मापो मानुषी॒रमृ॑क्तं॒ धात॑ तो॒काय॒ तन॑याय॒ शं योः। यू॒यं हि ष्ठा भि॒षजो॑ मा॒तृत॑मा॒ विश्व॑स्य स्था॒तुर्जग॑तो॒ जनि॑त्रीः ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ओ॒मान॑म् । आपः । मा॒नु॒षीः॒ । अमृ॑क्तम् । धात॑ । तो॒काय॑ । तन॑याय । शम् । योः । यू॒यम् । हि । स्थ । भि॒षजः॑ । मा॒तृऽत॑माः । विश्व॑स्य । स्था॒तुः । जग॑तः । जनि॑त्रीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ओमानमापो मानुषीरमृक्तं धात तोकाय तनयाय शं योः। यूयं हि ष्ठा भिषजो मातृतमा विश्वस्य स्थातुर्जगतो जनित्रीः ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ओमानम्। आपः। मानुषीः। अमृक्तम्। धात। तोकाय। तनयाय। शम्। योः। यूयम्। हि। स्थ। भिषजः। मातृऽतमाः। विश्वस्य। स्थातुः। जगतः। जनित्रीः ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा मातृतमा जनित्रीस्तोकाय तनयाय शं कुर्वन्ति तथा यूयमाप इवाऽमृक्तमोमानं मानुषीः प्रजा धात स्थातुर्जगतो विश्वस्य हि यूयं भिषजः स्था यथा न्यायेशः सर्वान् सुखं योः प्रापयति तथैवाऽत्र वर्त्तध्वम् ॥७॥

    पदार्थः

    (ओमानम्) रक्षादिकर्त्तारम् (आपः) जलानीव (मानुषीः) मनुष्यसम्बन्धिनीः प्रजाः (अमृक्तम्) अशुद्धं जनम् (धात) धरत (तोकाय) अल्पवयसे (तनयाय) सुकुमाराय सन्तानाय (शम्) सुखम् (योः) प्रापयति (यूयम्) (हि) यतः (स्था) भवत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (भिषजः) सद्वैद्याः (मातृतमाः) अतिशयेन मातृवत् कृपालवः (विश्वस्य) संसारस्य (स्थातुः) स्थावरस्य (जगतः) जङ्गमस्य (जनित्रीः) जनन्यः ॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे अध्यापकोपदेशका यूयमशुद्धं जनं सत्यं ग्राहयित्वा शुद्धं सम्पादयत सर्वस्य जगतो रक्षणेऽविद्यारोगनिवारकः सन्तः सर्वान् मातृवत् पालयत ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (मातृतमाः) अतीव माता के समान कृपालु तथा (जनित्रीः) उत्पन्न करनेवाली (तोकाय) थोड़ी आयुवाले सन्तान वा (तनयाय) सुन्दर कुमार सन्तान के लिये (शम्) सुख करती हैं, वैसे (यूयम्) तुम (आपः) जलों के समान (अमृक्तम्) अशुद्ध जन को वा (ओमानम्) रक्षा आदि करनेवाले को और (मानुषीः) मनुष्य सम्बन्धी प्रजाओं को (धात) धारण करो तथा (स्थातुः) स्थावर वा (जगतः) जङ्गम (विश्वस्य) संसार के (हि) जिस कारण तुम (भिषजः) वैद्य (स्था) हो, वा जैसे न्यायाधीश सबको सुख (योः) पहुँचाता है, वैसे यहाँ वर्त्तो ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे अध्यापक और उपदेशको ! तुम अपवित्र जन को सत्य ग्रहण कराकर शुद्ध करो तथा सब जगत् की रक्षा करने के निमित्त अविद्यारूपी रोग के निवारण करनेवाले होते हुए सब को माता के तुल्य पालो ॥७॥

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    विषय

    आप्तजनों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( आपः ) आप्त जनो ! आप लोग (ओमानं) रक्षा आदि करने वाले, पुरुष को और ( मानुषी: ) मनुष्य प्रजा और ( अमृक्तं ) अशुद्ध जन को भी जलवत् स्वच्छ करके (धात) धारण पोषण करो । और ( तोकाय तनयाय ) छोटी उमर वाले पुत्र के लिये मातावत् ( शं ) शान्ति प्रदान और दुःख दूर करो । ( यूयं ) आप लोग (विश्वस्य) समस्त ( स्थातुः जगतः ) स्थावर और जंगम दोनों की ( जनित्रीः) पैदा करने वाली ( मातृतमाः ) उत्तम माताओं के समान ( भिषजः स्थ) सब रोगों को दूर करने वाले होओ । जल जिस प्रकार स्थावर और वृक्षादि जंगम जीवों को उत्पन्न करते और सर्व रोग हरते, शान्ति देते, पीड़ा हरते अशुद्ध को स्वच्छ करते अन्न को बढ़ाते और उत्तम माता के समान हैं। उसी प्रकार आप्त जन वैद्यवर, और माताएं स्त्रियें भी, रक्षक को बचावें, अशुद्ध को शुद्ध करें, पुत्रों को शान्ति दें, उत्तम सन्तान और अन्य वनस्पति आदि को उत्पन्न करें । ज्ञानवान् प्रमाता होने से विद्वान् ‘मातृतम’ हैं । स्थावर जंगम सबका ज्ञान प्रकट करने वा विज्ञानपूर्वक उत्पन्न करने से दोनों के ‘जनित्री’ हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वे देवा देवताः ॥ छन्दः–१, ७ त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, १३ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ९ पंक्ति: । १४ भुरिक् पंक्ति: । १५ निचृत्पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    मातृतमा: आपः

    पदार्थ

    [१] हे (मानुषी:) = मानवहितकारी (आपः) = जलो ! (अमृक्तम्) = अहिंसित (ओमानम्) = रक्षण को धात हमारे लिये धारण करो तथा (तोकाय तनयाय) = हमारे पुत्र-पौत्रों के लिये (शं यो:) = रोगों के शमन तथा भयों के यावन [=पृथक् करण] का कारण बनो । [२] हे जलो ! (यूयम्) = आप (हि) = ही (भिषजः स्थ) = औषध हो । (मातृतमा:) = हमारे जीवनों में उत्कृष्ट शक्तियों का निर्माण करनेवाले हो । (विश्वस्य) = सब (स्थातुः जगतः) = स्थावर जंगम के (जनित्री:) = विकास व प्रादुर्भाव को करनेवाले हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- जलों के ठीक प्रयोग से हमारा जीवन सुरक्षित शान्त व अभय बने। ये जल औषध हैं, माता के समान पुत्र-पौत्रों का हित करनेवाले हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे अध्यापक व उपदेशकांनो! तुम्ही अपवित्र लोकांना सत्य ग्रहण करायला लावून त्यांना पवित्र करा व सर्व जगाचे रक्षण करण्यासाठी अविद्या रोगनिवारक बनून सर्वांचे मातेप्रमाणे पालन करा. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O waters of purity, Apah, O leaders of humanity pure at heart like holy waters, you are a bliss for humanity. Bear and bring nourishing, protective and unsullied food for our children and for our youth and bring about a state of peace free from sin and evil. You are the most motherly harbingers of health, the best physicians. You are the makers of a new generation for all the moving and non-moving world. Pray stay constant and friendly as you are.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the enlightened persons do-is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as mothers, endowed with the pure motherlike kindness, always cause happiness to their infants and grown-up children, so like waters purifying the unclean person, uphold the protector and all human subjects. You are the physicians of the world whether stationary or moving. As a dispenser of justice causes happiness to all good persons, so you should act impartially.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers! you should make an impure person pure by urging upon him to accept truth. Preserve or nourish all like mothers by removing the disease of ignorance for the protection of the world.

    Foot Notes

    (भिषज:) सर्द्वद्या। = Good physicians. (योः) प्रापयति (यो:) यु-मिश्रण मिश्रणयो (अदा) अत्र मिश्रणर्थ:। = Conveys, leads to. (मातृतमा:) अतिशयेन मातृवत् कृपालवः । = Very kind like mothers. How sublime is this conception about teachers, preachers and physicians not only to be like fathers but like the kindest mothers. Nothing can be grander than this.

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