ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 3
ऋषिः - ऋजिश्वाः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स्तु॒ष उ॑ वो म॒ह ऋ॒तस्य॑ गो॒पानदि॑तिं मि॒त्रं वरु॑णं सुजा॒तान्। अ॒र्य॒मणं॒ भग॒मद॑ब्धधीती॒नच्छा॑ वोचे सध॒न्यः॑ पाव॒कान् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठस्तु॒षे । ऊँ॒ इति॑ । वः॒ । म॒हः । ऋ॒तस्य॑ । गो॒पान् । अदि॑तिम् । मि॒त्रम् । वरु॑णम् । सु॒ऽजा॒तान् । अ॒र्य॒मण॑म् । भग॑म् । अद॑ब्धऽधीतीन् । अच्छ॑ । वो॒चे॒ । स॒ऽध॒न्यः॑ । पा॒व॒कान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तुष उ वो मह ऋतस्य गोपानदितिं मित्रं वरुणं सुजातान्। अर्यमणं भगमदब्धधीतीनच्छा वोचे सधन्यः पावकान् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठस्तुषे। ऊँ इति। वः। महः। ऋतस्य। गोपान्। अदितिम्। मित्रम्। वरुणम्। सुऽजातान्। अर्यमणम्। भगम्। अदब्धऽधीतीन्। अच्छ। वोचे। सऽधन्यः। पावकान् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः केषां प्रशंसां कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यः सधन्योऽहं वो मह ऋतस्य गोपानदितिं मित्रं वरुणमर्यमणं भगमदब्धधीतीन् सुजातान् पावकान् स्तुष उ युष्मान् प्रत्यच्छा वोचे तं मां यूयं सङ्गच्छध्वम् ॥३॥
पदार्थः
(स्तुषे) स्तौमि (उ) (वः) युष्माकम् (महः) महतः (ऋतस्य) सत्यस्य (गोपान्) पालकान् (अदितिम्) अखण्डितां विद्यां प्रकृतिं वा (मित्रम्) सुहृदम् (वरुणम्) ईप्सितव्यम् (सुजातान्) सुष्ठु प्रसिद्धान् (अर्यमणम्) न्यायेशम् (भगम्) ऐश्वर्यम् (अदब्धधीतीन्) अहिंसिताध्ययनान् (अच्छा) अत्र संहितायामिति दीर्घः (वोचे) वदेयम् (सधन्यः) धन्यैः सह वर्त्तमानः (पावकान्) पवित्रकरान् ॥३॥
भावार्थः
ये मनुष्या विदुषः प्रशंस्य सङ्गत्य सकलान् प्रकृत्यादिपदार्थविद्यादीन् विदित्वाऽन्यानध्यापयन्ति ते सर्वेषां पवित्रकराः सन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य किन की प्रशंसा करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (सधन्यः) धन्य प्रशंसितों के साथ वर्त्तमान मैं (वः) तुम्हारे (महः) बड़े (ऋतस्य) सत्य के (गोपान्) पालनेवालों वा (अदितिम्) अखण्डित विद्या वा प्रकृति वा (मित्रम्) मित्र वा (वरुणम्) इच्छा करने योग्य वा (अर्यमणम्) न्यायाधीश वा (भगम्) ऐश्वर्य वा (अदब्धधीतीन्) अविनष्ट अध्ययन व्यवहारवालों वा (सुजातान्) सुन्दर प्रसिद्ध वा (पावकान्) पवित्र करनेवाले पदार्थों की (स्तुषे) प्रशंसा करता हूँ (उ) और तुम्हारे प्रति (अच्छा) अच्छे प्रकार (वोचे) कहूँ, उस मुझे तुम अच्छे प्रकार प्राप्त होओ ॥३॥
भावार्थ
जो मनुष्य विद्वानों की प्रशंसा कर वा विद्वानों का सङ्ग कर सकल प्रकृति आदि पदार्थविद्या आदि पदार्थों को जान कर औरों को पढ़ाते हैं, वे सबके पवित्र करनेवाले हैं ॥३॥
विषय
missing
भावार्थ
( स धन्यः ) धन धान्य से सम्पन्न, एवं धन द्वारा सत्कार करने योग्य उत्तम जनों के सहित विद्यमान मैं, हे विद्वान् उत्तम पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों में से ( ऋतस्य गोपान् ) वेद, सत्य ज्ञान, न्याय, तेज, धन, और बल के रक्षा करने वाले (अदितिः) सूर्य, पृथ्वी के समान तेजस्वी माता पिता, पुत्रादि, ( मित्रं ) स्नेही, ( वरुणं ) संकटों के वारक, श्रेष्ठ, ( अर्यमणं ) न्यायकारी, शत्रुओं को नियम में रखने वाले, ( भगं ) ऐश्वर्यवान्, (सु-जातान् ) उत्तम गुणों में प्रसिद्ध, उत्तम सत्य, ( अदब्धधीतीन् ) जिनका अध्ययन, पठन पाठन नष्ट, विध्नित न हो, ऐसे पूर्ण शिक्षित (पावकान्) अग्निवत् अन्यों को पवित्र करने वाले, इन सब ( महः ऋतस्य गोपान् ) बड़े श्रेष्ठ सत्य ज्ञान, और तेज के रक्षक, जनों को मैं ( स्तुषे ) उत्तम स्तुति और ( अच्छ वोचे ) उनके प्रति सदा उत्तम वचन कहूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – १, २, ३, ५, ७, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ४, ६, ९ स्वराट् पंक्ति: । १३, १४, १५ निचृदुष्णिक् । १६ निचृदनुष्टुप् ।। षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
ऋतस्य गोपान्-सुजातान्-सधन्यः पावकान्
पदार्थ
[१] हे देवो! (महः ऋतस्य गोपान्) = महान् ऋत के रक्षक (वः) = तुम्हें (स्तुषे उ) = स्तुत करता ही हूँ। वे दिव्य भावनाएँ जो मेरे जीवन में ऋत की जो भी ठीक है उसकी रक्षा करती हैं, उनका मैं स्तवन [= शंसन] करता हूँ। (अदितिम्) = अदीना देवमाता का दिव्य गुणों को जन्म देनेवाले स्वास्थ्य को, (मित्रम्) = स्नेह की देवता को, (वरुणम्) = द्वेष के निवारण-निर्देषता की देवता को स्तुत करता हूँ। इन सब देवों को जो (सुजातान्) = उत्तम विकासवाले हैं, मैं प्रशंसित करता है। इन्हें धारण करने के लिये यत्नशील होता हूँ। [२] (अदब्धधीतीन्) = अहिंसित कर्मोंवाले, (अर्यमणम्) = [ अरीन् यच्छति] काम-क्रोध आदि का नियमन करनेवाले देवों को तथा (भगम्) = ऐश्वर्य की देवता को (अच्छा) = लक्ष्य करके (वोचे) = स्तुति वचनों का उच्चारण करता हूँ । (सधन्यः) = धनसहित (पावकान्) = पवित्र करनेवाले सब देवों का मैं स्तवन करता हूँ, इन सब दिव्य भावनाओं को धारण करने के लिये यत्नशील होता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ- मैं ऋत के रक्षक, उत्तम विकास के कारणभूत, धनसहित, पवित्र करनेवाले सब दिव्यभावों को धारण करने के लिये यत्नशील होता हूँ ।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे विद्वानांची प्रशंसा करून, संग करून संपूर्ण प्रकृती इत्यादी पदार्थविद्या इत्यादींना जाणून इतरांना शिकवितात ती सर्वांना पवित्र करणारी असतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Happy and blest, I admire and celebrate in words of song all of you, Vishvedevas, great observers and protectors of the eternal law of Truth and righteousness: Aditi, indestructible mother nature, Mitra, sun and brilliant friend, Varuna, ocean and venerable judge, Aryaman, universal guide and discriminative path maker, Bhaga, lord of honour and excellence, universally known, dauntless, intelligent and wise purifying powers all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Whom should men praise-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! associate with me well, who, being accompanied by many blessed persons praise the guards of mighty truth, inviolable complete knowledge or matter, a friend of all most desirable enlightened man, a dispenser of justice, prosperity well-known persons whose study is uninterrupted and who, are purifiers, and speak good words to you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men are purifiers of all, who having admired the enlightened men and associate with them, and having acquired the knowledge of the matter and other objects, teach others about it.
Foot Notes
(अदितिम्) अखंडितां विद्यां प्रकृति वा । (अदितिः) दो-अवखण्डने (दिवा)। = Complete knowledge or inviolable matter. (अदब्धधीतीन्) अहिसिताध्ययनान् । दभ्नोति-वधकर्मा (NG 2, 19 ) वध: हिंसा नम् । धिधारणे (तुदा.) विद्याधारणम् अध्ययनमेव । = Men of uninterrupted study.
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