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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    रि॒शाद॑सः॒ सत्प॑तीँ॒रद॑ब्धान्म॒हो राज्ञः॑ सुवस॒नस्य॑ दा॒तॄन्। यूनः॑ सुक्ष॒त्रान्क्षय॑तो दि॒वो नॄना॑दि॒त्यान्या॒म्यदि॑तिं दुवो॒यु ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रि॒शाद॑सः । सत्ऽप॑तीन् । अद॑ब्धान् । म॒हः । राज्ञः॑ । सु॒ऽव॒स॒नस्य॑ । दा॒तॄन् । यूनः॑ । सु॒ऽक्ष॒त्रान् । क्षय॑तः । दि॒वः । नॄन् । आ॒दि॒त्यान् । या॒मि॒ । अदि॑तिम् । दु॒वः॒ऽयु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रिशादसः सत्पतीँरदब्धान्महो राज्ञः सुवसनस्य दातॄन्। यूनः सुक्षत्रान्क्षयतो दिवो नॄनादित्यान्याम्यदितिं दुवोयु ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रिशादसः। सत्ऽपतीन्। अदब्धान्। महः। राज्ञः। सुऽवसनस्य। दातॄन्। यूनः। सुऽक्षत्रान्। क्षयतः। दिवः। नॄन्। आदित्यान्। यामि। अदितिम्। दुवःऽयु ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कीदृशान् पार्थिवान् मन्येरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथाहं रिशादसः सत्पतीनदब्धान् सुवसनस्य दातॄन् सुक्षत्रानदितिं क्षयतो दिवो नॄनादित्यान् यूनो दुवोयु महो राज्ञो यामि तथेदृशान् यूयमपि प्राप्नुत ॥४॥

    पदार्थः

    (रिशादसः) हिंसकान् नाशकान् (सत्पतीन्) सत्यस्य पालकान् (अदब्धान्) अहिंसितानहिंसकान् (महः) महतः (राज्ञः) नृपान् (सुवसनस्य) सुष्ठुवासस्य (दातॄन्) (यूनः) प्राप्तयौवनान् (सुक्षत्रान्) उत्तमधनाञ्छ्रेष्ठराज्यान् वा (क्षयतः) निवसतः (दिवः) कमनीयान् कामयमानान् वा (नॄन्) (आदित्यान्) कृताष्टचत्वारिंशद्[वर्ष]ब्रह्मचर्येण पूर्णविदुषः (यामि) प्राप्नोमि (अदितिम्) अखण्डितां नीतिम् (दुवोयु) दुवः परिचरणं कामयमानान् ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये चोरादीनां निष्कासका धर्मात्मनां पालका हिंसादिदोषरहिताः सर्वस्मै सुखेन वासं ददन्तः पूर्णविद्याजितेन्द्रिया न्यायेन पितृवत्प्रजापालकाः पूर्णयौवना दुर्व्यसनविरहा गुणग्राहिणः स्युस्तानेव यूयं स्वामिनो मन्यध्वं नेतरान् क्षुद्राशयान् ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य कैसे राजजनों को मानें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे मैं (रिशादसः) हिंसक वा नाश करनेवाले वा (सत्पतीन्) सत्य के पालनेवाले वा (अदब्धान्) विनाश को न प्राप्त हुए उनको वा न हिंसनेवाले वा (सुवसनस्य) सुन्दर वास के (दातॄन्) देनेवाले वा (सुक्षत्रान्) उत्तम धन और राज्यों को वा (अदितिम्) अखण्डित नीति को (क्षयतः) स्थिर होते हुए (दिवः) कामना करने योग्य और काम करने वा (नॄन्) मनुष्यों वा (आदित्यान्) किया है अड़तालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य जिन्होंने उन वा (यूनः) जवान मनुष्यों वा (दुवोयु) सेवन की कामना करनेवालों को तथा (महः) महान् (राज्ञः) राजाओं को मैं (यामि) प्राप्त होता हूँ, वैसे ऐसों को तुम भी प्राप्त होओ ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो चोर आदि के निकासने और धर्मात्माओं के पालनेवाले, हिंसादि दोषों से रहित, सब के लिये सुख से निवास देनेवाले, पूर्ण विद्यायुक्त, जितेन्द्रिय, न्याय से पिता के समान प्रजा के पालनेवाले, पूर्ण यौवनयुक्त, दुष्ट व्यसनों से रहित, गुणग्राही जन हों उन्हीं को तुम स्वामी मानो और क्षुद्र हृदयवालों को न मानो ॥४॥

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    विषय

    उत्तम नायकों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (रिशादसः) जो हिंसकों का नाश करने वाले, (सत्पतीन् ) सज्जनों के पालक, ( अदब्धान् ) स्वयं अन्यों से पीड़ित न होने और अन्यों को पीड़ा न देने वाले, ( महः ) बड़े ( राज्ञः ) राजावत् स्वामी, ( सु-वसनस्य ) उत्तम वस्त्र, वा आश्रय के ( दातॄनू ) देने वाले, ( यूनः ) युवा, तरुण, ( सु-क्षत्रात् ) उत्तम बल, धन से युक्त, ( क्षियतः ) ऐश्वर्यवान्, एवं राष्ट्र में बसने वाले, ( दिवः ) ज्ञान, प्रकाशक ( आदिस्यान्) आदित्य ब्रह्मचारी, सूर्यवत् तेजस्वी (नॄनू) नायक और ( दुवोयु) परिचर्या या सेवा की कामना करने वाले पुरुषों को और (अदितिं ) अखण्डित, एवं अदीन, उदात्त स्वभाव के माता व पिता को ( यामि ) मैं प्राप्त होऊ और विनय से उनसे याचना करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – १, २, ३, ५, ७, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ४, ६, ९ स्वराट् पंक्ति: । १३, १४, १५ निचृदुष्णिक् । १६ निचृदनुष्टुप् ।। षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    दुवोयु यामि

    पदार्थ

    [१] (रिशादसः) = हमारा हिंसन करनेवाले [रिश] शत्रुओं को [काम-क्रोध आदि को] खा जानेवाले, (सत्पतीन्) = सदुणों के रक्षक, (अदब्धान्) = अहिंसित, (महः राज्ञः) = महान् दीप्तिवाले, (सुवसनस्य दातॄन्) = उत्तम निवास को देनेवाले देवों की मैं (यामि) = याचना करता हूँ। इन दिव्यभावों को प्राप्त करने के लिये चाहता हूँ । [२] (यून:) = बुराइयों को दूर करनेवाले व अच्छाइयों को मिलानेवाले, (सुक्षत्रान्) = उत्तम बलवाले, (क्षयतः) = ऐश्वर्यशाली [क्षयतिरैश्वर्यकर्मा], (दिव: नॄन्) = प्रकाश की ओर ले जानेवाले, (आदित्यान्) = सब सदुणों का आदान करनेवाले, (अदितिं) [ अ-अदितिं ] = दिव्यगुणों की आधारभूत स्वास्थ्य की देवता को (दुवोयु) = परिचरण की कामनावाला होता हुआ [यामि] माँगता हूँ, इन सब दिव्यगुणों के धारण के लिये यत्नशील होता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ– बुराइयों के नाशक व अच्छाइयों के रक्षक सब सदुणों को प्राप्त करने के लिये मैं यत्नशील होता हूँ ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जे चोर इत्यादींना निष्कासित करणारे, धर्मात्म्याचे पालन करणारे, हिंसा इत्यादी दोषांनी रहित, सर्वांचा सुखकारक निवास करविणारे पूर्ण विद्यायुक्त, जितेंद्रिय, न्यायाने पित्याप्रमाणे प्रजेचे पालन करणारे, पूर्ण यौवनयुक्त, वाईट व्यसनांपासून मुक्त, गुणग्राही असणाऱ्यांना तुम्ही स्वामी माना. क्षुद्र हृदयाच्या लोकांना मानू नका. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I reach, admire and celebrate Aditi, mother spirit of nature, and the offsprings of Aditi, destroyers of evil and protectors of the good and true, irresistible great rulers, givers of peaceful homes, ever young and unaging, makers of great social orders, well established leaders of light and all refulgent suns. I approach them with prayers for blessings, they love the supplicants.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Whom should men regard as king-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as i approach great kings, who, are destroyers of the violent persons, protectors of truth, inviolable and non-violent, bestowers of fair homes to dwell in, possessors of good wealth or kingdom, observers of or dwelling in good policy, good leaders, charming and desiring the welfare of all and who. have observed Brahmacharya (abstinence) up to the age of forty eight years and are great scholars, youthful (energetic) and desiring to serve people, so you should also do.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! yon should regard only those persons as kings, who, are expellers of thieves and other wicked men, protectors of the righteous, free from violence, bestowers of fair dwellings to all, full of perfect knowledge and having self-control, nourishers of the subjects with justice like their fathers, youthful, devoid of all vices, and accepters of virtues. Only such virtuous persons should be regarded as kings and not petty minded mean men.

    Foot Notes

    (रिशादसः) हिन्सकान्नाशकान् । रिश-हिंसायाम् (तुदा) अद-भक्षणे (अ.) । = Destroyers of the violent. (दिवः) कमनीयान् कामयमानान् वा । = Charming or desiring the welfare of all. (अदितिम्) अखंडितां नीतिम् | = Inviolable policies. (दुवोयु) दुवः परिचरणं कामयमानान् । दुवस्यति परिचरणकर्मा (NG 3, 5)। = Desiring to serve the people.

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