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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 60/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒ग्रा वि॑घ॒निना॒ मृध॑ इन्द्रा॒ग्नी ह॑वामहे। ता नो॑ मृळात ई॒दृशे॑ ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒ग्रा । वि॒ऽघ॒निना॑ । मृधः॑ । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ । ता । नः॒ । मृ॒ळा॒तः॒ । ई॒दृशे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उग्रा विघनिना मृध इन्द्राग्नी हवामहे। ता नो मृळात ईदृशे ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उग्रा। विऽघनिना। मृधः। इन्द्राग्नी इति। हवामहे। ता। नः। मृळातः। ईदृशे ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 60; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्वायुविद्युतौ कीदृश्यौ भवत इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! वयमुग्रा विघनिनेन्द्राग्नी हवामहे ताभ्यां मृधो विजयामहे यावीदृशे व्यवहारे नो मृळातस्ता यूयमपि विजानीत ॥५॥

    पदार्थः

    (उग्रा) तेजस्विनौ (विघनिना) विशेषेण हन्तारौ (मृधः) सङ्ग्रामान् (इन्द्राग्नी) वायुविद्युतौ (हवामहे) आदद्मः (ता) तौ (नः) अस्मान् (मृळातः) सुखयतः (ईदृशे) युद्धप्रकारके व्यवहारे ॥५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्वायुविद्युतौ यथावद्विज्ञाय सम्प्रयुज्य सङ्ग्रामान् विजित्य सुखं प्राप्तव्यम् ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वायु और बिजुली कैसे हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! हम लोग (उग्रा) तेजस्वी (विघनिना) विशेष हननेवाले (इन्द्राग्नी) वायु और बिजुली को (हवामहे) ग्रहण करते हैं उनसे (मृधः) सङ्ग्रामों को जीतते हैं, जो (ईदृशे) ऐसे युद्धप्रकारक व्यवहार में (नः) हम लोगों को (मृळातः) सुखी करते हैं (ता) उन दोनों को तुम भी जानो ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को वायु और बिजुली यथावत् जान और उनका संप्रयोग कर सङ्ग्रामों को जीत सुख पाना चाहिये ॥५॥

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हम लोग ( उग्रा ) अति तेजस्वी, (वि-धनिना ) विशेष २ रूप से आघात करने वाले ( इन्द्राग्नी ) वायु विद्युत् दोनों को ( हवामहे ) प्राप्त करें, उनको अपने वश करें ( ता ) वे दोनों ( नः ) हमें ( ईदृशे ) इस प्रकार के व्यवहार में ( नः ) हमें ( मृडातः ) सुखी करते हैं। इसी प्रकार शत्रुओं को दण्ड देने वाले, तेजस्वी सेनापति और सैन्य को हम (मृधः ) संग्रामों को विजय करने के लिये प्राप्त करें ( ता नः मृडत) वे हम पर दया करें । कृपा बनाये रक्खें ।

    टिप्पणी

    मृडतिरुपदयाकर्मा

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्राग्नी देवते ।। छन्दः - १, ३ निचृत्त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७ विराड् गायत्री । ५, ९ , ११ निचृद्गायत्री । १०,१२ गायत्री । १३ स्वराट् पंक्ति: १४ निचृदनुष्टुप् । १५ विराडनुष्टुप् ।। पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    'उग्रा-मृधः विघनिना' इन्द्राग्नी

    पदार्थ

    [१] हम उग्रा तेजस्वी, मृधः विघनिना- शत्रुओं को कुचल डाल देनेवाले इन्द्राग्नी = बल व प्रकाश के देवों को हवामहे पुकारते हैं । वस्तुतः इन्द्र हमारे सब रोग रूप शत्रुओं को विनष्ट करता है तथा अग्नि वासनामलों का दहन करनेवाला है। [२] ता= वे दोनों इन्द्र और अग्नि नः- हमें ईदृशे ऐसे इस जीवन-संग्राम में मृडात:- सुखी करते हैं। वस्तुत: जीवन-संग्राम में सफलता को प्राप्त कराके विजय का आनन्द देनेवाले ये इन्द्र और अग्नि ही हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- इन्द्र और अग्नि का आराधन हमें तेजस्विता प्रदान करता है। शत्रुपराजय द्वारा यह आराधन ही हमें सुखी करता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी वायू विद्युतला यथायोग्य जाणून त्यांना चांगल्या प्रकारे प्रयुक्त करून युद्ध जिंकून सुखी व्हावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We invoke, invite and develop Indra and Agni, divine and blazing powers of nature’s energy and light, both destroyers of adversaries and life’s negativities. May they protect us and bless us with peace and prosperity in this world of our action and existence.

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