ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 62/ मन्त्र 10
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अन्त॑रैश्च॒क्रैस्तन॑याय व॒र्तिर्द्यु॒मता या॑तं नृ॒वता॒ रथे॑न। सनु॑त्येन॒ त्यज॑सा॒ मर्त्य॑स्य वनुष्य॒तामपि॑ शी॒र्षा व॑वृक्तम् ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठअन्त॑रैः । च॒क्रैः । तन॑याय । व॒र्तिः । द्यु॒ऽमता॑ । आ । या॒त॒म् । नृ॒ऽवता॑ । रथे॑न । सनु॑त्येन । त्यज॑सा । मर्त्य॑स्य । व॒नु॒ष्य॒ताम् । अपि॑ । शी॒र्षा । व॒वृ॒क्त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तरैश्चक्रैस्तनयाय वर्तिर्द्युमता यातं नृवता रथेन। सनुत्येन त्यजसा मर्त्यस्य वनुष्यतामपि शीर्षा ववृक्तम् ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठअन्तरैः। चक्रैः। तनयाय। वर्तिः। द्युऽमता। आ। यातम्। नृऽवता। रथेन। सनुत्येन। त्यजसा। मर्त्यस्य। वनुष्यताम्। अपि। शीर्षा। ववृक्तम् ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 62; मन्त्र » 10
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सभासेनेशौ जगदुपकाराय किं कुर्यातामित्याह ॥
अन्वयः
यौ राजानावन्तरैश्चक्रैर्वर्त्तमानेन द्युमता नृवता रथेन सनुत्येन त्यजसा मर्त्यस्य तनयाय वर्त्तिरायातं मार्गं विधाय वनुष्यतां शीर्षाऽपि ववृक्तं तौ सर्वैः सत्कर्तव्यौ ॥१०॥
पदार्थः
(अन्तरैः) भिन्नैः (चक्रैः) लोकभ्रमणाय परिध्याख्यैः (तनयाय) पुत्राय (वर्त्तिः) मार्गम् (द्युमता) प्रकाशवता (आ) (यातम्) आगच्छतम् (नृवता) उत्तमा नरो विद्यन्ते यस्मिँस्तेन (रथेन) रमणीयेन विमानादियानेन (सनुत्येन) सप्रेरणीयेन (त्यजसा) त्यागेन (मर्त्यस्य) मनुष्यस्य (वनुष्यताम्) क्रुध्यतां बाधमानानां वा। वनुष्यतीति क्रुध्यतिकर्मा। (निघं०२.१२) (अपि) (शीर्षा) शिरांसि (ववृक्तम्) छिनत्तम् ॥१०॥
भावार्थः
यदि सभासेनेशौ मनुष्यसन्तानानां ब्रह्मचर्यविद्याऽभ्यासादिप्रबन्धं कुर्यातां तर्हि सर्वे विद्वांसो भूत्वाऽनेकान्युत्तमानि कार्याणि साद्धुं दुष्टाञ्छत्रून्निवारयितुं च शक्नुवन्ति ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर सभा सेनापति जगत् के उपकार के लिये क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
जो राजा लोग (अन्तरैः) भिन्न-भिन्न (चक्रैः) लोकों के घूमने के लिये परिधियों के वर्त्तमान (द्युमता) प्रकाशवान् (नृवता) जिसमें उत्तम नर विद्यमान उस (रथेन) रमणीय विमानादि यान वा (सनुत्येन) प्रेरणा करने योग्य के साथ वर्त्तमान (त्यजसा) त्याग के साथ (मर्त्यस्य) मनुष्य के (तनयाय) पुत्र के लिये (वर्त्तिः) मार्ग को (आ, यातम्) प्राप्त होवें और मार्ग का विधान कर (वनुष्यताम्) क्रोध करने वा बाधावालों के (शीर्षा) शिरों को (अपि) भी (ववृक्तम्) छिन्न-भिन्न करें, उनका सबको सत्कार करना चाहिये ॥१०॥
भावार्थ
यदि सभासेनापति, मनुष्य-सन्तानों का ब्रह्मचर्य और विद्याभ्यास आदि का प्रबन्ध करें तो सब विद्वान् होकर अनेक उत्तम कार्य करने और दुष्टों तथा शत्रुओं के निवारने को समर्थ हों ॥१०॥
विषय
तेजस्वी प्रजा जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अश्विनौ ) उत्तम स्त्री पुरुषो ! सभा वा सभापति ! प्रजावर्ग और राजन् ! आप दोनों (धमता ) उत्तम तेज से युक्त (नृवता) उत्तम नायक से युक्त ( रथेन ) रथ के समान रमण योग्य गृहस्थ रूप रथ से और ( अन्तरैः चक्रे:) भीतरी साधनों से ( तनयाय ) उत्तम सन्तान-लाभ के लिये ( वर्त्तिः यातम् ) रथ से जैसे मार्ग चला जाता है उसी प्रकार गृहस्थोचित रति द्वारा (वर्त्तिः यातम् ) गृहस्थोचित व्यवहार वा गृहाश्रम को प्राप्त होओ। जिस प्रकार ( त्यजसा वनुष्यतां शीर्षा वृञ्जन्ति तथा ) क्रोध से जिस प्रकार हिंसकों के शिर काट देते हैं उसी प्रकार आप दोनों ( सनुत्येन त्यजसा ) चिरस्थायी पुत्र और धन के बल से ( मर्त्यस्य ) मरणशील मनुष्य को ( वनुष्यताम् ) विनाश कर देने वालों के ( शीर्षा ) प्रमुख कारकों को ( ववृक्तम् ) विनष्ट करो । हिंसक मृत्यु आदि अर्थात् चिरस्थायी सन्तान व प्रजा से आप दोनों भी अपने को नष्ट कर देने वाले कारणों को दूर करो, सन्तान द्वारा मरणधर्मा मनुष्य भी स्थिर, अमर होकर रहे ।
टिप्पणी
प्रजातिरमृतम् । शत० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, २ भुरिक पंक्ति: । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ८, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
द्युमान् रथ-क्रोध विनाश
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो! आप (अन्तरैः चक्रैः) = अन्तर्हित [छिपे हुए] चक्रों से युक्त द्युमता प्रकाशमय, (नृवता) = प्रशस्त नेतृत्व करनेवाले सारथि [बुद्धि] से युक्त (रथेन) = इस शरीर-रथ से (वर्तिः यातम्) = हमारे घरों में प्राप्त होवो | ताकि (तनयाय) = हमारे घरों में उत्तम ही सन्तान हों। हम प्राणसाधना के द्वारा अपने शरीर-रथों को उत्तम बनायें। इस शरीर में 'मूलाधार चक्र से सहस्रार चक्र' तक आठों चक्र बड़े ठीक हों। इसमें सब ज्ञानेन्द्रियरूप अश्व ज्ञान - ज्योति को प्राप्त करानेवाले हों। इसका बुद्धि रूप सारथि उत्तम हो । [२] (सनुत्येन) = अन्तर्हितरूप से वर्तमान (त्यजसा) = क्रोध से (मर्त्यस्य वनुष्यताम्) = मानव का संहार करनेवाले राक्षसों के (शीर्षा अपि) = सिरों को भी (ववृक्तम्) = छिन्न करनेवाले होवो । राक्षसीभाव क्रोध के द्वारा हमारा संहार करते हैं, प्राणसाधना इन राक्षसीभावों को विनष्ट करती है । सब राक्षसीभावों में क्रोध छिपे रूप से वर्तमान होता है ।
भावार्थ
भावार्थ– प्राणसाधना शरीर-रथ को सुन्दर बनाती है, इससे सन्तान भी उत्तम होते हैं । यह प्राणसाधना क्रोध को विनष्ट करती है। क्रोध ही तो मनुष्य का संहार करता है। प्राणसाधना क्रोध का संहार करके हमारा रक्षण करती है ।
मराठी (1)
भावार्थ
जर सभेच्या सेनापतीने माणसांच्या संतानाचा ब्रह्मचर्य व विद्याभ्यास इत्यादींचा प्रबंध केला तर सर्व विद्वान होऊन उत्तम कार्य करण्यास आणि दुष्टांचे, शत्रूंचे निवारण करण्यास समर्थ होऊ शकतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O brilliant lords of humanity and nature, come by the chariot of internal wheels of the social order with leading lights of the people, making new paths for the coming generation with inspiring message of selfless performance of duty and also take off the heads of the terrorist forces of destruction.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the president of the council of ministers and the Commander-in-Chief of the army do for the benefit of the world-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Those President of the Council of ministers and the Commander-in-Chief of the army, who are like the resplendent sun and moon, who come with the shining and charming vehicle like the aircraft in which many men can sit and which is to be impelled by the personal pilots, well construct a path and by giving up all laziness or comforts, for the recreation or convenience of the children of men come with the plane equipped with various machines and cut off the heads of the angry foes, who obstruct the progress of the State.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If the President of the Council of Ministers and Chief Commander of the army, make arrangements for the observance of Brahmicharya (abstinence) and good education of all children of men, then all being highly learned can accomplish many good deed and can keep away or overcome wicked enemies.
Translator's Notes
वनु-हिन्सायाम् (भ्वा) So besides angry and obstructive it means-to resort to violence or kill. Such violent wicked enemies may be beheaded if they do not mend their manners.
Foot Notes
(सनुत्येन) सप्र ेरणीयेन । सम् + णुद-प्र ेरणे (तुदा.) । =To be impelled. (वनुष्यताम्) क्रुध्यतां बाध्मानानां वा वनुष्य्तीति कृध्यतिकर्मा (NG 2, 12)। = Angry or obstructive.
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