ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 62/ मन्त्र 11
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ प॑र॒माभि॑रु॒त म॑ध्य॒माभि॑र्नि॒युद्भि॑र्यातमव॒माभि॑र॒र्वाक्। दृ॒ळ्हस्य॑ चि॒द्गोम॑तो॒ वि व्र॒जस्य॒ दुरो॑ वर्तं गृण॒ते चि॑त्रराती ॥११॥
स्वर सहित पद पाठआ । प॒र॒माभिः॑ । उ॒त । म॒ध्य॒माभिः॑ । नि॒युत्ऽभिः॑ । या॒त॒म् । अ॒व॒माभिः॑ । अ॒र्वाक् । दृ॒ळ्हस्य॑ । चि॒त् । गोऽम॑तः । वि । व्र॒जस्य॑ । दुरः॑ । व॒र्त॒म् । गृ॒ण॒ते । चि॒त्र॒रा॒ती॒ इति॑ चित्रऽराती ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ परमाभिरुत मध्यमाभिर्नियुद्भिर्यातमवमाभिरर्वाक्। दृळ्हस्य चिद्गोमतो वि व्रजस्य दुरो वर्तं गृणते चित्रराती ॥११॥
स्वर रहित पद पाठआ। परमाभिः। उत। मध्यमाभिः। नियुत्ऽभिः। यातम्। अवमाभिः। अर्वाक्। दृळ्हस्य। चित्। गोऽमतः। वि। व्रजस्य। दुरः। वर्तम्। गृणते। चित्रराती इति चित्रऽराती ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 62; मन्त्र » 11
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे चित्रराती सभासेनेशौ ! युवामवमाभिर्मध्यमाभिरुत परमाभिर्नियुद्भिरा यातमर्वाग् दृळ्हस्य चिद् गोमतो व्रजस्य दुरो गृणते वि वर्त्तम् ॥११॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (परमाभिः) उत्कृष्टाभिः (उत) (मध्यमाभिः) मध्ये भवाभिः (नियुद्भिः) वायोर्गतिभिः (यातम्) गच्छतम् (अवमाभिः) निकृष्टाभिः (अर्वाक्) पश्चात् (दृळ्हस्य) (चित्) अपि (गोमतः) बह्व्यो गावः किरणा वा विद्यन्ते यस्मिंस्तस्य (वि) (व्रजस्य) मेघस्य (दुरः) द्वाराणि (वर्त्तम्) वर्त्तयतम् (गृणते) स्तावकाय (चित्रराती) चित्राऽद्भुता रातिर्दानं ययोस्तौ ॥११॥
भावार्थः
हे राजप्रजाजना यथा सर्वे भूगोला वायुगतिभिस्सह गच्छन्त्यागच्छन्ति यथा च शिल्पिनो विमानेन मेघमण्डलोपरि व्रजन्ति तथैव यूयमप्यनुतिष्ठतेति ॥११॥ अत्राश्विगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्विषष्टितमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (चित्रराती) अद्भुत दानवाले सभासेनाधीशो ! तुम (अवमाभिः) निकृष्ट (मध्यमाभिः) मध्यम (उत) और (परमाभिः) उत्तम (नियुद्भिः) वायु की गतियों से (आ, यातम्) आओ तथा (अर्वाक्) पीछे (दृळ्हस्य) अति पुष्ट के (चित्) भी (गोमतः) बहुत गौयें वा किरणें जिसमें विद्यमान उस (वज्रस्य) मेघ के (दुरः) द्वारों को (गृणते) स्तुति करनेवाले के लिये (वि, वर्त्तम्) विशेषता से वर्त्ताओ ॥११॥
भावार्थ
हे राज प्रजाजनो ! जैसे सब भूगोल वायु की गतियों के साथ जाते-आते हैं और जैसे शिल्पीजन विमान से मेघमण्डल पर जाते हैं, वैसे ही तुम भी अनुष्ठान करो ॥११॥ इस सूक्त में अश्वियों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह बासठवाँ सूक्त और दूसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
तेजस्वी प्रजा जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( चित्रराती ) अद्भुत दान देने वाले, अति विस्मयजनक परस्पर प्रेम करने वाले राजा, प्रजा, सैन्य सेनापति वा पति-पत्नी जनो ! ( परमाभिः मध्यमाभिः उत अवमाभिः नियुद्भिः) उत्कृष्ट, मध्यम, और निकृष्ट इन सब प्रकार की अश्व-सेनाओं से जिस प्रकार राजा आदि जाते हैं उसी प्रकार आप दोनों भी इन तीनों प्रकार के ( नियुद्भिः ) नियुक्त प्रजावर्गों सहित ( आ यातम् ) आदरपूर्वक आओ । और ( दृढस्य ) दृढ़ ( गोमतः ) गवादि पशु, उत्तम भूमि आदि वाले ( व्रजस्य ) प्राप्त करने योग्य गृहाश्रम के ( दुरः ) द्वारों को ( वि वर्त्तम् ) खोलो और (गृणते) उपदेश करने वाले विद्वान् के भी ( गोमतः व्रजस्य ) वेद वाणी से युक्त व्रज अर्थात् आश्रय के द्वार को भी ( वि वर्त्तम् ) विशेष रूप से खोलो । इति द्वितीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, २ भुरिक पंक्ति: । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ८, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'परमा मध्यमा व अवमा' नियुत्
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो! आप (परमाभिः नियुद्भिः) = उत्कृष्ट ज्ञानेन्द्रियरूप अश्वों के साथ (अर्वाक् आयातम्) = हमें आभिमुख्येन प्राप्त होवो। (उत) = और (मध्यमाभिः) = हस्त पाद आदि मध्यम कर्मेन्द्रिय रूप अश्वों के साथ हमें प्राप्त होवो। इसी प्रकार (अवमाभि:) = शरीर के निचले प्रदेश में स्थित मल शोधक इन्द्रियाश्वों के साथ आप हमें प्राप्त होवो। प्राणसाधना के द्वारा हमारी सब इन्द्रियाँ उत्तम बनें। [२] (दृढस्य चित्) = अत्यन्त दृढ़ भी (गोमतः) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले (व्रजस्य) = बाड़े के, गोष्ठ के (दुरः) = द्वारों को (विवर्तम्) = आप खोल डालो। ये इन्द्रियाँ विषयों के बाड़े में निरुद्ध न हो जाएँ। हे प्राणापानो! आप ही (गृणते) = स्तुति करनेवाले के लिये (चित्रराती) = अद्भुत दानों के देनेवाले हैं। वस्तुतः प्राणसाधना ही सब अशुभों को दूर करती है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना सब इन्द्रियों को निर्मल बनाती है। ये निर्मल इन्द्रियाश्व शरीर- रथ में जुतकर इसे लक्ष्य - स्थान पर पहुँचाते हैं। अगले सूक्त में भी 'अश्विनौ' का ही आराधन है -
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा व प्रजाजनहो ! जसे सर्व भूगोल वायूच्या गतीबरोबर फिरत असतात व जसे शिल्पीजन (कारागीर) विमानाने मेघमंडळातून जातात तसे तुम्हीही वागा. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, complementary ruling powers of love and judgement of the nation of humanity, creators and givers of wondrous gifts of plenty, come here by the highest, middling and lowest order of cooperative participants in the social order and open the doors of the fixed as well as of the movable treasures of the nation for the celebrant.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should they do again - is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Council of ministers and Commander-in-Chief of the army, whose gifts are wonderful, come here with the movements of the wind lowest, midmost or the highest. Open the doors of even the firm cloud which has inside many rays or which feeds through rain many cattle for the admirer of good virtues.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O Officers of the State and the subjects! as all globes come and go with the movements of the wind and as the artists and artisan is go above the clouds with aircrafts, so you also do.
Foot Notes
(गोमतः) बहम्यो गावः किरणा वा विद्यन्ते यस्मिस्तस्य । गाव इति रश्मिनाम (NG 1, 5)। = Of the cloud which has many rays inside. (व्रजस्य) मेघस्य । व्रज इति मेघनाम (NG 1, 10)। = Of the cloud.
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