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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 62/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ता ह॒ त्यद्व॒र्तिर्यदर॑ध्रमुग्रे॒त्था धिय॑ ऊहथुः॒ शश्व॒दश्वैः॑। मनो॑जवेभिरिषि॒रैः श॒यध्यै॒ परि॒ व्यथि॑र्दा॒शुषो॒ मर्त्य॑स्य ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । ह॒ । त्यत् । व॒र्तिः । यत् । अर॑ध्रम् । उ॒ग्रा॒ । इ॒त्था । धियः॑ । ऊ॒ह॒थुः॒ । शश्व॑त् । अश्वैः॑ । मनः॑ऽजवेभिः । इ॒षि॒रैः । श॒यध्यै॑ । परि॑ । व्यर्थिः॑ । दा॒शुषः॑ । मर्त्य॑स्य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता ह त्यद्वर्तिर्यदरध्रमुग्रेत्था धिय ऊहथुः शश्वदश्वैः। मनोजवेभिरिषिरैः शयध्यै परि व्यथिर्दाशुषो मर्त्यस्य ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता। ह। त्यत्। वर्तिः। यत्। अरध्रम्। उग्रा। इत्था। धियः। ऊहथुः। शश्वत्। अश्वैः। मनःऽजवेभिः। इषिरैः। शयध्यै। परि। व्यथिः। दाशुषः। मर्त्यस्य ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 62; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशौ स्त इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यदुग्रा वायुविद्युता अश्वैरिषिरैर्मनोजवेभिर्दाशुषो मर्त्यस्य त्यद्वर्त्तिररध्रं धियश्च शश्वदूहथुः शयध्यै व्यथिर्ह पर्यूहथुस्तेत्था वर्त्तमानौ विज्ञाय यूयं सम्प्रयुङ्ध्वम् ॥३॥

    पदार्थः

    (ता) तौ (ह) किल (त्यत्) (वर्त्तिः) मार्गम् (यत्) यौ (अरध्रम्) असमृद्धव्यवहारम् (उग्रा) तेजस्विनौ (इत्था) अनेन हेतुना (धियः) प्रज्ञाः कर्माणि वा (ऊहथुः) वहथः। अत्र पुरुषव्यत्ययः (शश्वत्) निरन्तरम् (अश्वैः) महद्भिर्वेगादिगुणैः (मनोजवेभिः) मनोवद्वेगवद्भिः (इषिरैः) प्राप्तैः (शयध्यै) शयितुम् (परि) सर्वतः (व्यथिः) व्यथाम् (दाशुषः) दानशीलस्य (मर्त्यस्य) मनुष्यस्य ॥३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यदा यूयं वायुविद्युद्गुणान् विज्ञास्यथ तदैव पूर्णमैश्वर्यं प्रास्यथ ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! (यत्) जो (उग्रा) तेजस्वी वायु और बिजुली (अश्वैः) महान् वेगादि गुणों से वा (इषिरैः) प्राप्त (मनोजवेभिः) मनोवद्वेगवानों से (दाशुषः) दानशील (मर्त्यस्य) मनुष्य के (त्यत्) उस (वर्तिः) मार्ग को तथा (अरध्रम्) असमृद्ध व्यवहार और (धियः) बुद्धि वा कर्मों को (शश्वत्) निरन्तर (ऊहथुः) चलाते हैं वा (शयध्यै) सोने को (व्यथिः) व्यथा को (ह) निश्चय से (परि) पहुँचाते हैं (ता) उनको (इत्था) इस प्रकार के वर्त्तमान जानकर तुम अच्छे प्रकार प्रयुक्त करो अर्थात् कलायन्त्रों में जोड़ो ॥३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जब तुम वायु और बिजुली के गुणों को जानोगे, तभी पूर्ण ऐश्वर्य को पाओगे ॥३॥

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( त्यत् वर्त्तिः ) वह मार्ग ( यत् अरध्रम् ) जो मनुष्यों के वश का न हो, जिस पर चला न जासके, ऐसा ऊंचा, नीचा, विषम, आकाश जलादि का मार्ग है और जो ( दाशुषः मर्त्यस्य ) राष्ट्र में कर आदि देने वाले प्रजाजन को ( व्यथिः ) नाना प्रकार से व्यथा, दुःख देता है, उसको (परि शयध्यै ) सुख से पार करने के लिये ( उग्रा ) बलवान् ( ता ) वे दोनों (अश्विना ) वेगवान् रथ, अश्व यन्त्रादि के जानने वा बनाना जानने वाले, विद्युत् अग्निवत् शिल्प कुशल स्त्री पुरुष, ( शश्वत् ) सदा ही ( अश्वैः ) वेग से जाने वाले यन्त्रों और ( मनोजवेभिः ) मन के समान वेगवान् वा विज्ञानपूर्वक अपने संकल्पानुसार न्यूनाधिक वेग रखने योग्य (इषिरै: ) इच्छानुकूल चलने वाले रथादि साधनों से (इत्था धियः ऊहथुः) इस २ प्रकार नाना कर्म किया करें, लोगों को उन रथ, अश्व, यन्त्रादि से ( परि ऊहथुः ) पार या दूर देश तक पहुंचा दिया करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, २ भुरिक पंक्ति: । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ८, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    शरीरगृह की समृद्धि

    पदार्थ

    [१] (ता) = वे (उग्रा) = तेजस्वी प्राणापानो! आप (धियः) = स्तोता के अथवा ज्ञानपूर्वक कर्मों को करनेवाले के (त्यत्) = उस (यत्) = जो (अरध्रम्) = असमृद्ध (वर्तिः) = शरीरगृह है, उसको (ह) = निश्चय से (शश्वत्) = सदा (इत्था) = सचमुच (मनोजवेभिः) = मन के समान (वेगवान् इषिरै:) = गतिशील (अश्वैः) = इन्द्रियाश्वों से (ऊहथुः) = उन्नत करते हो, उसे स्वर्ग को प्राप्त कराते हो। जो शरीरगृह असमृद्ध सा था उसे बड़ा समृद्ध बना देते हो। इस शरीर-रथ में एक-एक इन्द्रियाश्व उत्तम हो, यही इसकी समृद्धि है। ये प्राणसाधना से सब इन्द्रियाँ बड़ी उत्तम बनती हैं। [२] आपकी इस साधना से (दाशुषः) = दाश्वान्-त्यागवृत्तिवाले (मर्त्यस्य) = मनुष्य का (व्यथि:) = संतापक शत्रु (परिशयध्यै) = दीर्घ निद्रा के लिये होता है। काम-क्रोध-लोभ ही सन्तापक शत्रु हैं। प्राणसाधना से इनका विनाश होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना शरीरस्थ सब इन्द्रियों को उत्तम बनाकर शरीरगृह को समृद्ध करती दाश्वान् पुरुष के शत्रुओं को समाप्त करती है ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जेव्हा तुम्ही वायू व विद्युतच्या गुणांना जाणाल तेव्हा पूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त कराल. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    They are the divinities vibrant and blazing as wind and lightning that reach the yajna by unfailing radiations of energy fast as mind and sensitive as thought. They inspire the mind and will of the mortal man otherwise groping in the pathless woods of action and raise the generous yajnic giver so that he may cross the hurdles and rest in peace with a perfect sense of fulfilment.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they (air and electricity) is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened persons ! you should know thoroughly and apply properly these air and electricity which are full of splendor and which by their great and rapid attribute of that are like the mind, carry forward the path incomplete dealing and intellect and actions of a liberal donor, constantly and which when not known or used properly, cause trouble in sleeping.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you will become prosperous, only when you know the attributes of the air and electricity thoroughly.

    Foot Notes

    (अश्वैः) महद्भिर्वेगादिगुणैः । अश्व इति महन्नाम (NG 3, 3)। = With the great attributes like speed etc. (इषिरैः) प्राप्तैः । इष-गतौ ( दिवा.) । = Obtained. (अरध्रम् ) असमृद्ध व्यवहारम् । रघ-हिंसा संध्योः (दिवा.) अन्न संराध्यर्थ: | = Incomplete dealing.

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