ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 65/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - उषाः
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
इ॒दा हि त॑ उषो अद्रिसानो गो॒त्रा गवा॒मङ्गि॑रसो गृ॒णन्ति॑। व्य१॒॑र्केण॑ बिभिदु॒र्ब्रह्म॑णा च स॒त्या नृ॒णाम॑भवद्दे॒वहू॑तिः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दा । हि । ते॒ । उ॒षः॒ । अ॒द्रि॒सा॒नो॒ इत्य॑द्रिऽसानो । गो॒त्रा । गवा॑म् । अङ्गि॑रसः । गृ॒णन्ति॑ । वि । अ॒र्केण॑ । बि॒भि॒दुः॒ । ब्रह्म॑णा । च॒ । स॒त्या । नृ॒णाम् । अ॒भ॒व॒त् । दे॒वऽहू॑तिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदा हि त उषो अद्रिसानो गोत्रा गवामङ्गिरसो गृणन्ति। व्य१र्केण बिभिदुर्ब्रह्मणा च सत्या नृणामभवद्देवहूतिः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठइदा। हि। ते। उषः। अद्रिसानो इत्यद्रिऽसानो। गोत्रा। गवाम्। अङ्गिरसः। गृणन्ति। वि। अर्केण। बिभिदुः। ब्रह्मणा। च। सत्या। नृणाम्। अभवत्। देवऽहूतिः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 65; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सा कीदृशीत्याह ॥
अन्वयः
हे अद्रिसानो उषर्वद्वर्त्तमाने वरे स्त्रि ! यथा ते सम्बन्धिनोऽङ्गिरसोऽर्केण ब्रह्मणा च सूर्य्य गोत्रेव गवां सम्बन्धं वि गृणन्ति बिभिदुश्च तथेदा हि देवहूतिर्भवति नृणां मध्ये सत्याऽभवत् ॥५॥
पदार्थः
(इदा) इदानीम् (हि) खलु (ते) तव (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (अद्रिसानो) अद्रौ मेघे सानूनि यस्याः सा (गोत्रा) भूमिः। गोत्रेति पृथिवीनाम। (निघं०१.१) (गवाम्) किरणानाम् (अङ्गिरसः) वायव इव (गृणन्ति) स्तुवन्ति (वि) (अर्केण) सूर्येण (बिभिदुः) विदृणन्ति (ब्रह्मणा) परमेश्वरेण वेदेन वा (च) (सत्या) सत्सु पदार्थेषु साध्वी (नृणाम्) मनुष्याणाम् (अभवत्) भवति (देवहूतिः) देवा विद्वांस आह्वयन्ति यया सा ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा किरणा उषसा सूर्य्यप्रकाशस्य निमित्तमस्ति तथैव सर्वेषां सत्यानां व्यवहाराणां साधिका दुष्टानां व्यवहाराणां निरोधिकोषा वर्त्तते तथा सती स्त्री भवति ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसी है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
(अद्रिसानो) मेघ के बीच शिखर=चोटी रखनेवाली (उषः) प्रभातवेला के समान वर्त्तमान उत्तम स्त्री ! जैसे (ते) तेरे सम्बन्धी (अङ्गिरसः) पवनों के तुल्य (अर्केण) सूर्य्य (ब्रह्मणा) परमेश्वर वा वेद से (च) भी सूर्य्य को (गोत्रा) पृथिवी के समान वा (गवाम्) किरणों के सम्बन्ध को (वि, गृणन्ति) प्रस्तुत करते हैं और (बिभिदुः) विदीर्ण करते हैं, वैसे (इदा) अब (हि) ही (देवहूतिः) विद्वान् जन जिससे बुलाते हैं, वैसे तू प्रसिद्ध होती है सो तू (नृणाम्) मनुष्यों के बीच (सत्या) विद्यमान पदार्थों में उत्तम (अभवत्) होती है ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे किरणें प्रभातवेला से सूर्य्यप्रकाश की निमित्त हैं, वैसे ही सत्य व्यवहारों को सिद्ध करने और दुष्ट व्यवहारों का निरोध करनेवाली उषा है, वैसी श्रेष्ठ स्त्री होती है ॥५॥
विषय
कन्या के प्रति विद्वानों के उपदेश और वर प्राप्ति ।
भावार्थ
हे ( अद्रीसानो ) पर्वत के शिखर के समान दृढ़ आधारशिला पर आरूढ़ ( उष: ) कमनीय कन्ये ! ( इदा हि ) इसी नव यौवन काल में ही ( अंगिरसः ) विद्वान् तेजस्वी लोग ( ते ) तेरे उपदेश के लिये, ( गवाम् गोत्रा गृणन्ति ) नाना वाणियों के समूह उपदेश करें । और ( अर्केण ) सूर्यवत् प्रकाशमान, अर्चनायोग्य ( ब्रह्मणा च ) वेद के द्वारा वे ( सत्या ) सत्य सत्य रहस्यों को ( वि बिभिदुः ) विशेष रूप से खोल २ कर कहें । इस प्रकार ही ( नृणाम् ) मनुष्यों के बीच ( देव-हूति: अभवत् ) उत्तम गुणों की प्राप्ति वा ‘देव’ अर्थात् कामना योग्य वर की प्राप्ति हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। उषा देवता ।। छन्दः – १ भुरिक् पंक्तिः । ५ विराट् पंक्तिः । २, ३ विराट् त्रिष्टुप । ४, ६ निचृत्त्रिष्टुप् ।। षडृचं सूक्तम् ।।
विषय
उषा जागरण व ज्ञान वाणियों का अध्ययन
पदार्थ
(१) हे (अद्रिसानो) = आदृत वस्तुओं में शिखर भूत (उषः) = उषाकाल ! (ते) = तेरे अनुग्रह से (हि) = ही (इदा) = अब (अंगिरसः) = ये अंग-प्रत्यंग में रसवाले, लोच लचक से युक्त शरीरवाले, उपासक (गवां गोत्रा) = वेदवाणियों के समूह को (गृणन्ति) = उच्चरित करते हैं जीवन में उत्कर्ष के लिये सब से महत्त्वपूर्ण चीज यही है कि मनुष्य उषाकाल में जाग जायें। (२) (च) = और (अर्केण) = उपासना के साधनभूत (ब्रह्मणा) = इन मन्त्रों से (विबिभिदुः) = सब अन्धकारों का विदारण करते हैं। इन (नृणाम्) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्यों की (देवहूतिः) = देव की पुकार व आराधना (सत्या अभवत्) = सत्य होती है। प्रभु की सच्ची आराधना यही पुरुष करता है, जो उषा में जागकर ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करता है और इन वाणियों के द्वारा अज्ञान के अन्धकार को दूर करता है।
भावार्थ
भावार्थ – 'उषा जागरण' उन्नति का प्रथम व सर्वश्रेष्ठ समय है। उषा में जागकर हम ज्ञान की वाणियों का, वेदवाणियों का उच्चारण करें। इन ज्ञान की वाणियों के द्वारा अज्ञानान्धकार को दूर करें ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी किरणे उषेद्वारे सूर्यप्रकाशाचे निमित्त आहेत तसे सत्य व्यवहार करणारी व दुष्ट व्यवहाराचा विरोध करणारी श्रेष्ठ स्त्री उषेप्रमाणे असते. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Here and now itself, O dawn of the light of heaven riding the heights of clouds, the sages of science and wisdom sing and celebrate in praise of you with chant of the Veda and offer of yajna and worship and break open the treasures of knowledge divine and secular. May the people’s yajna and worship be true and fruitful at the call of the divinities.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is she (a good woman) - is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O good lady ! you who are like the dawn and you who are benevolent and showerer of joy like the cloud, kith and kin with the winds, praise the combination of the rays like the earth revolving around the sun, with the sun, God or Veda and they break it down afterwards (causing rain), so you are called the enlightened person among men.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the rays are the causers of the light of the sun, so the dawn is the accomplisher of all true dealings and restrainer of all wicked dealings. such a wife shoula always be chaste.
Foot Notes
(गोता) भूमिः । गोत्रेति पृथिवीनाम (NG 1, 1) (अङ्गिरसः) वायवः इव । प्राणो वा अंगिराः (S. Br. 6, 1, 2, 8) प्राणा वायुभेदा एव । = Like the wind. (अद्रिसानो) अद्रो मेघे सानुनि यस्याः सा । अद्रिरिति मेघनाम (NG 1, 10) = In the cloud.
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