ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 67/ मन्त्र 10
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
वि यद्वाचं॑ की॒स्तासो॒ भर॑न्ते॒ शंस॑न्ति॒ के चि॑न्नि॒विदो॑ मना॒नाः। आद्वां॑ ब्रवाम स॒त्यान्यु॒क्था नकि॑र्दे॒वेभि॑र्यतथो महि॒त्वा ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठवि । यत् । वाच॑म् । की॒स्तासः॑ । भर॑न्ते । शंस॑न्ति । के । चि॒त् । नि॒ऽविदः॑ । म॒ना॒नाः । आत् । वा॒म् । ब्र॒वा॒म॒ । स॒त्यानि॑ । उ॒क्था । नकिः॑ । दे॒वेभिः॑ । य॒त॒थः॒ । म॒हि॒ऽत्वा ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि यद्वाचं कीस्तासो भरन्ते शंसन्ति के चिन्निविदो मनानाः। आद्वां ब्रवाम सत्यान्युक्था नकिर्देवेभिर्यतथो महित्वा ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठवि। यत्। वाचम्। कीस्तासः। भरन्ते। शंसन्ति। के। चित्। निऽविदः। मनानाः। आत्। वाम्। ब्रवाम। सत्यानि। उक्था। नकिः। देवेभिः। यतथः। महिऽत्वा ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 10
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः के तिरस्करणीयाः सत्कर्त्तव्याश्चेत्याह ॥
अन्वयः
हे अध्यापकोपदेशकौ ! यदि युवां महित्वा देवेभिस्सह विद्यावृद्धये नकिर्यतथस्तर्हि वां सत्यान्युक्था आद् ब्रवाम यद्ये कीस्तासो वाचं वि भरन्ते के चिन्मनाना मननं कुर्वाणा निविदः शंसन्ति तान् सर्वदा युवां पाठयतम् ॥१०॥
पदार्थः
(वि) (यत्) ये (वाचम्) (कीस्तासः) मेधाविनः। कीस्तास इति मेधाविनाम। (निघं०३.१५) (भरन्ते) (शंसन्ति) (के) (चित्) अपि (निविदः) उत्तमा वाचः। निविदिति वाङ्नाम। (निघं०१.११) (मनानाः) मन्यमानाः (आत्) आनन्तर्ये (वाम्) युवाम् (ब्रवाम) अध्यापयेमोपदिशेम वा (सत्यानि) सत्सु अर्थेषु साधूनि (उक्था) वक्तुं श्रोतुमर्हाणि (नकिः) निषेधे (देवेभिः) विद्वद्भिः सह (यतथः) यतेथे। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (महित्वा) महिम्ना ॥१०॥
भावार्थः
राज्ञा राजजनैः प्रजास्थैर्विद्वद्भिश्च के विद्वांसः प्रशासनीया ये निष्कपटत्वेन यथाशक्त्यध्यापनेन विद्याप्रचारं न कुर्य्युः। ये च प्रीत्या विद्याः प्राप्य सर्वत्र प्रचारयन्ति त एव सदैव सत्कर्त्तव्याः ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन तिरस्कार करने योग्य और सत्कार करने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे अध्यापक और उपदेशको ! यदि तुम दोनों (महित्वा) महिमा से (देवेभिः) विद्वानों के साथ विद्यावृद्धि के लिये (नकिः) न (यतथः) यत्न करते हो तो (वाम्) तुम दोनों के प्रति हम लोग (सत्यानि) उत्तम पदार्थों में भी उत्तम (उक्था) कहने वा सुनने के योग्य विषयों को (आत्, ब्रवाम) पीछे कहें (यत्) जो (कीस्तासः) मेधावीजन (वाचम्) वाणी को (वि, भरन्ते) विशेषता से धारण करते हैं और (के, चित्) कोई (मनानाः) विचार करते हुए (निविदः) उत्तम वाणियों की (शंसन्ति) प्रशंसा करते हैं, उनको सर्वदा तुम पढ़ाओ ॥१०॥
भावार्थ
राजा और राजजनों और प्रजास्थ विद्वानों के द्वारा कौन विद्वान् अच्छी शिक्षा देने योग्य हैं, जो निष्कपटता से अपनी शक्ति के अनुकूल पढ़ाने से विद्या प्रचार न करें। और जो प्रीति के साथ विद्याओें को पाकर सर्वत्र प्रचार करते हैं, वे ही सदा सत्कार करने योग्य हैं ॥१०॥
विषय
उनको गृहस्थ जीवन सम्बन्धी अनेक उपदेश ।
भावार्थ
( यत् ) जो ( कीस्तासः ) विद्वान् लोग ( वाचं ) वेद वाणी को (वि भरन्ते) विविध प्रकार से धारण करते हैं ( यत् केचित् ) जो कोई विद्वान् लोग ( निविदः शंसन्ति ) विशेष विद्यायुक्त वाणियों का अन्यों को उपदेश करते हैं वे ( मनानाः ) मननशील हम लोग ( सत्यानि उक्था ) सत्य २ वचनों का ( आत्) बाद में ( वां ब्रवाम ) हे स्त्री पुरुषो ! आप दोनों को उपदेश करें । ( देवेभिः ) विद्वान् उत्तम पुरुषों के साथ आप दोनों ( महित्वा ) अपने महान् सामर्थ्य से अवश्य यत्न करते रहो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, ९ स्वराट् पंक्तिः। २, १० भुरिक पंक्तिः । ३, ७, ८, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् ।। एकादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
स्तवन-ज्ञान-दिव्य गुण
पदार्थ
[१] (यद्) = जब (कीस्तासः) = मेधावी उद्गाता (वाचम्) = स्तुति वाणी को विभरन्ते विशेषरूप से धारण करते हैं। और (केचित्) = कई (मनाना:) = मननशील पुरुष (निविदः) = निश्चयात्मक ज्ञान को देनेवाली वेदवाणियों का (शंसन्ति) = शंसन करते हैं। (आत्) = तब हम (वाम्) = हे मित्र और वरुण आपके ही (सत्यानि उक्था) = सत्य स्तोत्रों को (ब्रवाम) = उच्चरित करते हैं । वस्तुतः स्नेह व निर्देषता का धारण ही उन मेधावी उद्गाताओं [कीस्त] को स्तुति में प्रवृत्त करता है और मननशील पुरुषों को इन ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करने के योग्य बनाता है। [२] हे मित्र और वरुण ! आप (महित्वा) = अपनी महिमा से (देवेभिः) = अन्य दिव्य गुणों के साथ (नकिः यतथ:) = नहीं जाते हो । अर्थात् सब दिव्य गुणों से आपकी महिमा अधिक है। वस्तुत: स्नेह व निर्देषता के भाव ही अन्य दिव्य गुणों को जन्म देते हैं। इनके अभाव में किसी भी दिव्य गुण का सम्भव नहीं।
भावार्थ
भावार्थ- स्नेह व निर्देषता की ही यह महिमा है कि हम [क] मेधावी उद्गाता बनकर प्रभु का स्तवन करते हैं। [ख] मननशील बनकर ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करते हैं, [ग] अन्य दिव्य गुणों को अपने में उत्पन्न कर पाते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
राजा, राजजन व प्रजा यांनी ठरवावे की कोणते विद्वान प्रशंसनीय आहेत व कोणते निष्कपटीपणाने आपल्या शक्तिनुसार विद्येचा प्रचार करीत नाहीत व जे प्रेमाने विद्या प्राप्त करून प्रचार करतात तेच सदैव सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The wise ones bear and offer words of praise in honour of you. Some others, thoughtful and faithful, offer songs of celebration. Then we too chant and address hymns of adoration to you. Joining with all holy ones by your grace and grandeur, there is none you hurt or injure.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who are to be slighted and who deserve honor-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers! If by your greatness you do not try to promote the cause of knowledge, then we will have to tell you true words worthy of being uttered and and heard. Teach those persons, who being wise speak good words and reflecting upon what has been read or heard, give utterance to noble words.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the kings, officers of the state or even people to punish those highly learned persons who do not spread knowledge by teaching without any kind of deceit, to the best of their power. Those persons should be honored, who having acquired knowledge with love, disseminate them every where.
Translator's Notes
N/A
Foot Notes
(कीस्तास:) मेधविन: । कीस्तास इति मेधाविनाम (NG 3, 15)। = Genius or Learned men. (निविदः) उत्तमा वाचः। निविदिति वाङ्नाम (NG 1, 11)। = Good words.
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