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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 67/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ या॑तं मित्रावरुणा सुश॒स्त्युप॑ प्रि॒या नम॑सा हू॒यमा॑ना। सं याव॑प्नः॒स्थो अ॒पसे॑व॒ जना॑ञ्छ्रुधीय॒तश्चि॑द्यतथो महि॒त्वा ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । या॒त॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । सु॒ऽश॒स्ति । उप॑ । प्रि॒या । नम॑सा । हू॒यमा॑ना । सम् । यौ । अ॒प्नः॒ऽस्थः । अ॒पसा॑ऽइव । जना॑न् । श्रु॒धि॒ऽय॒तः । चि॒त् । य॒त॒थः॒ । म॒हि॒त्वा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यातं मित्रावरुणा सुशस्त्युप प्रिया नमसा हूयमाना। सं यावप्नःस्थो अपसेव जनाञ्छ्रुधीयतश्चिद्यतथो महित्वा ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। यातम्। मित्रावरुणा। सुऽशस्ति। उप। प्रिया। नमसा। हूयमाना। सम्। यौ। अप्नःऽस्थः। अपसाऽइव। जनान्। श्रुधिऽयतः। चित्। यतथः। महित्वा ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः कौ सततं सत्करणीयावित्याह ॥

    अन्वयः

    हे प्रिया मित्रावरुणा नमसा हूयमाना ! युवां जनानुपा यातं सुशस्ति प्राप्नुतं यौ चिन्महित्वा यतथश्श्रुधीयतस्तावप्नःस्थोऽपसेवास्माञ्जनान् समुपायातम् ॥३॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (यातम्) आगच्छतम् (मित्रावरुणा) प्राणोदानवत्प्रियौ (सुशस्ति) सुष्ठु प्रशंसनम् (उप) (प्रिया) यौ सर्वान् प्रीणीतस्तौ (नमसा) सत्कारेण (हूयमाना) आहूयमानौ (सम्) (यौ) (अप्नःस्थः) अपत्यस्थः (अपसेव) कर्मणेव (जनान्) (श्रुधीयतः) आत्मनः श्रुधिमन्नमिच्छतः (चित्) अपि (यतथः) (महित्वा) महिम्ना ॥३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यूयमध्यापकोपदेशकौ सदा सत्कारेणाहूय सम्पूज्य विद्यासत्योपदेशौ जगति प्रसारयत। हे अध्यापकोपदेशका ! यूयं प्रयत्नेन मातापितृवन्मनुष्यान् सुशिक्ष्य विद्यावतः सर्वोपकारकान् सम्पादयत ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कौन निरन्तर सत्कार करने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (प्रिया) सब को तृप्त करनेवाले (मित्रावरुणा) प्राण और उदान के समान प्रिय पुरुषो ! (नमसा) सत्कार से (हूयमाना) बुलाते हुए तुम दोनों (जनान्) मनुष्य के (उप, आ, यातम्) समीप आओ तथा (सुशस्ति) सुन्दर प्रशंसा को प्राप्त होओ (यौ) जो (चित्) निश्चय से (महित्वा) बड़प्पन से (यतथः) यत्न करते हैं वा (श्रुधीयतः) अपने अन्न की इच्छा करते हैं, वे दोनों (अप्नःस्थः) सन्तानों में ठहरनेवाला (अपसेव) कर्म से जैसे वैसे हम लोगों को (सम्) प्राप्त होवें ॥३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम अध्यापक और उपदेशकों को सदा सत्कार से बुलाकर उनका सत्कार कर विद्या और सत्योपदेश को संसार के बीच विस्तारो। हे अध्यापक और उपदेशको ! तुम प्रयत्न से माता और पिता के समान मनुष्यों को उत्तम शिक्षा देकर विद्यावान् सर्वोपकार करनेवालों को सिद्ध करो ॥३॥

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    विषय

    उनको गृहस्थ जीवन सम्बन्धी अनेक उपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( मित्रावरुणा ) स्नेह और परस्पर वरण करने वाले श्रेष्ठ स्त्री पुरुषों ! (चित् ) जिस प्रकार ( अप्नः स्थः ) कर्माध्यक्ष पुरुष ( अवसा ) कर्म द्वारा ( श्रुधीयतः जनान् ) अन्न, वृत्ति के चाहने वाले मनुष्यों को ( यतते ) काम कराता है उसी प्रकार ( यौ ) जो आप दोनों ( महित्वा ) अपने महान् सामर्थ्य से ( श्रुधीयतः ) अन्न के इच्छुक ( जनान् ) जन्तुओं को ( सं यतथः ) एक साथ कार्य कराओ । ( नमसा ) आदर सत्कारपूर्वक ( हूयमाना ) आमन्त्रित होकर ( प्रिया ) एक दूसरे के प्रिय होकर ( सुशस्ति ) उत्तम कीर्त्ति तथा उपदेशादि को (उप आ यातम् ) प्राप्त होवो

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, ९ स्वराट् पंक्तिः। २, १० भुरिक पंक्तिः । ३, ७, ८, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् ।। एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    उत्तम कर्मों में व्यापृति

    पदार्थ

    [१] हे (मित्रावरुणा) = स्नेह व निर्देषता की देवताओ! (सुशस्ति) = शोभन शंसन के हेतु से (उप आयातम्) = हमें समीपता से प्राप्त होवो । मित्र व वरुण की प्राप्ति के होने पर हमारे सब कार्य उत्तम ही होते हैं। वस्तुतः मित्र व वरुण की आराधना ही सच्चा प्रभु स्तवन है । हे (प्रिया) = प्रीति के जनक मित्र व वरुण ! आप हमारे से (नमसा हूयमाना) = नमन के द्वारा पुकारे जाते हो । प्रभु के प्रति नतमस्तक होते हुए हम यही आराधना करते हैं कि हम सबके प्रति स्नेह वाले हों और निर्देषता के भाव को धारण करें। [२] हे मित्र व वरुण ! (यौ) = जो आप हैं, (महित्वा) = अपनी महिमा से (श्रुधीयतः चित् जनान्) = [श्रुधि= यश] यश की कामनावाले जनों को (अपसा) = कर्म के द्वारा (संयतथ:) = सम्यक् उद्योगवाला करते हो, उसी अकार, (इव) = जैसे कि (अप्नस्थः) = कर्म में अधिकृत पुरुष लोगों को कर्मों में प्रेरित किया करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- मित्र और वरुण का उपासक सदा लोकहित के उत्तम कर्मों में व्याप्त रहता इन उत्तम कर्मों के द्वारा इसका जीवन यशस्वी बनता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! तुम्ही अध्यापक व उपदेशकांचा सदैव सत्कार करून आमंत्रण देऊन सन्मान करा व विद्या आणि सत्योपदेश जगात प्रसारित करा. हे अध्यापक व उपदेशकांनो ! तुम्ही प्रयत्नपूर्वक माता व पिता यांच्याप्रमाणे माणसांना उत्तम शिक्षण देऊन विद्यावान व सर्वोपकारी बनवा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mitra and Varuna, holiest loving and just powers of nature and humanity, dear as our own, invoked and invited with homage and humility, come and receive our prayer and adoration, you who, like parents of children, inspire obedient people keen for nourishment by your own action and greatness to rise together.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who should always be respected-is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O dear teachers and preachers! You who are like Prana and Udāna(vital breaths) and who are invited by us with reverence, come to us-the people and get good praise from us (on account of your noble virtues). May you who desire to have good food for your nourishment and with your greatness try to do good to all, living among children with your noble and benevolent acts come to us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! always invite teachers and preachers with respect and having honored them well, disseminate knowledge and good teachings in the world. O teachers and preclears! make all men enlightened and benevolent by teaching them with great labor and love like the parents.

    Foot Notes

    (श्रुधीयत:) आत्मनः श्रुधिमन्नमिच्छतः । = Desiring good food. (अपसेव) कर्मणैव = with works. (अप्नःस्थः) अपत्यस्थः। = You who are with children.

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