ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 68/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ग्नाश्च॒ यन्नर॑श्च वावृ॒धन्त॒ विश्वे॑ दे॒वासो॑ न॒रां स्वगू॑र्ताः। प्रैभ्य॑ इन्द्रावरुणा महि॒त्वा द्यौश्च॑ पृथिवि भूतमु॒र्वी ॥४॥
स्वर सहित पद पाठग्नाः । च॒ । यत् । नरः॑ । च॒ । व॒वृ॒धन्त॑ । विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । न॒राम् । स्वऽगू॑र्ताः । प्र । ए॒भ्यः॒ । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒ । म॒हि॒ऽत्वा । द्यौः । च॒ । पृ॒थि॒वि॒ । भू॒त॒म् । उ॒र्वी इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ग्नाश्च यन्नरश्च वावृधन्त विश्वे देवासो नरां स्वगूर्ताः। प्रैभ्य इन्द्रावरुणा महित्वा द्यौश्च पृथिवि भूतमुर्वी ॥४॥
स्वर रहित पद पाठग्नाः। च। यत्। नरः। च। ववृधन्त। विश्वे। देवासः। नराम्। स्वऽगूर्ताः। प्र। एभ्यः। इन्द्रावरुणा। महिऽत्वा। द्यौः। च। पृथिवि। भूतम्। उर्वी इति ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 68; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कैस्सह किं कुर्यातामित्याह ॥
अन्वयः
यद्ये विश्वे देवासो नरश्च स्वगूर्त्ता नरां ग्नाः स्वकीयाश्च ग्नाः प्राप्य वावृधन्त प्रैभ्य इन्द्रावरुणोर्वी पृथिवि द्यौश्चेव वर्त्तमानौ महित्वा भूतं वर्धेते ते सर्वे मनुष्यैः सत्कर्त्तव्याः सन्ति ॥४॥
पदार्थः
(ग्नाः) वाचः। ग्नेति वाङ्नाम। (निघं०१.११) (च) (यत्) ये (नरः) विद्वन्नायकाः (च) (वावृधन्त) सर्वतो वर्धन्ते (विश्वे) सर्वे (देवासः) (नराम्) मनुष्याणाम् (स्वगूर्त्ताः) स्वेन पराक्रमेणोद्यमिनः (प्र) (एभ्यः) (इन्द्रावरुणा) विद्युत्सूर्याविव (महित्वा) महिम्ना (द्यौः) (च) (पृथिवि) भूमिः (भूतम्) भवेताम् (उर्वी) बहुत्वे ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! ये विद्याधर्मविनयैर्वर्धन्ते तैरुद्यमिभिः सहेमाः प्रजाः पालय ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे किन के साथ क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
(यत्) जो (विश्वे, देवासः) समस्त विद्वान् जन (नरः, च) और विद्वानों के बीच अग्रगामी (स्वगूर्त्ताः) अपने पराक्रम से उद्यमी जन (नराम्) मनुष्यों की (ग्नाः) वाणी तथा अपनी (च) भी वाणियों को प्राप्त होकर (वावृधन्त) सब ओर से बढ़ते हैं (प्र, एभ्यः) उत्कर्षण से इनसे (इन्द्रावरुणा) बिजुली और सूर्य्य के समान वा (उर्वी) विस्तृत (पृथिवि) पृथिवी (द्यौः, च) और प्रकाश के समान वर्त्तमान (महित्वा) महिमा से (भूतम्) प्रसिद्ध होवें। वे सब जन मनुष्यों से सत्कार करने योग्य हैं ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जो विद्या, धर्म और विनय से बढ़ते हैं, उन उद्यमियों के साथ इन प्रजाजनों की पालना करो ॥४॥
विषय
इन्द्र वरुण, युगल प्रमुख पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
( ग्नाः ) स्त्रियें और ( नरः च ) पुरुष ( नरां ) मनुप्यों के बीच में भी ( विश्वे देवासः ) विद्वान्, व्यवहारकुशल स्त्री पुरुष सभी (स्वगूर्त्ता: ) स्वयं उद्यमी होकर ही ( वावृधन्त ) बढ़ा करते हैं। हे ( इन्द्रा वरुणा ) ऐश्वर्यवान् और श्रेष्ठ पुरुषो ! आप दोनों भी (महित्वा ) अपने महान् सामर्थ्य से ( एभ्यः ) इन उद्यमी प्रजाजनों के लिये ( द्यौः पृथिवि च) सूर्य और भूमि के समान प्रकाश और अन्न खूब देने वाले ( प्र भूतम् ) होओ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते । छन्दः - १, ४, ११ त्रिष्टुप् । । ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २ भुरिक पंक्ति: । ३, ७, ८ स्वराट् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । ९ , १० निचृज्जगती ।। दशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
स्वगूर्ता: वावृधन्त
पदार्थ
[१] (नराम्) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्यों में (ग्नाः च) = स्त्रियाँ और (यत्) = जो (नरः च) = मनुष्य (स्वगूर्ताः) = स्वयं उद्योगवाले होते हुए (वावृधन्त) = वृद्धि को प्राप्त होते हैं अथवा स्तुति शब्दों से प्रभु का वर्धन करते हैं तो ये (विश्वे) = सब (देवासः) = देव बन जाते हैं। देव का लक्षण यही है कि स्वयं पुरुषार्थी बने और प्रभु का स्मरण करे। [२] हे (इन्द्रावरुणा) = जितेन्द्रियता व निर्देषता के भावो! (एभ्यः) = इन देववृत्तिवाले पुरुषों के लिये (महित्वा) = अपनी महिमा से (प्रभूतम्) = प्रकृष्ट प्रभाव [सामर्थ्य] को पैदा करनेवाले होवो । (द्यौः च) = और द्युलोक तथा पृथिवि हे पृथिवि ! आप भी इन देव वृत्तिवाले पुरुषों के लिये (उर्वी) = विशाल [भूतम् = ] होवो । इनका मस्तिष्क रूप द्युलोक दीप्त हो, इनका शरीररूप पृथिवीलोक दृढ़ हो ।
भावार्थ
भावार्थ– स्वयं पुरुषार्थ में प्रवृत्त हुए हुए प्रभु स्तवन करनेवाले व्यक्ति देव बनते हैं। इनके लिये जितेन्द्रियता व निर्देषता सामर्थ्य को देनेवाली होती हैं। ये दीप्त मस्तिष्कवाले व दृढ़ शरीरवाले बनते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! जे विद्या, धर्म, विनयाने वाढतात त्या उद्योगी लोकांबरोबर प्रजेचे पालन कर. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
All the holy voices, men and women, leading lights of humanity and the holiest of the holy for the world, grow on by their own vision and performance in the course of nature. For all these who grow thus, O lords of power and peace, vision and wisdom, be good, kind and generous by your own grace and grandeur like the light of heaven and the wide expanse of mother earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should they do with whom-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
All those enlightened persons and other leading men, who are industrious with their own vigor, having attained the speeches of others as well as their own, grow from all sides. From them, like the electricity and sun or like the heaven and earth, with their greatness they (the President of the council of ministers and Chief Commander of the army) grow. They should all be honored.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! along with those industrious persons, who grow with knowledge, Dharma-righteousness and humility, you should guard your subjects.
Foot Notes
(ग्ना:) वाच: । ग्नेति वाङ्नाम (NG 1, 11) । = Speech. (स्वगूर्त्ताः) स्वेन पराक्रमेणोद्यमिनः । गुरी-उद्यमने (तुदा.) | = Industrious with their own vigor. (इन्द्रावरुणा) विद्युतसूर्याविव । वरुणा एव सविता (जैमिनीयोप. 4, 27, 3)। = Like the electricity and sun.
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