ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 68/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
स इत्सु॒दानुः॒ स्ववाँ॑ ऋ॒तावेन्द्रा॒ यो वां॑ वरुण॒ दाश॑ति॒ त्मन्। इ॒षा स द्वि॒षस्त॑रे॒द्दास्वा॒न्वंस॑द्र॒यिं र॑यि॒वत॑श्च॒ जना॑न् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठसः । इत् । सु॒ऽदानुः॑ । स्वऽवा॑न् । ऋ॒तऽवा॑ । इन्द्रा॑ । यः । वा॒म् । व॒रु॒णा॒ दाश॑ति । त्मन् । इ॒षा । सः । द्वि॒षः । त॒रे॒त् । दास्वा॑न् । वंस॑त् । र॒यिम् । र॒यि॒ऽवतः॑ । च॒ । जना॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स इत्सुदानुः स्ववाँ ऋतावेन्द्रा यो वां वरुण दाशति त्मन्। इषा स द्विषस्तरेद्दास्वान्वंसद्रयिं रयिवतश्च जनान् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठसः। इत्। सुऽदानुः। स्वऽवान्। ऋतऽवा। इन्द्रा। यः। वाम्। वरुणा दाशति। त्मन्। इषा। सः। द्विषः। तरेत्। दास्वान्। वंसत्। रयिम्। रयिऽवतः। च। जनान् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 68; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजसेनाजनाः किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्रावरुणेव वर्त्तमानौ सभासेनेशौ ! वां यः सुदानुः स्ववानृतावा त्मन्नभयं दाशति यो दास्वानिषा द्विषस्तरेद् रयिवतो जनांश्च रयिं वंसत् स इत्सर्वोत्तमः स राजा भवितुमर्हति ॥५॥
पदार्थः
(सः) (इत्) एव (सुदानुः) सुष्ठुदाता (स्ववान्) स्वे आत्मीया बहवो विद्यन्ते यस्य सः (ऋतावा) य ऋतं सत्यं वनति भजति सः (इन्द्रा) सूर्यः (यः) (वाम्) युवयोः (वरुण) वायुः (दाशति) ददाति (त्मन्) आत्मनि (इषा) अन्नाद्येन (सः) (द्विषः) शत्रून् (तरेत्) (दास्वान्) दाता सन् (वंसत्) विभजेत् (रयिम्) धनम् (रयिवतः) बहुधनवतः (च) (जनान्) ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सूर्य्यो वर्षयित्वा वायुश्च प्राणय्य सर्वान् प्राणिनोऽभयं कुरुतस्तथा ये सङ्ग्रामे समुदितैर्लब्धस्य धनस्य यथावद्विभज्य षोडशांशं भृत्येभ्यो ददति तत्र ये योद्धारो जयेयुस्तेभ्यस्तस्मादपि षोडशांशं प्रयच्छन्ति त एव विजयिनो भूत्वा परस्परस्मिन् प्रसन्ना भवन्ति ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजसेनाजन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्रा, वरुण) सूर्य्य और वायु के समान वर्त्तमान सभासेनाधीशो ! (वाम्) तुम दोनों का (यः) जो (सुदानुः) उत्तम देनेवाला (स्ववान्) जिसके अपने लोग बहुत विद्यमान हैं (ऋतावा) जो सत्य को भजता है वह (त्मन्) आत्मा में अभयपन (दाशति) देता है जो (दास्वान्) देनेवाला होता हुआ (इषा) अन्न आदि से (द्विषः) शत्रुजनों को (तरेत्) तरे और (रयिवतः) बहुधनवान् (जनान्, च) जनों को भी (रयिम्) धन का (वंसत्) विभाग करे (सः, इत्) वही सर्वोत्तम और (सः) वह राजा होने योग्य है ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य वर्षा करा कर और वायु प्राण धारणा करा कर ये दोनों सब प्राणियों को निर्भय करते हैं, वैसे जो सङ्ग्राम के बीच अच्छे प्रकार सन्मुख हैं, उनसे पाये हुए धन का यथावत् विभाग कर सोलहवाँ भाग भृत्यों के लिये देते हैं तथा वहाँ सङ्ग्राम में जो योद्धा जीते, उनके लिये उससे सोलहवाँ भाग देते हैं, वे ही विजयी होकर आपस में प्रसन्न होते हैं ॥५॥
विषय
इन्द्र वरुण की व्याख्या ।
भावार्थ
हे ( इन्द्रा वरुणा ) ऐश्वर्ययुक्त ! हे वरण करने योग्य दोनों जनो ! ( वां ) आप दोनों में से ( यः ) जो ( त्मन् दाशति ) अपने बलपर दान करता है, ( सः इत् सुदानुः ) वहीं उत्तम दाता है । वही ( स्व-वान् ) आत्मवान्, व सच्चा धनवान्, वही (ऋतावा) बलवान् तेजस्वी धनाढ्य है । ( सः ) वह ( दास्वान् ) दानशील पुरुष ही (इषा द्विषः तरेत्) अपनी इच्छामात्र या प्रेरणा, आज्ञा और सैन्य बल और अन्नसम्पदा से अपने शत्रुओं को पार करता है, जो ( रयिं सत् ) नाना ऐश्वर्य को विभक्त करता और (जनान् च रयिवतः करोति ) सब लोगों को धन सम्पन्न करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते । छन्दः - १, ४, ११ त्रिष्टुप् । । ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २ भुरिक पंक्ति: । ३, ७, ८ स्वराट् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । ९ , १० निचृज्जगती ।। दशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
सुदानुः - स्ववान्- दास्वान्
पदार्थ
[१] हे (इन्द्रावरुण) = इन्द्र और वरुण देवो! (यः) = जो (त्मन्) = स्वयं अपने को (वां दाशति) = आपके प्रति दे डालता है, अर्थात् जो जितेन्द्रियता व निर्देषता का उपासक बनता है, (सः) = वह (इत्) = निश्चय से (सुदानुः) = शोभन दानवाला व अच्छी प्रकार शत्रुओं को काटनेवाला [दाप् लवने] होता है। यह (स्ववान्) = आत्मशक्तिवाला तथा (ऋतावा) = ऋत व यज्ञों का रक्षण करनेवाला होता है। [२] (सः) = यह (इषा) = प्रभु प्रेरणा के द्वारा (द्विषः तरेत्) = द्वेष की भावनाओं को तैर जाता है। (दास्वान्) = दानशील होता है। (रयिं वंसत) = धन को प्राप्त करता है (च) = तथा (रयिवतः) = ऐश्वर्यशाली (जनान्) = पुत्रों को प्राप्त करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- जितेन्द्रियता व निर्देषता का उपासक शोभनदानशील, उत्तम धनवाला व ऐश्वर्यशाली पुत्रोंवाला होता है। यह प्रभु प्रेरणा को सुनता हुआ वासनारूप शत्रुओं को तैर जाता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य वृष्टी करून व वायू प्राण धारण करवून सर्व प्राण्यांना निर्भय करतात, तसे जे युद्धात समोरासमोर असतात त्यांच्याकडून प्राप्त झालेल्या धनाचे व्यवस्थित वाटप करून सोळावा भाग सेवकांना द्यावा व युद्धात जे योद्धे जिंकतात त्यांना सोळावा भाग द्यावा. त्यामुळे ते विजयी बनतात व परस्पर प्रसन्न राहतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
He that is liberal, self confident and upright in matters of truth and divine law, and in his very soul does honour to you, shall, with his resources, conquer his opponents and enemies and, with his generosity, achieve wealth and power and win over men of wealth and power to his side for support and cooperation to give and share.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the officers of the state and people of the army do-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Council of Ministers and Commander of the army! you who are like the sun and the air, who being a good donor, having under him many kith and kin, or attendants (associates), always serving the cause of truth, gives fearlessness in his soul, and being a liberal donor with food etc., overcomes his adversaries and distributes wealth among the needy, whether they are poor or well-to-do persons, is the best person. He deserves to be a ruler.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! as the sun makes all men fearless, by raining water and the air by breathing, so those who distribute the wealth gained in a battle properly, by giving one-sixteenth among the servants, one-sixteenth among the soldiers, become victorious and are delighted with one another.
Foot Notes
( ऋतावा) यः ऋतं सत्यं वनति भजति सः । ऋतमिति सत्यनाम (NG 3, 10) वन-संभक्तौ (भ्वा.) । = He who Serves the cause of truth, truthful, (इन्द्रा) सूर्यः । स यः स इन्द्र एष एव स य एष (सूर्य:) एव तपति (जै मि. उ. 28, 2 ) = The sun. (वरुण) वायु: । वातो वरुणः (मैत्रायणी. सं. 4, 8, 5) = The air. (वंसत्) विभजेत् । = May distribute.
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