ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 68/ मन्त्र 7
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
उ॒त नः॑ सुत्रा॒त्रो दे॒वगो॑पाः सू॒रिभ्य॑ इन्द्रावरुणा र॒यिः ष्या॑त्। येषां॒ शुष्मः॒ पृत॑नासु सा॒ह्वान्प्र स॒द्यो द्यु॒म्ना ति॒रते॒ ततु॑रिः ॥७॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । नः॒ । सु॒ऽत्रा॒तः । दे॒वऽगो॑पाः । सू॒रिऽभ्यः॑ । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒ । र॒यिः । स्या॒त् । येषा॑म् । शुष्मः॑ । पृत॑नासु । सा॒ह्वान् । प्र । स॒द्यः । द्यु॒म्ना । ति॒रते॑ । ततु॑रिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत नः सुत्रात्रो देवगोपाः सूरिभ्य इन्द्रावरुणा रयिः ष्यात्। येषां शुष्मः पृतनासु साह्वान्प्र सद्यो द्युम्ना तिरते ततुरिः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठउत। नः। सुऽत्रातः। देवऽगोपाः। सूरिऽभ्यः। इन्द्रावरुणा। रयिः। स्यात्। येषाम्। शुष्मः। पृतनासु। साह्वान्। प्र। सद्यः। द्युम्ना। तिरते। ततुरिः ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 68; मन्त्र » 7
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः को राजाऽर्हो भवेदित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्रावरुणेव वर्त्तमान राजन् ! येषां पृतनासु शुष्मः साह्वान् ततुरिः सेनेशो वर्त्तते यः सद्यो द्युम्नाः प्र तिरते यस्य पराक्रमेण रयिः स्यादुत नः सूरिभ्यः सुत्रात्रो देवगोपा भवेत्स एव राजा भवितुमर्हति ॥७॥
पदार्थः
(उत) अपि (नः) अस्मभ्यम् (सुत्रात्रः) यस्सुष्ठु रक्षकान् रक्षति (देवगोपाः) यो देवान् विदुषो गोपायति (सूरिभ्यः) विद्वद्भ्यः (इन्द्रावरुणा) वायुविद्युद्वद् (रयिः) श्रीः (स्यात्) (येषाम्) (शुष्मः) बलयुक्तः सेनेशः (पृतनासु) शूरवीरसेनासु (साह्वान्) सोढा (प्र) (सद्यः) (द्युम्ना) धनानि यशांसि वा (तिरते) प्राप्नोति (ततुरिः) तरिता ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये सूर्य्यवत् प्रतापिनो वायुवद्बलिष्ठा विद्याविद्वद्विनयशूरवीररक्षकाः स्युस्ते सर्वत्र क्षिप्रं शत्रून् विजित्य यशस्विनो भूत्वा धनवन्तो जायन्ते ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन राजा योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्रावरुणा) वायु और बिजुली के समान वर्त्तमान प्रशंसित राजा ! (येषाम्) जिन शूरवीरों की (पृतनासु) सेनाओं में (शुष्मः) बलवान् (साह्वान्) सहनशील (ततुरिः) उत्तीर्ण होनेवाला सेनापति वर्त्तमान है तथा जो (सद्यः) शीघ्र (द्युम्ना) धन और यशों को (प्र, तिरते) उत्तमता से प्राप्त होता है वा जिसके पराक्रम से (रयिः) लक्ष्मी (स्यात्) हो (उत) और (नः) हम लोग (सूरिभ्यः) विद्वान् हैं उनके लिये (सुत्रात्रः) जो अच्छों की रक्षा करनेवालों की रक्षा करनेवाला (देवगोपाः) विद्वानों का रक्षक हो, वही राजा होने योग्य है ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो सूर्य के समान प्रतापी, पवन के समान बलवान्, विद्यावान् के समान नम्रता और शूरवीरों की रक्षा करनेवाले हों, वे सर्वत्र शीघ्र शत्रुओं को जीत के यशस्वी होकर धनवान् होते हैं ॥७॥
विषय
missing
भावार्थ
हे ( इन्द्रावरुणा ) शत्रुहन्ता और प्रमुख रूप से वरण करने योग्य ! सैन्य-सेनापति जनो ! ( येषां ) जिनका ( शुष्मः ) बल ( पृतनासु ) संग्रामों और मनुष्यों वा सेनाओं के बीच में ( साह्वान् ) सर्वविजयी, हो । जो ( सद्यः ) बहुत शीघ्र ही ( ततुरिः ) शत्रुनाशक होकर ( धुम्ना ) धन और बल से ( तिरते ) शत्रुओं को नाश करता है, और जिनका ( रयिः ) धन वा बल (नः) हमारे (सूरिभ्यः) विद्वानों का सुत्रात्रः ) उत्तम रीति से रक्षा करने वाला और ( देवगोपाः ) सब मनुष्यों का रक्षक ( स्यात् ) हो वही हमारा ( सुत्रात्र: ) उत्तम रक्षक होने योग्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते । छन्दः - १, ४, ११ त्रिष्टुप् । । ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २ भुरिक पंक्ति: । ३, ७, ८ स्वराट् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । ९ , १० निचृज्जगती ।। दशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
'सुत्रात्र देवगोपा' रयि
पदार्थ
[१] (उत) = और (नः) = हम (सूरिभ्यः) = ज्ञानी स्तोताओं के लिये, हे (इन्द्रावरुणा) = इन्द्र और वरुण ! (रयि: स्यात्) = वह धन प्राप्त हो, जो (सुत्रात्र:) = अच्छी प्रकार हमारा रक्षण करनेवाला हो तथा (देवगोपा:) = हमारे जीवनों में देवों का, दिव्य भावों का रक्षक हो। [२] इस धन को पाकर हम ऐसे बनें (येषाम्) = जिनका कि (शुष्मः) = शत्रुशोषक बल पृतनासु संग्रामों में (साह्वान्) = शत्रुओं का पराभव करनेवाला हो तथा (ततुरिः) = शत्रुओं का संहार करनेवाला होता हुआ (सद्यः) = शीघ्र ही (द्युम्ना) = शत्रुओं के यशों को (प्रतिरते) = तैर जाता है, विनष्ट कर डालता है। जितेन्द्रियता व निर्देषता का आराधन ही इस प्रकार के धन को हमारे लिये प्राप्त कराता है।
भावार्थ
भावार्थ– जितेन्द्रियता व निर्देषता की उपासना हमें वह धन प्राप्त कराती है, [१] जो हमारा रक्षण करता है, [२] हमारे में दिव्य भावों का वर्धन करता है। [३] हमें शत्रुओं को पराभूत करने में समर्थ करता है ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जे सूर्याप्रमाणे पराक्रमी, वायूप्रमाणे बलवान, विद्यावानाप्रमाणे नम्र व शूरवीरांचे रक्षण करणारे असतात ते ताबडतोब सर्वत्र शत्रूंना जिंकून यशस्वी होऊन धनवान होतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And for us, O lords of power and justice, for the wise and brave whose force of arms and intelligence challenges the enemy and wins the victory in battles of life, let there be that common wealth of nations and that ruler who protects the protectors, defends and supports the wise and brilliant, and, as a superleader, wins wealth, honour and excellence for humanity always in the struggles for progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who is fit to be a ruler-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! you who are like the wind and electricity, he alone is fit to be a king in whose armies, the Commander-in-Chief is a very mighty person, who can put up with all difficulties and can overcome all obstacles and miseries, who can acquire wealth and good reputation quickly, army by whose vigor there can be great prosperity, and, who is for the enlightened persons, the great protector and good guard of the preservers.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! those persons who are vigorous like the sun, mighty like the wind, and protectors of knowledge, humility the brave, can soon become glorious and rich by conquering their enemies.
Foot Notes
(द्युम्ना) धनानि यशसि वा । दयुम्नमिति धननाम (NG 2, 10) । द्युम्नं द्योततेर्यशो वा अन्नं वा (NKT 5, 1, 5 ) = Wealth and good reputation. (ततुरि:) तरिता । तु-पल्वनसन्तरणयो: (भ्वा०) अत्र सन्तरणार्थः (विघ्नेभ्यो दुःखेभ्प श्वतरित) | = Overcomer of the difficulties and miseries.
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