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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 69/ मन्त्र 8
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्राविष्णू छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒भा जि॑ग्यथु॒र्न परा॑ जयेथे॒ न परा॑ जिग्ये कत॒रश्च॒नैनोः॑। इन्द्र॑श्च विष्णो॒ यदप॑स्पृधेथां त्रे॒धा स॒हस्रं॒ वि तदै॑रयेथाम् ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒भा । जि॒ग्य॒थुः॒ । न । परा॑ । ज॒ये॒थे॒ इति॑ । न । परा॑ । जि॒ग्ये॒ । क॒त॒रः । च॒न । ए॒नोः॒ । इन्द्रः॑ । च॒ । वि॒ष्णो॒ इति॑ । यत् । अप॑स्पृधेथाम् । त्रे॒धा । स॒हस्र॑म् । वि । तत् । ऐ॒र॒ये॒था॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभा जिग्यथुर्न परा जयेथे न परा जिग्ये कतरश्चनैनोः। इन्द्रश्च विष्णो यदपस्पृधेथां त्रेधा सहस्रं वि तदैरयेथाम् ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उभा। जिग्यथुः। न। परा। जयेथे इति। न। परा। जिग्ये। कतरः। चन। एनोः। इन्द्रः। च। विष्णो इति। यत्। अपस्पृधेथाम्। त्रेधा। सहस्रम्। वि। तत्। ऐरयेथाम् ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 69; मन्त्र » 8
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विष्णो इन्द्रश्च ! युवां यत्सहस्रं तत्त्रेधापस्पृधेथां व्यैरयेथां तदोभा युवां जिग्यथुर्न परा जयेथे एनोः कतरश्चन न परा जिग्ये ॥८॥

    पदार्थः

    (उभा) सभासेनेशौ (जिग्यथुः) विजयेथे (न) निषेधे (परा) (जयेथे) पराजयं प्राप्नुथः (न) (परा) (जिग्ये) पराजितो भवति (कतरः) अनयोर्मध्ये एकः (चन) अपि (एनोः) अनयोर्मध्ये (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् वायुवद्वर्त्तमानः (च) (विष्णो) विद्युद्वद्व्यापनशील (यत्) (अपस्पृधेथाम्) स्पर्द्धेथाम् (त्रेधा) त्रिविधम् (सहस्रम्) असङ्ख्यं सैन्यम् (वि) (तत्) (ऐरयेथाम्) प्रेरयेतम् ॥८॥

    भावार्थः

    हे सेनाबलाध्यक्षा ! यदि भवन्तः सर्वदा सेनोन्नतये युद्धविद्यावृद्धये प्रयतेरँस्तर्हि सर्वत्र विजयेरन् कुत्राऽपि न पराजयेरन्नति ॥८॥ अत्रेन्द्रविष्णुवत्सभासेनेशादिकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकोनसप्ततितमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (विष्णो) बिजुली के समान व्याप्त होनेवाले (इन्द्रः, च) और परमैश्वर्य्यवान् वायु के समान वर्त्तमान ! तुम दोनों (यत्) जो (सहस्रम्) असंख्य सेना समूह हैं (तत्) उसे (त्रेधा) तीन प्रकार (अपस्पृधेथाम्) स्पर्द्धा अर्थात् तर्क-वितर्क से स्थापित करो और उसे (वि, ऐरयेथाम्) विविध प्रकार से यथा स्थान स्थित कराओ ऐसा करो तो (उभा) तुम दोनों (जिग्यथुः) विजय को प्राप्त होते हो (नः) नहीं (परा, जयेथे) पराजय को प्राप्त होते हो तथा (एनोः) इनके बीच (कतरः) कोई एक (चन) भी (न) नहीं (परा, जिग्ये) पराजित होता है ॥८॥

    भावार्थ

    हे सेनाबल के अधीशो ! यदि आप लोग सर्वदा सेना की उन्नति के लिये और युद्धविद्या की वृद्धि के लिये प्रयत्न कीजिये तो सर्वत्र जीतिये कहीं भी न पराजित हूजिये ॥८॥ इस सूक्त में इन्द्र और विष्णु के समान सभा और सेनेश आदि के कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह उनहत्तरवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    अपरिमित ज्ञान, बल ऐश्वर्य प्रकट करने की प्रेरणा।

    भावार्थ

    हे विष्णो ! वायु के समान व्यापक बलशालिन् ! ( इन्द्रः च) विद्युतवत् शत्रु का नाश करने हारे आप दोनों ( यत् ) जब ( अप स्पृधेथाम् ) बढ़ने का उद्योग करते हो तब ( सहस्रं ) अपरिमित ज्ञान,अपरिमित वल और अपरिमित ऐश्वर्य इनको ( त्रेधा ऐरयेथां ) तीनों प्रकारों से प्रेरित करो, तीनों को प्रकट करो । इस प्रकार ( उभा जिग्यथुः ) आप दोनों ही विजय को प्राप्त करो, ( न पराजयेथे ) कभी पराजित मत होओ। (कतरः चन एनोः) इनमें से कोई एक भी ( न पराजिग्ये ) पराजय को पाप्त न होवे । इति त्रयोदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्राविष्णू देवते ।। छन्दः – १, ३, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ८ त्रिष्टुप् । ५ ब्राह्म्युणिक् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    [त्रेधा सहस्त्रं] इन्द्र और विष्णु का विजय

    पदार्थ

    [१] (उभा) = इन्द्र और विष्णु दोनों, शक्ति व उदारता के भाव दोनों ही (जिग्यथः) - विजय को प्राप्त होते हैं (न पराजयेथे) = ये पराजित नहीं होते। (एनो:) = इन दोनों में से (कतरः चन) = कोई भी एक (पराजिग्ये) = पराजित नहीं होता। [२] (इन्द्रः च विष्णो) = इन्द्र और हे विष्णो! आप दोनों (यत्) = जब (अपस्पृधेथाम्) = संघर्ष में असुरों का मुकाविला करते हो तो (तत्) = उस (त्रेधा) = तीन प्रकार से स्थित लोक वेद वाग् आत्मा के रूप से विद्यमान (सहस्त्रम्) = [अमितं] अनन्त ऐश्वर्य को अपने में (वि ऐरयेथाम्) = प्रेरित करते हो। ये इन्द्र और विष्णु-शक्ति व उदारता के भाव हमारे अंगों [लोक] को ठीक रखते हैं, हमारे ज्ञान को बढ़ाते हैं [वेद] हमारी वाणी को परिष्कृत करते हैं [वाग्] ।

    भावार्थ

    भावार्थ - जब हम शक्ति व उदारता के भाव का आराधन करते हैं तो विजय ही विजय को प्राप्त करते हैं, कभी पराजित नहीं होते। हमारे 'अंग ज्ञान व वाणी' सब बड़े ठीक विकासवाले होते हैं । अगले सूक्त में 'द्यावापृथिव्यौ' देवता हैं -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे सेनाध्यक्षा ! जर तू सेनेच्या उन्नतीसाठी व युद्धविद्येच्या वृद्धीसाठी प्रयत्न केलास तर सर्वत्र विजय मिळेल व कुठेही पराजित होणार नाहीस. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Both Indra and Vishnu are ever victorious. They are never defeated. Neither of them is ever vanquished or deprived. Indra and Vishnu, when you act together and contend with others, you stabilise your thousand forces, threefold raise their power and potency, and reduce the adversary to the lowest degree of efficiency.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they (Indra and Vishnu)-is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Commander-in-Chief of the army ! you who are like the pervasive electricity and President of the Council of ministers, both of you always conquer and neither of you be defeated. When you fight with your wicked enemies, you divide your grand and infinite army in three sections (land, navy and air force) we inspire all soldiers to fight valiantly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O Chiefs of the army! if you always try for the advancement of your army and for more and more proficiency in the science of warfare (or military science) then you may always achieve and victory may never be vanquished anywhere.

    Foot Notes

    (उभा) सभासेनेशौ। = President of Council of Ministers and the Commander-in-Chief of the army. (विष्णो) 'विद्यद्वद्व्यापनशील । विष्लृ-व्याप्तौ (जुहा.)। = Pervasive like electricity. (सहस्रम्) असंख्यं सैन्यम् । सहस्रम् इति बहुनाम (NG 3, 1) = Infinite army.

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