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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - वैश्वानरः छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वां विश्वे॑ अमृत॒ जाय॑मानं॒ शिशुं॒ न दे॒वा अ॒भि सं न॑वन्ते। तव॒ क्रतु॑भिरमृत॒त्वमा॑य॒न्वैश्वा॑नर॒ यत्पि॒त्रोरदी॑देः ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । विश्वे॑ । अ॒मृ॒त॒ । जाय॑मानम् । शिशु॑म् । न । दे॒वाः । अ॒भि । सम् । न॒व॒न्ते॒ । तव॑ । क्रतु॑ऽभिः । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । आ॒य॒न् । वैश्वा॑नर । यत् । पि॒त्रोः । अदी॑देः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वां विश्वे अमृत जायमानं शिशुं न देवा अभि सं नवन्ते। तव क्रतुभिरमृतत्वमायन्वैश्वानर यत्पित्रोरदीदेः ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम्। विश्वे। अमृत। जायमानम्। शिशुम्। न। देवाः। अभि। सम्। नवन्ते। तव। क्रतुऽभिः। अमृतऽत्वम्। आयन्। वैश्वानर। यत्। पित्रोः। अदीदेः ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ द्वितीयजन्मविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे वैश्वानराऽमृताप्त विद्वन् ! यं त्वां शिशुं न जायमानं विश्वे देवा अभि सन्नवन्ते यस्य तव क्रतुभिर्मनुष्या अमृतत्वमायन् यत्त्वं पित्रोरदीदेः स त्वं धन्योऽसि ॥४॥

    पदार्थः

    (त्वाम्) (विश्वे) सर्वे (अमृत) मरणधर्म्मरहित (जायमानम्) उत्पद्यमानम् (शिशुम्) बालकम् (न) इव (देवाः) विद्वांसः (अभि) (सम्) सम्यक् (नवन्ते) स्तुवन्ति (तव) (क्रतुभिः) प्रज्ञाकर्म्मभिः (अमृतत्वम्) मोक्षस्य भावम् (आयन्) प्राप्नुवन्ति (वैश्वानर) यो विश्वान्नरान् धर्मकार्य्येषु नयति तत्सम्बुद्धौ (यत्) यः (पित्रोः) मातपित्रोरिव विद्याऽऽचार्ययोः (अदीदेः) प्रकाशयेः ॥४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये मनुष्या मातापितृभ्यां जन्म प्राप्याऽष्टमं वर्षमारभ्याऽऽचार्य्याद्विद्याग्रहणेन द्वितीयं जन्म प्राप्नुवन्ति ते स्तुत्याः सन्तो धर्म्मार्थकाममोक्षान् साद्धुं शक्नुवन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब द्वितीय जन्म के विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वैश्वानर) संपूर्ण जनों को धर्म्म के कार्य्यों में ले चलनेवाले (अमृत) मरणधर्म्म से रहित यथार्थवक्ता विद्वान् ! जिन (त्वाम्) आपको (शिशुम्) बालक को (न) जैसे वैसे (जायमानम्) उत्पन्न हुए को (विश्वे) सम्पूर्ण (देवाः) विद्वान् जन (अभि) सब ओर से (सम्) उत्तम प्रकार (नवन्ते) स्तुति करते हैं और जिन (तव) आपके (क्रतुभिः) बुद्धि के कर्म्मों से मनुष्य लोग (अमृतत्वम्) मोक्षपन को (आयन्) प्राप्त होते हैं और (यत्) जो आप (पित्रोः) माता और पिता के सदृश विद्या और आचार्य्य के (अदीदेः) प्रकाशक हो, वह आप धन्य हो ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य माता और पिता से जन्म को प्राप्त होकर आठवें वर्ष से प्रारम्भ करके आचार्य से विद्या के ग्रहण से द्वितीय जन्म को प्राप्त होते हैं, वे स्तुति करने योग्य हुए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करने को समर्थ होते हैं ॥४॥

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    विषय

    वैश्वानर । तेजस्वी व अग्नि, सूर्यवत् नायक का स्थापन । उसके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( देवाः ) दानशील सम्बन्धीजन जिस प्रकार ( जायमानं शिशुं न ) उत्पन्न होते हुए नवबालक को ( अभि सं नवन्ते ) लक्ष्यकर आशीर्वादादि के निमित्त उसके प्रति प्रेम से झुकते हैं उसी प्रकार हे ( वैश्वानर ) समस्त मनुष्यों के नायक ! हे ( अमृत ) कभी नाश को प्राप्त न होने वाले ! ( यत् ) जब तू (पित्रोः ) पालक माता पिताओं, एवं पिता वा गुरुजन दोनों के बीच और दोनों के अधीन उत्तम रूप, गुणों और विद्यादि से ( अदीदेः ) प्रकाशित हो ( देवाः ) देव, विद्वान् लोग तुझ ( जायमानं ) उदय होते हुए, ( शिशुं त्वां ) प्रशंसनीय तुझको ( अभि सं नवन्ते ) आदरपूर्वक झुकते हैं । वे ( तव क्रतुभिः ) तेरे कर्मों और ज्ञानों से ही ( अमृतत्वम् आयन्) अमृत, अविनाशी सत्ता को प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः – १ त्रिष्टुप् । २ निचृत्त्रिष्टुप् । ७ स्वराट्त्रिष्टुप् । ३ निचृत्पंक्ति: । ४ स्वराट् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । ६ जगती ॥

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    विषय

    'मस्तिष्क व शरीर' में प्रभु की दीप्ति

    पदार्थ

    [१] हे (अमृत) = मरणधर्मरहित प्रभो ! (विश्वे देवा:) = सब देववृत्ति के व्यक्ति (जायमानं त्वाम्) = प्रादुर्भूत होते हुए आपको (अभिसंनवन्ते) = प्राप्त होते हैं । देववृत्ति के लोग प्रभु की ओर ही झुकते हैं। (शिशुं न) = जो आप शिशु के समान हैं, 'शो तनूकरणे' बुद्धि को तीव्र करनेवाले के समान हैं। 'आप ही इन देवों की बुद्धि को सूक्ष्म बनाते हैं'। [२] (तव क्रतुभिः) = आपके प्रज्ञानों व सामर्थ्यो से ही देव (अमृतत्वम्) = अमरता को (आयन्) = प्राप्त होते हैं। हे वैश्वानर सब नरों के हित करनेवाले प्रभो ! (यत्) = जब आप (पित्रो:) = इन द्यावापृथिवी में, मस्तिष्क व शरीर में (अदीदेः) = दीप्त होते हैं। आप ही मस्तिष्क को ज्ञान की ज्योति से तथा शरीर को तेजस्विता से दीप्त करते हैं। इस प्रज्ञान व तेजस्विता से ही अमरता की प्राप्ति होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु मस्तिष्क को प्रज्ञान से तथा शरीर को तेज से दीप्त करते हैं। इन प्रज्ञानों व तेजों को प्राप्त करके हम देव व अमर बनते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे माता-पिता यांच्याकडून जन्म घेतल्यावर आठव्या वर्षापासून आचार्यांकडून विद्या ग्रहण करून द्वितीय जन्म प्राप्त करतात ती प्रशंसनीय ठरून धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सिद्ध करण्यास समर्थ ठरतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Vaishvanara Agni, light and vitality of the world, all brilliant scholars and divines of humanity love you as a baby and celebrate you all round like the rising sun at dawn, or like a young scholar emerging from the home of his parents and teachers like the sun from heaven over the earth. By virtue of your holy acts, the mortals achieve the immortality of holiness and excellence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Something about the second birth (through initiation) is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O immortal, absolutely truthful enlightened person! leading all men towards the path of riotousness, all highly learned truthful persons praise you or (acclaim. Ed.) sing for joy as to their infant, when you are born for the second time (through initiation). By your intelligent or wise actions, thoughtful men attain immortality or (final. Ed.) liberation-Moksha. You illumine by the union of Vidya (the knowledge) and Acharya (preceptor) as parents. You are (stand. Ed.) therefore blessed.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is upamalankara or simile used in the mantra. The men who having taken birth from their parents, get second birth at the eighth year onward from the Acharya (preceptor) by receiving education from him become praise-worthy and are able to accomplish Dharma (righteousness) अर्थ Artha (acquisition of wealth) काम Kama (fulfilment of noble desires) and मोक्ष emancipation.

    Translator's Notes

    It is not correct on the part of Griffith and other western translators to translate the word : here as elsewhere as all the Gods'. It should be ‘highly learned or enlightened persons. (etymologically. Ed.).

    Foot Notes

    (वैश्वानर:) यो विश्वान्नरान् धर्मकार्येषु नयति तत्सम्बुद्धौ । वैश्वानरः कस्मात् विश्वान् नरान् नयति (NKT 7, 6, 21)। = He who leads all men towards righteous acts. (पित्रोः) मातापित्रोरिव विद्याsचार्य्यो:। तत्र यद् ब्रह्मजन्मास्य मौजीबन्धनं चित्रितम् । तत्रास्य माता सावित्री, पितात्वाचार्य उच्यते । इति मनुस्मृती 2, 1, 70 अस्य द्वितीयजन्मनो वर्णनम्। = From Vidya (knowledge) and Acharya (preceptor) as from their parents.

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