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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 7/ मन्त्र 6
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - वैश्वानरः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    वै॒श्वा॒न॒रस्य॒ विमि॑तानि॒ चक्ष॑सा॒ सानू॑नि दि॒वो अ॒मृत॑स्य के॒तुना॑। तस्येदु॒ विश्वा॒ भुव॒नाधि॑ मू॒र्धनि॑ व॒याइ॑व रुरुहुः स॒प्त वि॒स्रुहः॑ ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒श्वा॒न॒रस्य॑ । विऽमि॑तानि । चक्ष॑सा । सानू॑नि । दि॒वः । अ॒मृत॑स्य । के॒तुना॑ । तस्य॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । विश्वा॑ । भुव॑ना । अधि॑ । मू॒र्धनि॑ । व॒याःऽइ॑व । रु॒रु॒हुः॒ । स॒प्त । वि॒ऽस्रुहः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वानरस्य विमितानि चक्षसा सानूनि दिवो अमृतस्य केतुना। तस्येदु विश्वा भुवनाधि मूर्धनि वयाइव रुरुहुः सप्त विस्रुहः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वानरस्य। विऽमितानि। चक्षसा। सानूनि। दिवः। अमृतस्य। केतुना। तस्य। इत्। ऊँ इति। विश्वा। भुवना। अधि। मूर्धनि। वयाःऽइव। रुरुहुः। सप्त। विऽस्रुहः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 7; मन्त्र » 6
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं वेदितव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यस्य वैश्वानरस्य चक्षसा विमितानि सानूनि दिवोऽमृतस्य केतुना विश्वा भुवना सप्त विस्रुहो मूर्द्धनि वयाइवाऽधि रुरुहुस्तस्येदु सङ्गं कुरुत ॥६॥

    पदार्थः

    (वैश्वानरस्य) विश्वेषु नरेषु विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमानस्य (विमितानि) विशेषेण परिमितानि (चक्षसा) प्रज्ञानेन (सानूनि) प्रान्तदेशान् (दिवः) प्रकाशमानस्य (अमृतस्य) नाशरहितस्य (केतुना) प्रज्ञया (तस्य) (इत्) एव (उ) (विश्वा) सर्वाणि (भुवना) भुवनानि लोकाः (अधि) (मूर्द्धनि) (वयाइव) पक्षिण इव (रुरुहुः) प्रादुर्भवन्ति (सप्त) सप्तविधाः (विस्रुहः) विसरन्ति विशेषेण गच्छन्ति ॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । यो विद्वान् जगदीश्वरनिर्मितान् पक्षिवदन्तरिक्षे चलतो लोकानेतेषां गतिं च विजानीयात् स विदुषां मूर्द्धेव प्रशंसनीयो जायते ॥६॥

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    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या जानना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस (वैश्वानरस्य) संपूर्ण नरों में विद्या और विनय से प्रकाशमान के (चक्षसा) प्रज्ञान से (विमितानि) विशेष करके परिमित (सानूनि) प्रान्त स्थानों को (दिवः) प्रकाशमान (अमृतस्य) नाश से रहित की (केतुना) बुद्धि से (विश्वा) सम्पूर्ण (भुवना) लोक (सप्त) सात प्रकार के (विस्रुहः) विशेष करके सरकते जाते और (मूर्द्धनि) शिर पर अर्थात् ऊपर (वयाइव) पक्षियों के सदृश (अधि) अधिकतर (रुरुहुः) प्रकट होते हैं (तस्य) उसका (इत्) ही (उ) तर्क-वितर्क से सङ्ग करो ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वान् जन परमेश्वर से रचे गए, पक्षियों सदृश अन्तरिक्ष में चलते हुए लोकों और उनकी गति को बुद्धि से विशेष करके जाने, वह विद्वानों के मस्तक के सदृश प्रशंसा करने योग्य होता है ॥६॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वान जगदीश्वराने निर्माण केलेल्या व पक्ष्यांप्रमाणे अंतरिक्षात फिरणाऱ्या गोलांच्या गतीला विशेष रूपाने जाणतात ते विद्वानांच्या मस्तकाप्रमाणे प्रशंसनीय असतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    By the vision and radiance of immortal Vaishvanara, the tops of heaven are pervaded, measured and transcended. On him, as base which is also the summit of existence, rest all the worlds of the universe which manifest like hair on the head, grow like seven branches from the one root, or flow like seven streams from the centre source.

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