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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 72/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रासोमौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रा॑सोमा यु॒वम॒ङ्ग तरु॑त्रमपत्य॒साचं॒ श्रुत्यं॑ रराथे। यु॒वं शुष्मं॒ नर्यं॑ चर्ष॒णिभ्यः॒ सं वि॑व्यथुः पृतना॒षाह॑मुग्रा ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑सोमा । यु॒वम् । अ॒ङ्ग । तरु॑त्रम् । अ॒प॒त्य॒ऽसाच॑म् । श्रुत्य॑म् । र॒रा॒थे॒ इति॑ । यु॒वम् । शुष्म॑म् । नर्य॑म् । च॒र्ष॒णिऽभ्यः॑ । सम् । वि॒व्य॒थुः॒ । पृ॒त॒ना॒ऽसह॑म् । उ॒ग्रा॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रासोमा युवमङ्ग तरुत्रमपत्यसाचं श्रुत्यं रराथे। युवं शुष्मं नर्यं चर्षणिभ्यः सं विव्यथुः पृतनाषाहमुग्रा ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रासोमा। युवम्। अङ्ग। तरुत्रम्। अपत्यऽसाचम्। श्रुत्यम्। रराथे इति। युवम्। शुष्मम्। नर्यम्। चर्षणिऽभ्यः। सम्। विव्यथुः। पृतनाऽसहम्। उग्रा ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 72; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ किंवत् किं कुर्यातामित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अङ्ग अध्यापकोपदेशकौ ! युवमिन्द्रासोमावत्तरुत्रमपत्यसाचं श्रुत्यं रराथे युवं चर्षणिभ्यः उग्रा सन्तौ पृतनाषाहं नर्यं शुष्मं सं विव्यथुः ॥५॥

    पदार्थः

    (इन्द्रासोमा) वायुविद्युद्वद्वर्त्तमानौ (युवम्) युवाम् (अङ्ग) मित्र (तरुत्रम्) दुःखात्तारकम् (अपत्यसाचम्) यदपत्ये सचति व्याप्नोति तत् (श्रुत्यम्) श्रुतिषु श्रवणेषु साधुः (रराथे) रातम् (युवम्) (शुष्मम्) बलम् (नर्यम्) नृषु साधुः (चर्षणिभ्यः) मनुष्येभ्यः (सम्) (विव्यथुः) सन्तनुतं वेष्टयतम् (पृतनाषाहम्) यः पृतनाः सेनाः सहते तम् (उग्रा) उग्रौ तेजस्विनौ ॥५॥

    भावार्थः

    हे अध्यापकोपदेशका ! भवन्तो वायुविद्युद्वत्सर्वत्रानुषङ्गिनस्सन्त उत्तमान्यपत्यान्युत्पाद्य मनुष्यहितकरं शरीरात्मबलं जनयन्तु येन शत्रुसेनां सोढुं शक्नुयुरिति ॥५॥ अत्रेन्द्रसोमाध्यापकोपदेशककृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्विसप्ततितमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे किसके तुल्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अङ्ग) हे मित्र अध्यापक और उपदेशक ! (युवम्) तुम दोनों (इन्द्रासोमा) वायु और बिजुली के समान वर्त्तमान (तरुत्रम्) दुःख से तारने और (अपत्यसाचम्) सन्तान के बीच व्याप्त होनेवाले (श्रुत्यम्) श्रवणों में उत्तम ज्ञान को (रराथे) देओ और (युवम्) तुम दोनों (चर्षणिभ्यः) मनुष्यों के लिये (उग्रा) तेजस्वी होते हुए (पृतनाषाहम्) सेनाओं को सहनेवाले (नर्यम्) मनुष्यों में उत्तम (शुष्मम्) बल को (सम्, विव्यथुः) अच्छे प्रकार युक्त करो ॥५॥

    भावार्थ

    हे अध्यापक वा उपदेशको ! आप लोग पवन और बिजुली के समान सर्वत्र अनुकूलता से सङ्गवाले होते हुए उत्तम सन्तानों को उत्पन्न कर मनुष्यों के हित करनेवाले शरीर और आत्मा के बल को उत्पन्न करें, जिससे शत्रुओं की सेना को सह सकें ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, सोम, अध्यापक और उपदेशकों के काम का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बहत्तरवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    धनादि उपार्जन करें ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्रासोमा ) ऐश्वर्ययुक्त सूर्यवत् तेजस्विन् ! एवं सोम्य गुणयुक्त चन्द्रवत् सुन्दर युगल स्त्री पुरुष जनो ! ( युवम् ) आप दोनों ( तरुत्रम् ) पार उतारने वाले (अपत्य-साचं ) पुत्रादि सन्तान युक्त, ( श्रुत्यं ) श्रवण करने योग्य धन को ( रराथे ) प्रदान करो। आप दोनों ( उग्रा ) बलवान् होकर ( चर्षणिभ्यः ) मनुष्यों के हितार्थ (नर्यं ) नायकोचित (पृतना-षाहम् ) सैन्यों, वा संग्रामों को भी जीतने वाले ( शुष्मं ) बल वा बलवान् पुत्र को ( सं विव्यथुः ) सन्तान रूप से उत्पन्न करो । इति षोडशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रासोमौ देवते ॥ छन्दः - १ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप् । ३ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    धन+बल

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्रासोमा) = बल व सौम्यता के दिव्य भावो! (युवम्) = आप दोनों अंग-शीघ्र ही उस धन को (रराथे) = हमारे लिये देते हो, जो (तरुत्रम्) = आपत्तियों से तरानेवाला है, विषय वासनाओं में न फँसानेवाला है। (अपत्यसाचम्) = उत्तम सन्तान से युक्त है तथा (श्रुत्यम्) = श्रवणीय है, हमें यशस्वी बनानेवाला है। [२] हे (उग्रा) = तेजस्वी इन्द्र और सोम ! (युवम्) = आप (चर्षणिभ्यः) = श्रमशील मनुष्यों के लिये (नर्यम्) = नरहितकारी (पृतनाषाहम्) = शत्रु-सैन्यों के अभिभावुक (शुष्मम्) = बल को (संविव्यथुः) = परिवेष्टित करते हो, ऐसे बल से उन्हें आच्छादित करते हो। इस बल से युक्त होकर वे सब शत्रुओं को जीतनेवाले बनते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- बल व सौम्यता के दिव्य भाव हमारे लिये उस धन को देते हैं जो आपत्तियों से तरानेवाला, उत्तम सन्तान से युक्त व हमें यशस्वी बनानेवाला है। ये हमें उस बल को देते हैं जो नरहितकारी व शत्रुशैन्य का पराजय करनेवाला है। अगले सूक्त का देवता 'बृहस्पति' है -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे अध्यापक, उपदेशकांनो ! तुम्ही वायू व विद्युतप्रमाणे सर्वत्र अनुकूल संगती करून उत्तम संताने उत्पन्न करा व मानवाचे कल्याण करणाऱ्या शरीर व आत्मा यांच्यात बल उत्पन्न करा. ज्यामुळे ते शत्रूबरोबर दोन हात करू शकतील. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra and Soma, lords of energy and life’s vitality, both dear as breath of life and bright as sun and moon, give us the light of knowledge worthy of remembrance that may save us from want and suffering across the present and future generations of our children. Interweave for all people strength and power worthy of leading heroes with which we may face and win all our battles of life against the adversaries of life and human society.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should they (teachers and preachers) do and like whom-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O dear teachers and preachers ! like the air and electricity, give the knowledge to all that takes them away from misery, which pervades children and is very good to bear. Being full of splendor give that strength which is beneficial and fierce to good men and which is victorious over enemies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers! going every where or connected with all like the air and electricity, give birth to good children and generate physical and spiritual strength that is beneficial to all men, so that they may be able to overcome the armies of the enemies.

    Foot Notes

    (तरुतम्) दुःखात्तारकम् । तु-प्लवनसम्तरणयोः (भ्वा.) अत सन्तरणार्थ: । = That which takes away or removes all misery. (चर्षणिभ्यः) मनुष्येभ्यः । चर्षणाय: इति मनुष्यनाम (NG 2, 3 ) = For men.

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