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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 75/ मन्त्र 19
    ऋषिः - पायुर्भारद्वाजः देवता - लिङ्गोक्ता सङ्ग्रामाशिषः, देवा ब्रह्म च छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यो नः॒ स्वो अर॑णो॒ यश्च॒ निष्ट्यो॒ जिघां॑सति। दे॒वास्तं सर्वे॑ धूर्वन्तु॒ ब्रह्म॒ वर्म॒ ममान्त॑रम् ॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । नः॒ । स्वः । अर॑णः । यः । च॒ । निष्ट्यः॑ । जिघां॑सति । दे॒वाः । तम् । सर्वे॑ । धू॒र्व॒न्तु॒ । ब्रह्म॑ । वर्म॑ । मम॑ । अन्त॑रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो नः स्वो अरणो यश्च निष्ट्यो जिघांसति। देवास्तं सर्वे धूर्वन्तु ब्रह्म वर्म ममान्तरम् ॥१९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। नः। स्वः। अरणः। यः। च। निष्ट्यः। जिघांसति। देवाः। तम्। सर्वे। धूर्वन्तु। ब्रह्म। वर्म। मम। अन्तरम् ॥१९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 75; मन्त्र » 19
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सेनाध्यक्षाः संग्रामे किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे सेनापते ! यो नः स्वोऽरणो यश्च निष्ट्यः स्वकीयं सैन्यं जिघांसति तं सर्वे देवा धूर्वन्तु ममान्तरं ब्रह्म वर्म्मेव रक्षकं भवतु ॥१९॥

    पदार्थः

    (यः) (नः) अस्माकम् (स्वः) स्वकीयः (अरणः) सङ्ग्रामरहितो यथावत्सङ्ग्रामं न करोति (यः) (च) (निष्ट्यः) शब्देन धर्षितुं योग्यो दूरस्थः सन् (जिघांसति) हन्तुमिच्छति (देवाः) विद्वांसः (तम्) (सर्वे) (धूर्वन्तु) हिंसन्तु (ब्रह्म) सर्वव्यापकं चेतनम् (वर्म) वर्म्मेव रक्षकम् (मम) (अन्तरम्) यदन्ते समीपे रमते तत् ॥१९॥

    भावार्थः

    सेनापतेर्ये स्वभृत्या उत्साहेन न युध्येयुर्ये च स्वभृत्यान् जिघांसन्ति तान् सर्वान् विद्वांसोऽध्यक्षाश्च सद्यो घ्नन्तु तथा युद्धसमये सर्वे वीराः परमेश्वरमेव स्वरक्षकं विजानन्त्विति ॥१९॥ अत्र वर्मादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य्याणां परमविदुषां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्यभाषाविभूषिते सुप्रमाणयुक्त ऋग्वेदभाष्ये षष्ठे मण्डले षष्ठोऽनुवाकः पञ्चसप्ततितमं सूक्तं षष्ठं मण्डलं च पञ्चमाष्टके प्रथमेऽध्याये द्वाविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर सेनाध्यक्ष सङ्ग्राम में क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे सेनापति ! (यः) जो (नः) हमारे (स्वः) अपना (अरणः) सङ्ग्राम रहित यथावत् सङ्ग्राम नहीं करता (यः, च) और जो (निष्ट्यः) शब्द से ढिठाई कराने योग्य दूरस्थ होते हुए तथा अपनी सेना को (जिघांसति) मारने की इच्छा करता है (तम्) उसको (सर्वे) सब (देवाः) विद्वान् जन (धूर्वन्तु) मारें तथा (मम) मेरा (अन्तरम्) समीप में रमता हुआ (ब्रह्म) सर्वव्यापक चेतन (वर्म) कवच के समान रक्षा करनेवाला हो ॥१९॥

    भावार्थ

    सेनापति के जो अपने भृत्य उत्साह से युद्ध न करें और जो अपने नौकरों के मारने की इच्छा करें, उन सब को विद्वान् और अधीश शीघ्र मारें तथा युद्ध के समय सब वीर परमेश्वर ही को अपना रक्षा करनेवाला जानें ॥१९॥ इस सूक्त में वर्म अर्थात् कवच बख्तर आदि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह श्रीमान् परमहंसपरिव्राजकाचार्य्य परमविद्वान् श्रीमद्विरजानन्दसरस्वती स्वामीजी के शिष्य श्रीमान् दयानन्दसरस्वतीस्वामी जी के बनाये हुए संस्कृत और आर्यभाषा से सुभूषित अच्छे-अच्छे प्रमाणों से युक्त, ऋग्वेदभाष्य के छठे मण्डल में छठा अनुवाक और पचहत्तरवाँ सूक्त और छठा मण्डल भी तथा पञ्चमाष्टक के प्रथमाध्याय में बाईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    वीर का कवच धारण ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( नः ) हमारा ( स्वः ) अपना ( अरणः ) विना रण वा संग्राम के ही, विनायुद्ध के ही है, जिससे कोई हमारा झगड़ा भी नहीं, या जो ( अरणः ) हमें अच्छा या प्रिय नहीं लगता, ( यः च ) और जो ( नि-स्त्यः ) छिपा या दूर रह कर भी ( नः ) हमें ( जिघांसति ) मारना चाहता है ( तं ) उस शत्रु पुरुष को ( सर्वे ) समस्त ( देवाः ) युद्धकुशल विजयेच्छु पुरुष ( धूर्वन्तु ) विनाश करें । ( मम ) मेरा ( अन्तरं ) समीप, अति निकटतम ( वर्म) कवच ( ब्रह्म ) बहुत बड़ा, महान् चेतन ही है । इति द्वाविंशो वर्गः ॥ इति षष्ठोऽनुवाकः ॥ इति षष्ठं मण्डलं समाप्तम् ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पायुर्भारद्वाज ऋषिः । देवताः - १ वर्म । १ धनुः । ३ ज्या । ४ आत्नीं । ५ इषुधिः । ६ सारथिः । ६ रश्मयः । ७ अश्वाः । ८ रथः । रथगोपाः । १० लिङ्गोक्ताः । ११, १२, १५, १६ इषवः । १३ प्रतोद । १४ हस्तघ्न: । १७-१९ लिङ्गोक्ता सङ्ग्रामाशिषः ( १७ युद्धभूमिर्ब्रह्मणस्पतिरादितिश्च । १८ कवचसोमवरुणाः । १९ देवाः । ब्रह्म च ) ॥ छन्दः–१, ३, निचृत्त्रिष्टुप् ॥ २, ४, ५, ७, ८, ९, ११, १४, १८ त्रिष्टुप् । ६ जगती । १० विराड् जगती । १२, १९ विराडनुष्टुप् । १५ निचृदनुष्टुप् । १६ अनुष्टुप् । १३ स्वराडुष्णिक् । १७ पंक्तिः ।। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    ब्रह्म वर्म मम अन्तरम्

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो (स्वः) = अपना, कोई रिश्तेदार, बन्धु-बान्धव अथवा (अरण:) = [अरममाण] हमारे साथ न प्रीतिवाला कोई पराया व्यक्ति (यः च) = और जो (निष्ट्य:) = तिरोभूत-दूरे स्थित पुरुष (नः) = हमें (जिघांसति) = मारना चाहता है। (तम्) = उसको (सर्वे देवा:) = सब देव (धूर्वन्तु) = हिंसित करें। जल, वायु आदि देवों की प्रतिकूलता से वह विनष्ट हो जाये । अथवा हमारे दिव्य भाव उसकी पापवृत्ति को समाप्त करनेवाले हों। [२] (ब्रह्म) = ज्ञान अथवा प्रभु (मम) = मेरे (अन्तरं वर्म) = अन्दर के कवच हों। इस अन्तः कवच से सुरक्षित हुआ मैं हिंसित होऊँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हृदयस्थ प्रभु व ज्ञान को ही हम अपना अन्दर का कवच बनायें और हिंसित न सर्वे हों।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे उत्साहाने युद्ध करीत नाहीत व आपल्या नोकरांना मारण्याची इच्छा बळगतात त्या सर्वांना (सेनापतीने) विद्वानांनी व राजाने शीघ्रतेने मारावे व युद्धाच्या वेळी सर्व वीरांनी परमेश्वरालाच आपला रक्षक मानवे. ॥ १९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Any one, whether our own or a stranger far away non-fighting, or far off and low, that hurts and violates us deserves that the best and enlightened of the nation punish him to nullity. For me, the Lord Almighty and the divine knowledge and awareness within me is my best armour for protection.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the commanders do in the battlefield—is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Commander of the army! who-so- ever would try to kill our army, whether he be a stranger or one of us, who does not fight properly or zealously, may all enlightened persons discomfit him. May God be my closest Armor or Defense.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The chiefs should slay, those servants of the Commander of the army, who do not fight well or desire to kill their own servants. At the time of the battle, all brave persons should know God to be their Protector.

    Translator's Notes

    Here ends Sixth Mandala of Rishi Dayanand Saraswati's Commentary of the Rigveda Samhita translated by Swami Dharamananda Saraswati and edited by Pt. Brahm Dutt Snatak and Surendra Kumar Hindi.

    Foot Notes

    (अरणः) सङ्ग्रामरहितो यथावतग्राम न करोति । = He who does not fights well. (निष्ट्यः) शब्देन धीवतु योग्यो पूरस्थः सन्। = A stranger who lives at a distant Places (वर्म) वम्र्मेव रक्षकम् = Protector like the armor.

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