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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 100/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विष्णुः छन्दः - आर्षीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वि च॑क्रमे पृथि॒वीमे॒ष ए॒तां क्षेत्रा॑य॒ विष्णु॒र्मनु॑षे दश॒स्यन् । ध्रु॒वासो॑ अस्य की॒रयो॒ जना॑स उरुक्षि॒तिं सु॒जनि॑मा चकार ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । च॒क्र॒मे॒ । पृ॒थि॒वीम् । ए॒षः । ए॒ताम् । क्षेत्रा॑य । विष्णुः॑ । मनु॑षे । द॒श॒स्यन् । ध्रु॒वासः॑ । अ॒स्य॒ । की॒रयः॑ । जना॑सः । उ॒रु॒ऽक्षि॒तिम् । सु॒ऽजनि॑मा । च॒का॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि चक्रमे पृथिवीमेष एतां क्षेत्राय विष्णुर्मनुषे दशस्यन् । ध्रुवासो अस्य कीरयो जनास उरुक्षितिं सुजनिमा चकार ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । चक्रमे । पृथिवीम् । एषः । एताम् । क्षेत्राय । विष्णुः । मनुषे । दशस्यन् । ध्रुवासः । अस्य । कीरयः । जनासः । उरुऽक्षितिम् । सुऽजनिमा । चकार ॥ ७.१००.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 100; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरः स्वयमेव विक्रमिरची समानार्थत्वेन कथयति।

    पदार्थः

    (विष्णुः) व्यापक ईश्वरः (मनुषे, क्षेत्राय, दशस्यन्) मनुष्याय क्षेत्रं दित्सन् (पृथिवीम्, एताम्, विचक्रमे) इमां भुवं कृतवान्, यतः (अस्य) अस्य परमात्मनः (कीरयः) स्तोतारः (जनासः) भक्ताः (ध्रुवासः) दृढा अभवन् यतः (उरुक्षितिम्) विस्तृतां पृथिवीं (सुजनिमा) सर्वाङ्गशोभनां (चकार) कृतवान् ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ईश्वर स्वयं कथन करते हैं कि विचक्रमे के अर्थ निर्म्माण अर्थात् रचने के हैं।

    पदार्थ

    (विष्णुः) व्यापक पमेश्वर ने (मनुषे) मनुष्य के (क्षेत्राय) अभ्युदय (दशस्यन्) देने के लिये (पृथिवीम्,एतां) इस पृथिवी को (विचक्रमे) रचा, जिससे (अस्य) इस परमात्मा के कीर्तन करनेवाले (जनासः) भक्त लोग (धुवासः) दृढ़ हो गए, क्योंकि (उरुक्षितिं) इस विस्तृत क्षेत्ररूप पृथिवी को (सुजनिमा) सुन्दर प्रादुर्भाववाले ब्रह्माण्डपति परमात्मा ने (चकार) रचा है ॥४॥

    भावार्थ

    जिस पृथिवी में (सुजनिमा) सुन्दर आविर्भाववाले प्राणिजात हैं, उनका कर्त्ता जो परमात्मा है, उसने इस सम्पूर्ण विश्व को रचा है। विष्णु के अर्थ यहाँ “यज्ञो वै विष्णुः” ॥ श. प.॥ “तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे” ॥ यजु०  ३१.७॥ इत्यादि प्रमाणों से व्यापक परमात्मा के हैं। यही बात विष्णुसूक्तों में सर्वत्र पायी जाती है। इस भाव को वेद ने अन्यत्र भी वर्णन किया है कि “द्यावाभूमी जनयन्देव एकः” ॥ यजु०॥ एक परमात्मा ने सब लोक-लोकान्तरों को रचा है ॥४॥

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    विषय

    विष्णु, व्यापक प्रभु की स्तुति-उपासना।

    भावार्थ

    ( एषः ) वह ( विष्णुः ) विशेष रूप से संसार को प्रबन्ध में बांधने और उसमें व्यापने हारा परमेश्वर ( एतां पृथिवीम् ) इस पृथिवी को भी ( मनुषे दशस्यन् ) मनुष्यों को दान देता हुआ ( क्षेत्राय ) निवास करने के लिये, वा क्षेत्र, निवास योग्य देह धारण करने के लिये ( वि चक्रमे ) विविध प्रकार का बनाता है । ( अस्य ) इसकी ( कीरयः ) स्तुति करने वाले ( जनासः ) जन्तु, आत्मगण ( ध्रुवासः ) सदा स्थिर, नित्य होते हैं। उनके लिये ही वह पृथ्वी का ( उरु-क्षितिम् ) बहुत मनुष्यों से बसने योग्य और ( सुजनिम् ) उत्तम रीति से जन्तुओं और अन्नादि ओषधियों को उत्पन्न करने में समर्थ ( आ चकार ) बनाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ विष्णुर्देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४ आर्षी त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    बसने योग्य भूमि का स्रष्टा

    पदार्थ

    पदार्थ - (एषः) = वह (विष्णुः) = व्यापक परमेश्वर (एतां पृथिवीम्) = इस पृथिवी को (मनुषे दशस्यन्) = मनुष्यों को दान देता हुआ (क्षेत्राय) = निवास करने के लिये (वि चक्रमे) = विविध प्रकार का बनाता है। (अस्य) = इसकी (कीरयः) = स्तुति करनेवाले (जनास:) = जन्तु, आत्मगण (ध्रुवासः) = नित्य हैं। वह पृथ्वी को (उरु क्षितिम्) = बहुत जीवों से बसने योग्य और (सुजनिम्) = उत्तम रीति से जन्तुओं, अन्नादि, वनस्पतियों को उत्पादक आ चकार बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- उस व्यापक परमेश्वर ने इस भूमि को बसने के योग्य बनाकर जीवों के लिए दान दी है। फिर सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्न, औषधियाँ, वनस्पतियाँ तथा जीवजन्तुओं को भी बनाता है। ऐसे दानी प्रभु की स्तुति किया करो।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Vishnu, this lord omnipresent, with the desire to give humanity a place of birth and a home for dwelling and sphere of action, made this wide earth and set it in motion. Poet celebrants of this lord, men with constant mind, celebrate the glorious manifested maker and sing that he it is that made the wide earth for their dwelling and place of action.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या पृथ्वीवर (सुजनिमा) सुंदर आविर्भाव असणारे प्राणी आहेत. त्यांचा कर्ता परमात्मा असून, त्याने संपूर्ण विश्व निर्माण केलेले आहे. विष्णूचा अर्थ येथे ‘यज्ञो वै विष्णु:’ ॥श.प. ॥ ‘तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋच: सामानि जज्ञिरे’ ॥ यजु. ३१।७॥ इत्यादी प्रमाणांनी व्यापक परमात्म्याचा आहे. हीच बाब विष्णू सूक्तात सर्वत्र पाहिली जाते. हाच भाव वेदाने इतरत्रही वर्णिलेला आहे. ‘द्यावा भूमि जनयन्देव एक:’ ॥यजु.॥ एका परमेश्वराने सर्व लोक लोकांतर निर्माण केलेले आहे. ॥४॥

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