ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 16/ मन्त्र 8
येषा॒मिळा॑ घृ॒तह॑स्ता दुरो॒ण आँ अपि॑ प्रा॒ता नि॒षीद॑ति। ताँस्त्रा॑यस्व सहस्य द्रु॒हो नि॒दो यच्छा॑ नः॒ शर्म॑ दीर्घ॒श्रुत् ॥८॥
स्वर सहित पद पाठयेषा॑म् । इळा॑ । घृ॒तऽह॑स्ता । दु॒रो॒णे । आ । अपि॑ । प्रा॒ता । नि॒ऽसीद॑ति । तान् । त्रा॒य॒स्व॒ । स॒ह॒स्य॒ । द्रु॒हः । नि॒दः । यच्छ॑ । नः॒ । शर्म॑ । दी॒र्घ॒ऽश्रुत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
येषामिळा घृतहस्ता दुरोण आँ अपि प्राता निषीदति। ताँस्त्रायस्व सहस्य द्रुहो निदो यच्छा नः शर्म दीर्घश्रुत् ॥८॥
स्वर रहित पद पाठयेषाम्। इळा। घृतऽहस्ता। दुरोणे। आ। अपि। प्राता। निऽसीदति। तान्। त्रायस्व। सहस्य। द्रुहः। निदः। यच्छ। नः। शर्म। दीर्घऽश्रुत् ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 16; मन्त्र » 8
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
राज्ञा के पालनीया दण्डनीयाश्च सन्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे सहस्य ! येषां दुरोणे घृतहस्ता प्रातेळा आ निषीदति ताँस्त्वं त्रायस्व दीर्घश्रुत्त्वं नः शर्म यच्छ ये द्रुहो निदः सन्ति तानप्यायच्छ ॥८॥
पदार्थः
(येषाम्) (इळा) प्रशंसनीया वाक् (घृतहस्ता) घृतं हस्ते गृह्यते यया सा (दुरोणे) गृहे (आ) (अपि) (प्राता) व्यापिका (निषीदति) (तान्) (त्रायस्व) (सहस्य) सहसा बलेन युक्त (द्रुहः) द्रोग्धॄन् (निदः) निन्दकान् (यच्छा) निगृह्ळीहि। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (शर्म) गृहम् (दीर्घश्रुत्) यो दीर्घं कालं शृणोति ॥८॥
भावार्थः
हे राजन् ! ये सत्यवाचो वेदविदः स्युस्तेभ्यो नित्यं सुखं प्रयच्छ ये च द्रोहादिदोषयुक्ता आप्तनिन्दकाः स्युस्तान् भृशं दण्डय ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
राजा को किनका पालन वा किनको दण्ड देना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सहस्य) बल से युक्त राजन् ! (येषाम्) जिन के (दुरोणे) घर में (घृतहस्ता) हाथ में घी लेनेवाली के तुल्य (प्राता) व्यापक (इळा) प्रशंसा योग्य वाणी (आ, निषीदति) अच्छे प्रकार निरन्तर स्थिर होती (तान्) उनकी आप (त्रायस्व) रक्षा कीजिये (दीर्घश्रुत्) दीर्घ काल तक सुननेवाले आप (नः) हमारे (शर्म) घर को (यच्छ) ग्रहण कीजिये जो (द्रुहः) द्रोही (निदः) निन्दक हैं, उनको (अपि) भी अच्छे प्रकार ग्रहण कीजिये ॥८॥
भावार्थ
हे राजन् ! जो सत्यवाणीवाले, वेदज्ञाता हों, उनको नित्य सुख दीजिये और जो द्रोहादि दोषयुक्त आप्तों के निन्दक हैं, उनको शीघ्र दण्ड दीजिये ॥८॥
विषय
उससे नाना प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
( येषां ) जिन पुरुषों के ( दुरोणे ) घर में ( इला ) पूज्य देवी, आदर सत्कार और शुभ कामना का पात्र होकर ( घृतहस्ता ) पूज्यों का आदर सत्कार करने के निमित्त जलपात्र हाथ में लिये (प्राता) पूर्ण पात्र होकर (अपि निषीदति) विराजती है, हे (सहस्य ) बलवन् ! तू ( तान् त्रायस्व ) उनकी रक्षा कर और (द्रहः ) द्रोही और (निदः) निन्दकों को ( आ अपि यच्छ ) निग्रह कर और तू ( दीर्घश्रुत् ) दीर्घ काल तक ज्ञान श्रवण करने हारा होकर (नः ) हमें ( शर्म यच्छ ) सुख प्रदान करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्द्रः - १ स्वराडनुष्टुप्। ५ निचृदनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्।। ११ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिग्बृहती। ३ निचृद् बृहती। ४, ९, १० बृहती। ६, ८, १२ निचृत्पंक्तिः।।
विषय
दीर्घश्रुत् शर्म
पदार्थ
[१] (येषाम्) = जिनके (दुरोणे) = गृह में (घृतहस्ता) = ज्ञानदीप्ति को हाथों में लिए हुए ये (इडा) = वाग्देवी (आनिषीदति) = आसीन होती है, वह वाग्देवी (अपि) = बहुत करके (प्राता) = पूर्णता को करनेवाली होती है। यह वाग्देवी उस घर के लोगों की कमियों को दूर करके उनके जीवन को बहुत करके पूर्ण बनानेवाली होती है। [२] हे (सहस्य) = शत्रुमर्षक बल के लिये हितकर अग्ने ! (तात्) = उन इडा युक्त गृहवालों को (द्रुहः) = द्रोह की वृत्ति से तथा (निदः) = निन्दनीय कर्मों से (त्रायस्व) = बचाइये। ज्ञान पवित्र करनेवाला तो होता ही है । हे प्रभो ! (नः) = हमारे लिये (दीर्घश्रुत्) = जिसमें अति दीर्घकाल तक ज्ञान का श्रवण चलता है, उस (शर्म) = गृह को (यच्छा) = दीजिए। वस्तुतः पवित्र गृह वही है जो ज्ञानचर्चा का आधार बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे गृहों में वाग्देवी का निवास हो। यह हमारे गृहों का पूरण करनेवाली हो । हमें द्रोह व निन्दनीय कर्मों से बचाये।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा! जे सत्यवचनी वेदज्ञाते असतील त्यांना सदैव सुखी कर व जे द्रोह इत्यादी दोषांनी युक्त, आप्त विद्वानांचे निंदक असतील त्यांना तात्काळ दंड दे ॥ ८ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Patient and potent lord ruler of light, strength and power, protect from jealousy and malignity those good people in whose home sweet and sacred speech and manners, like a gracious lady of generosity with sweetened hands perfumed with ghrta and holy water, reigns and resides and, O lord of wide reputation and long experience of the voice of divinity, give us the home abounding in peace and comfort, love and courtesy.
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