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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 17/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - आर्च्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    त्वामु॒ ते द॑धिरे हव्य॒वाहं॑ दे॒वासो॑ अग्न ऊ॒र्ज आ नपा॑तम् ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । ऊँ॒ इति॑ । ते । द॒धि॒रे॒ । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । दे॒वासः॑ । अ॒ग्ने॒ । ऊ॒र्जः । आ । नपा॑तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामु ते दधिरे हव्यवाहं देवासो अग्न ऊर्ज आ नपातम् ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम्। ऊँ इति। ते। दधिरे। हव्यऽवाहम्। देवासः। अग्ने। ऊर्जः। आ। नपातम् ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 17; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्यार्थिनः कमिव कं सेवेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! त ऊर्जो देवासो नपातं हव्यवाहमिव त्वामु आ दधिरे ॥६॥

    पदार्थः

    (त्वाम्) (उ) (ते) (दधिरे) दधतु (हव्यवाहम्) यो हव्यानि हुतानि द्रव्याणि वहति तद्वद्वर्त्तमानम् (देवासः) दिव्यस्वभावा विद्यार्थिनः (अग्ने) सकलविद्यया प्रकाशित (ऊर्जः) पराक्रमयुक्ताः (आ) (नपातम्) न विद्यते पातो यस्य तम् ॥६॥

    भावार्थः

    यथाऽग्निविद्या जना ऋत्विजोऽग्निं परिचरन्ति तथैव विद्यार्थिनोऽध्यापकं सेवेरन् ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्यार्थी किसके तुल्य किसका सेवन करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) समस्त विद्या से प्रकाशित (ते) आपके (ऊर्जः) पराक्रमयुक्त (देवासः) उत्तम स्वभाववाले विद्यार्थी जन (नपातम्) जिसका गिरना नहीं विद्यमान उस (हव्यवाहम्) होते हुए पदार्थों को पहुँचानेवाले अग्नि के समान (त्वाम्) (उ) तुझे ही (आ, दधिरे) अच्छे प्रकार धारण करें ॥६॥

    भावार्थ

    जैसे अग्निविद्या जाननेवाले ऋत्विज् अग्नि की सेवा करते हैं, वैसे ही विद्यार्थी जन अध्यापक की सेवा करें ॥६॥

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    विषय

    यज्ञाग्निवत् विद्वान् शासक के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) तेजस्विन् ( ते ) वे ( देवासः ) विद्वान् लोग ( ऊर्जः ) बल पराक्रम का नाश न होने देने वाले ( हव्यवाहं ) उत्तम वचनों, गुणों और पदार्थों के धारक ( त्वाम् उ ) तुझ को ही ( दधिरे ) पुष्ट करते हैं, सर्वस्व तुझे ही प्रदान करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४, ६, ७ आर्च्युष्णिक् । २ साम्नी त्रिष्टुप् । ५ साम्नी पंक्तिः । सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    दिव्यता व शक्ति रक्षण

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (हव्यवाहम्) = सब हव्य पदार्थों के प्राप्त करानेवाले (त्वाम् उ) = आपको ही ते (देवासः) = वे देववृत्ति के पुरुष (दधिरे) = धारण करते हैं। वस्तुतः आपको हृदयदेश में के धारण करने के द्वारा हृदय में सदा आपके स्मरण के द्वारा ही वे देव बनते हैं। [२] आप ही आ सब प्रकार से (ऊर्जः) = बल व प्राणशक्ति के (नपातम्) = न गिरने देनेवाले हैं। जहाँ प्रभु का वास है वहाँ वासना का विनाश होने से शक्ति का रक्षण होता है एवं प्रभु 'ऊर्जा नपात्' हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का हृदय में धारण करने से हमारी वृत्ति दिव्य बनती है - शक्ति का विनाश नहीं होता।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी अग्निविद्या जाणणारे ऋत्विज अग्नीची सेवा करतात तशीच विद्यार्थ्यांनी अध्यापकांची सेवा करावी. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, light and fire of life and humanity, all divinities of nature and humanity acknowledge, take over and advance you for their life’s fulfilment, you being the source of infallible hope, energy and karma and bearer as well as harbinger of the divine invitations to live.

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