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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    उ॒ग्रो ज॑ज्ञे वी॒र्या॑य स्व॒धावा॒ञ्चक्रि॒रपो॒ नर्यो॒ यत्क॑रि॒ष्यन्। जग्मि॒र्युवा॑ नृ॒षद॑न॒मवो॑भिस्त्रा॒ता न॒ इन्द्र॒ एन॑सो म॒हश्चि॑त् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒ग्रः । ज॒ज्ञे॒ । वी॒र्या॑य । स्व॒धाऽवा॑न् । चक्रिः॑ । अपः॑ । नर्यः॑ । यत् । क॒रि॒ष्यन् । जग्मिः॑ । युवा॑ । नृ॒ऽसद॑नम् । अवः॑ऽभिः । त्रा॒ता । नः॒ । इन्द्रः॑ । एन॑सः । म॒हः । चि॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उग्रो जज्ञे वीर्याय स्वधावाञ्चक्रिरपो नर्यो यत्करिष्यन्। जग्मिर्युवा नृषदनमवोभिस्त्राता न इन्द्र एनसो महश्चित् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उग्रः। जज्ञे। वीर्याय। स्वधाऽवान्। चक्रिः। अपः। नर्यः। यत्। करिष्यन्। जग्मिः। युवा। नृऽसदनम्। अवःऽभिः। त्राता। नः। इन्द्रः। एनसः। महः। चित् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कीदृशो राजा श्रेष्ठः स्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    यद्यो नर्यः स्वधावाञ्चकिरुग्रो युवा नृषदनं जग्मिरवोभिः पालनं करिष्यँस्त्राता सूर्योऽपश्चिदिवेन्द्रो वीर्याय जज्ञे मह एनसो नोऽस्मान् पृथग्रक्षति स एव राजा भवितुं योग्यः ॥१॥

    पदार्थः

    (उग्रः) तेजस्वी (जज्ञे) जायते (वीर्याय) पराक्रमाय (स्वधावान्) बहुधनधान्ययुक्तः (चक्रिः) कर्ता (अपः) जलानि (नर्यः) नृषु साधुः (यत्) यः (करिष्यन्) (जग्मिः) गन्ता (युवा) प्राप्तयौवनः (नृषदनम्) नृणां स्थानम् (अवोभिः) रक्षादिभिः (त्राता) रक्षकः (नः) अस्मानस्माकं वा (इन्द्रः) सूर्य इव राजा (एनसः) पापाचरणात् (महः) महतः (चित्) इव ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो मनुष्याणां हितकारी पितृवत्पालक उपदेशकवत्पापाचरणात् पृथक्कर्त्ता सभायां स्थित्वा न्यायकर्त्ता धनैश्वर्यपराक्रमांश्च सततं वर्धयति तमेव सर्वे मनुष्या राजानं मन्यन्ताम् ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पञ्चमाष्टक के तीसरे अध्याय तथा दश ऋचावाले बीसवें सूक्त का आरम्भ है, जिसके पहले मन्त्र में कैसा राजा श्रेष्ठ हो, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (यत्) जो (नर्यः) मनुष्यों में साधु उत्तम जन (स्वधावान्) बहुत धनधान्य से युक्त (चक्रिः) करनेवाला (उग्रः) तेजस्वी (युवा) जवान मनुष्य (नृषदनम्) मनुष्यों के स्थान को (जग्मिः) जानेवाला (अवोभिः) रक्षा आदि से पालना (करिष्यन्) करता हुआ (त्राता) रक्षा करनेवाला सूर्य जैसे (अपः) जलों को (चित्) वैसे (इन्द्रः) राजा (वीर्याय) पराक्रम के लिये (जज्ञे) उत्पन्न हो और (महः) महान् (एनसः) पापाचरण से (नः) हम लोगों को अलग रखता है, वही राजा होने के योग्य है ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो मनुष्यों का हितकारी पिता के समान पालने और उपदेश करनेवाले के समान पापाचरण से अलग रखनेवाला, सभा में स्थित होकर न्यायकर्ता तथा धन, ऐश्वर्य और पराक्रम को निरन्तर बढ़ाता है, उसी को सब मनुष्य राजा मानें ॥१॥

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    विषय

    उत्तम रक्षक के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( उग्रः ) तेजस्वी पुरुष ( स्वधावान् ) अन्न, आदि से सम्पन्न वा आत्मा को धारण पोषण करने के उपायों का स्वामी, होकर ( वीर्याय ) बल सम्पादन करने के लिये ( जज्ञे ) समर्थ होता है वह ( चक्रिः ) कर्म करने में कुशल ( अपः करिष्यन्) सूर्य जिस प्रकार वृष्टि जलों को उत्पन्न करना चाहता हुआ तपता है उसी प्रकार ( अपः करिष्यन् ) उत्तम कार्य करना चाहता हुआ ( नृ-सदनं जग्मिः ) नायक के विराजने योग्य, या उत्तम पुरुषों के सभा भवन आदि को प्राप्त होकर ( युवा ) बलवान् पुरुष ( महः चित् एनसः ) बड़े भारी पापाचरण से ( नः ) हमें ( अवोभिः ) नाना ज्ञानों और रक्षा साधनों द्वारा ( त्राता ) बचाने हारा हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। इन्द्रो देवता।। छन्दः— १ स्वराट् पंक्ति:। ७ भुरिक् पंक्तिः। २, ४, १० निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ६, ८, ९ त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्।।

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    विषय

    उग्र-स्वधावान्

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (उग्रः) = तेजस्वी होता हुआ वीर्याय जज्ञे शक्तिशाली कर्मों के लिये प्रादुर्भूत होता है। (स्वधावान्) = यह आत्मधारण शक्ति से युक्त होता है। (नर्यः) = नरहितकारी होता हुआ (यत् करिष्यन्) = जो करता है सो (अपः) = व्यापक कर्मों को ही (चक्रि:) = करनेवाला होता है इसके ये महान् कर्म अधिक से अधिक लोगों का हित करनेवाले ही होते हैं। [२] यह (युवा) = बुराइयों को अपने से दूर करनेवाला व अच्छाइयों को अपने से मिलानेवाला व्यक्ति अवोभिः =रक्षणों के हेतु से, वासनाओं से अपने को बचाने के हेतु से (नृषदनम्) = यज्ञगृहों को (जग्मिः) = जानेवाला होता है। उत्तम यज्ञों व सभाओं में सम्मिलित होता हुआ यह कभी भी वासनाओं का शिकार नहीं होता। इस की आराधना यही होती है कि (इन्द्रः) = वह शत्रुविद्रावक प्रभु (नः) = हमें (महः चित् एनसः) = महान् पाप से भी (त्राता) = बचानेवाला हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम तेजस्वी बनकर शक्तिशाली कर्मों को करें। आत्मधारणशक्तिवाले होकर हम नरहितकारी कर्मों को ही करनेवाले हों, यज्ञ-स्थलों व सभाओं में सम्मिलित होते हुए हम अपने को वासनाओं का शिकार न होने दें। यही आराधना करें कि प्रभु हमें महान् पाप से भी बचायें।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात राजा, सूर्य, बलिष्ठ, सेनापती, सेवक, अध्यापक, अध्येता, मित्र, दाता व रचनाकारांचे कृत्य व गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो माणसांचा हितकर्ता, पित्याप्रमाणे पालक व उपदेशकांप्रमाणे पापाचरणापासून पृथक करणारा असतो. तसेच सभेत स्थित असून न्यायकर्ता असतो. धन, ऐश्वर्य, पराकम सतत वाढवितो. त्यालाच सर्व माणसांनी राजा मानावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, the ruling soul, a great performer blest with innate powers, rises bright and blazing to do great heroic deeds when he undertakes the manly acts he plans to do. Youthful and bold, he goes to the house of the people with his powers of protection as a saviour of us all from great sin and transgression.

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