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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 26/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒क्थउ॑क्थे॒ सोम॒ इन्द्रं॑ ममाद नी॒थेनी॑थे म॒घवा॑नं सु॒तासः॑। यदीं॑ स॒बाधः॑ पि॒तरं॒ न पु॒त्राः स॑मा॒नद॑क्षा॒ अव॑से॒ हव॑न्ते ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उक्थेऽउ॑क्थे । सोमः॑ । इन्द्र॑म् । म॒मा॒द॒ । नी॒थेऽनी॑थे । म॒घऽवा॑नम् । सु॒तासः॑ । यत् । ई॒म् । स॒ऽबाधः॑ । पि॒तर॑म् । न । पु॒त्राः । स॒मा॒नऽद॑क्षाः । अव॑से । हव॑न्ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्थउक्थे सोम इन्द्रं ममाद नीथेनीथे मघवानं सुतासः। यदीं सबाधः पितरं न पुत्राः समानदक्षा अवसे हवन्ते ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उक्थेऽउक्थे। सोमः। इन्द्रम्। ममाद। नीथेऽनीथे। मघऽवानम्। सुतासः। यत्। ईम्। सऽबाधः। पितरम्। न। पुत्राः। समानऽदक्षाः। अवसे। हवन्ते ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 26; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः किंवत्कः किं करोतीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यद्य ईं सबाधः पितरं समानदक्षाः पुत्रा नावसे सुतासो मघवानं हवन्ते यथा सोम उक्थउक्थे नीथेनीथ इन्द्रं ममाद तैस्तथा चरत ॥२॥

    पदार्थः

    (उक्थेउक्थे) धर्म्य उपदेष्टव्ये व्यवहारे व्यवहारे (सोमः) महौषधिरस ऐश्वर्यं वा (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (ममाद) हर्षयति (नीथेनीथे) प्रापणीये प्रापणीये सत्ये व्यवहारे (मघवानम्) धर्म्येण बहुजातधनम् (सुतासः) विद्यैश्वर्ये प्रादुर्भूताः (यत्) ये (ईम्) सर्वतः (सबाधः) बाधसा सह वर्त्तमानम् (पितरम्) जनकम् (न) इव (पुत्राः) (समानदक्षाः) स्पर्धन्त आददति वा ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये विद्यार्थिनो यथा सत्पुत्राः क्लेशयुक्तौ मातापितरौ प्रीत्या सेवन्ते तथा गुरुं सेवन्ते यथा विद्याविनयपुरुषार्थजातमैश्वर्यं कर्त्तारमानन्दयति तथा यूयं वर्त्तध्वम् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर किसके तुल्य कौन क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! (यत्) जो (ईम्) सब ओर से (सबाधः) पीड़ा के साथ वर्त्तमान (पितरम्) पिता को (समानदक्षाः) समान बल, विद्या और चतुरता जिनके विद्यमान वे (पुत्राः) पुत्र जन (न) जैसे (अवसे) रक्षा आदि के लिये (सुतासः) विद्या और ऐश्वर्य में प्रकट हुए (मघवानम्) धर्म कर्म बहुत धन जिसके उसको (हवन्ते) स्पर्द्धा करते वा ग्रहण करते हैं और जैसे (सोमः) बड़ी-बड़ी ओषधियों का रस वा ऐश्वर्य्य (उक्थे-उक्थे) धर्मयुक्त उपदेश करने योग्य व्यवहार तथा (नीथे-नीथे) पहुँचाने-पहुँचाने योग्य सत्य व्यवहार में (इन्द्रम्) जीवात्मा को (ममाद) हर्षित करता है, उनके साथ वैसा ही आचरण करो ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो विद्यार्थी जन जैसे अच्छे पुत्र क्लेशयुक्त माता पिता को प्रीति से सेवते हैं, वैसे गुरु की सेवा करते हैं वा जैसे विद्या, विनय और पुरुषार्थों से उत्पन्न हुआ ऐश्वर्य उत्पन्न करनेवाले को आनन्दित करता है, वैसे तुम लोग वर्तो ॥२॥

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    विषय

    सोम, प्रजाजन, ऐश्वर्य, ओषधि रस आदि, इन्द्र राजा, आत्मा, गुरु आदि ।

    भावार्थ

    (उक्थे-उक्थे) प्रत्येक उत्तम, उपदेश करने योग्य व्यवहार ज्ञान में ( सोमः ) शिष्य ( इन्द्रं ममाद ) उत्तम आचार्य को हर्ष देने वाला हो, प्रत्येक उत्तम ज्ञान के लिये शिष्य गुरु को प्रसन्न करे । ( नीथे-नीथे ) उत्तम उद्देश्य की ओर जाने वाले प्रत्येक मार्ग वा सत्य व्यवहार, उत्तम २ वचन में ( सुतासः ) उत्पन्न शिष्य वा पुत्रजन भी ( मघवानं ) दान योग्य ज्ञान और धन के स्वामी गुरु वा पिता को प्रसन्न करें । इसी प्रकार ( सोमः ) ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र पुत्रवत् राजा को प्रसन्न करे । प्रत्येक न्याययुक्त व्यवहारों में वे प्रजाजन ऐश्वर्यवान् राजा को हृष्ट, संतुष्ट रक्खें । ( समानदक्षाः पुत्राः सबाधः पितरं न ) समान बल से युक्त पुत्र जिस प्रकार पीड़ा युक्त पिता को ( अवसे हवन्ते ) उसकी रक्षा के लिये प्राप्त होते हैं वा ( सबाधः पुत्राः पितरं अवसे हवन्ते ) पीड़ायुक्त पुत्र अपनी रक्षा के लिये पिता को पुकारते हैं उसी प्रकार ( यत् ईम् ) जब भी प्रजाजन (सबाधः) पीड़ा से पीड़ित हों तब वे भी पुत्रवत् ही ( पितरं ) अपने पालक राजा को ( समान-दक्षाः ) समान बलशाली होकर ( अवसे हवन्ते ) अपनी रक्षा के लिये पुकारें । इसी प्रकार जब राजा (सबाधः) पीड़ा युक्त, संकट में हो तो वे ( अवसे ) उसकी रक्षा करने के लिये उसे ( हवन्त ) अपनावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ४ त्रिष्टुप् । ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    राजा-प्रजा परस्पर प्रेम से रहें

    पदार्थ

    पदार्थ - (उक्थे-उक्थे) = प्रत्येक उत्तम, उपदेश योग्य व्यवहार - ज्ञान में (सोमः) = शिष्य (इन्द्रं ममाद) = आचार्य को हर्ष देनेवाला हो । (नीथे-नीथे) उत्तम उद्देश्य की ओर जानेवाले प्रत्येक मार्ग में (सुतासः) = शिष्य वा पुत्र भी (मघवानं दान) = योग्य ज्ञान और धन के स्वामी गुरु वा पिता को प्रसन्न करें। ऐसे ही (सोमः) = ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र राजा को प्रसन्न करे। (समानदक्षाः पुत्राः सबाधः पितरं न) = समान बल से युक्त पुत्र जैसे पीड़ायुक्त पिता को (अवसे हवन्ते) = उसकी रक्षार्थ प्राप्त होते हैं, वैसे ही (यत् ईम्) = जब भी प्रजाजन (सबाधः) = पीड़ित हों तब वे भी पुत्रवत् ही (पितरं) = राजा को (समान-दक्षा:) = समान बलशाली होकर (अवसे हवन्ते) = रक्षा के लिये पुकारें।

    भावार्थ

    भावार्थ- जैसे पुत्र पर कष्ट आने पर पिता उसकी रक्षा करता और पिता के कष्टमय होने पर पुत्र पिता की सेवा कर उसके कष्ट का निवारण करता है। उसी प्रकार प्रजा पर कष्ट आवे तो राजा प्रजा की रक्षा करे तथा राजा पर कष्ट आने पर प्रजा भी राजा का सहयोग करे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा, वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे चांगले पुत्र त्रस्त असणाऱ्या माता-पित्याशी प्रेमाने वागतात तसे विद्यार्थी गुरूची सेवा करतात. जसे निर्माणकर्त्याला विद्या विनय व पुरुषार्थाने उत्पन्न झालेले ऐश्वर्य आनंद देते तसे तुम्हीही वागा. ॥ २ ॥ े

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    With every chant of song divine, the soma pleases Indra. At every stage of adoration, at every step of the song, the draughts of soma exhilarate the lord. For this reason, surely, eager supplicants, equally proficient, invoke and offer homage to the lord for protection and progress like children approaching parents with love to have their blessings.

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