ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 28/ मन्त्र 5
वो॒चेमेदिन्द्रं॑ म॒घवा॑नमेनं म॒हो रा॒यो राध॑सो॒ यद्दद॑न्नः। यो अर्च॑तो॒ ब्रह्म॑कृति॒मवि॑ष्ठो यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठवो॒चेम॑ । इत् । इन्द्र॑म् । म॒घऽवा॑नम् । ए॒न॒म् । म॒हः । र॒यः । राध॑सः । यत् । दद॑त् । नः॒ । यः । अर्च॑तः । ब्रह्म॑ऽकृतिम् । अवि॑ष्ठः । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वोचेमेदिन्द्रं मघवानमेनं महो रायो राधसो यद्ददन्नः। यो अर्चतो ब्रह्मकृतिमविष्ठो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठवोचेम। इत्। इन्द्रम्। मघऽवानम्। एनम्। महः। रायः। राधसः। यत्। ददत्। नः। यः। अर्चतः। ब्रह्मऽकृतिम्। अविष्ठः। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 28; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः किमुपदिशेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! योऽर्चतो नो महो राधसो रायोऽविष्ठो ब्रह्मकृतिमेनं मघवानमिन्द्रं यद्ददत्तमिद्वयं वोचेम यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात ॥५॥
पदार्थः
(वोचेम) उपदिशेम (इत्) (इन्द्रम्) दुष्टशत्रुविदारकम् (मघवानम्) परमैश्वर्यवन्तम् (एनम्) (महः) महतः (रायः) धनस्य (राधसः) समृद्धस्य (यत्) (ददत्) दद्यात् (नः) अस्मान् (यः) (अर्चतः) सत्कुर्वतः (ब्रह्मकृतिम्) ब्रह्मणो धनस्य कृतिः क्रिया यस्य तम् (अविष्ठः) अतिशयेन अविता (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) (सदा) (नः) ॥५॥
भावार्थः
हे विद्वांसो ! यथा वयं राजादीन् मनुष्यान् प्रति सत्यं सर्वदोपदिशेम तथा यूयमप्युपदिशतैवं परस्परेषां रक्षां विधायोन्नतिर्विधेयेति ॥५॥ अत्रेन्द्रविद्वद्राजगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्तेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टाविंशतितमं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् जन क्या उपदेश करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! (यः) जो (अर्चतः) सत्कार करते हुए (नः) हम लोगों के (महः) महान् (राधसः) समृद्ध (रायः) धन सम्बन्ध के (अविष्ठः) प्राप्त होनेवाला (ब्रह्मकृतिम्) जिसके धन की क्रिया हैं (एनम्) इस (मघवानम्) परमैश्वर्यवान् (इन्द्रम्) दुष्ट शत्रुओं के विदीर्ण करनेवाले को (यत्) जो (ददत्) देवें (इत्) उसी को हम लोग (वोचेम) कहें (यूयम्) तुम लोग (स्वस्तिभिः) सुखों से (नः) हमारी (सदा) सर्वदैव (पात) रक्षा करो ॥५॥
भावार्थ
हे विद्वानो ! जैसे हम लोग राजा आदि मनुष्यों के प्रति सत्य का सर्वदा उपदेश करें, वैसे तुम भी उपदेश करो, ऐसे परस्पर की रक्षा कर उन्नति विधान करनी चाहिये ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान्, राजगुणों और कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह अट्ठाईसवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
वही उत्तम रक्षक 'इन्द्र' पद योग्य है ।
भावार्थ
( यत् ) जो (महः रायः) बड़े २ ऐश्वर्य (नः ददत् ) हमें प्रदान करता है । ( एनं मघवानम् ) उस ऐश्वर्यो के स्वामी को हम (इन्द्रम् इत् वोचेम ) ऐश्वर्यवान्, 'इन्द्र' ही नाम से पुकारें । और ( यः ) जो ( अर्चतः ) अपने सत्कार करने वालों को ( ब्रह्म-कृतिम् ) धनैश्वर्य के उत्पन्न करने के प्रयत्न वा साधन देता वही (अविष्ठः) सबसे उत्तम रक्षक है । हे विद्वान् पुरुषो ! ( यूयं ) आप लोग ( नः सदा स्वस्तिभिः पात ) हमें सदा उत्तम कल्याणकारी साधनों से पालन करो । इति द्वादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ इन्द्रा देवता ॥ छन्दः – १, २, ५ निचृत्त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् पंक्तिः । ४ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
विषय
राजा ऐश्वर्यशाली हो
पदार्थ
पदार्थ- (यत्) = जो (महः रायः) = बड़े-बड़े ऐश्वर्य (नः ददत्) = हमें देता है। (एनं मघवानम्) = उस ऐश्वर्य स्वामी को हम (इन्द्रम् इत् वोचेम) = 'इन्द्र' ही पुकारें और (यः) = जो (अर्चत:) = अपने सत्कारकों को (ब्रह्म-कृतिम्) = धनैश्वर्य के उत्पन्न करने के साधन देता, वही (अविष्ठः) = उत्तम रक्षक है। हे विद्वान् पुरुषो ! (यूयं) = आप लोग (नः सदा स्वस्तिभिः पात) = हमारा सदा उत्तम साधनों से पालन करो।
भावार्थ
भावार्थ - राजा को विद्वान् होना चाहिए। विद्वान् राजा उत्तम विद्या का प्रचार-प्रसार करके राष्ट्र में सुख के साधनों को बढ़ावा देकर प्रजा को ऐश्वर्यशाली बना सकता है। विद्वान् जन भी निर्भयता के साथ राज्य में ज्ञान-विज्ञान का प्रचार कर उत्तम शिक्षा द्वारा ऐश्वर्य की वृद्धि करें। अगले सूक्त का भी ऋषि वसिष्ठ और देवता इन्द्र है।
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वानांनो ! जसे आम्ही राजा इत्यादींना सदैव सत्याचा उपदेश करतो तसा तुम्हीही करा. असे परस्पर रक्षण करून उन्नती केली पाहिजे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
We speak and sing, thus, of Indra, this lord of power, honour and excellence who gives us great wealth and further capacity for success and victory and who accepts homage as the most loving protector of the worshipper. O lord, may you and your divine forces protect and promote us with all gifts of good fortune and well being for all time.
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