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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 30/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    वो॒चेमेदिन्द्रं॑ म॒घवा॑नमेनं म॒हो रा॒यो राध॑सो॒ यद्दद॑न्नः। यो अर्च॑तो॒ ब्रह्म॑कृति॒मवि॑ष्ठो यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वो॒चेम॑ । इत् । इन्द्र॑म् । म॒घऽवा॑नम् । ए॒न॒म् । म॒हः । र॒यः । राध॑सः । यत् । दद॑त् । नः॒ । यः । अर्च॑तः । ब्रह्म॑ऽकृतिम् । अवि॑ष्ठः । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वोचेमेदिन्द्रं मघवानमेनं महो रायो राधसो यद्ददन्नः। यो अर्चतो ब्रह्मकृतिमविष्ठो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वोचेम। इत्। इन्द्रम्। मघऽवानम्। एनम्। महः। रायः। राधसः। यत्। ददत्। नः। यः। अर्चतः। ब्रह्मऽकृतिम्। अविष्ठः। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 30; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजप्रजाजनाः परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! योऽविष्ठोऽर्चतो नो ब्रह्मकृतिं ददद्यद्यमेनं मघवानं महो राधसो रायो वर्धकमिन्द्रं वोचेम तमिद्यूयमपि सत्यमुपदिशत हे राजादयो जना ! यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात ॥५॥

    पदार्थः

    (वोचेम) सत्यं प्रशंसेम (इत्) एव (इन्द्रम्) भयविदारकम् (मघवानम्) बहुधनैश्वर्योपपन्नम् (एनम्) (महः) महतः (रायः) धनस्य (राधसः) सुसमृद्धिकरस्य (यत्) यम् (ददत्) ददाति (नः) अस्मभ्यम् (यः) (अर्चतः) सत्कुर्वतः (ब्रह्मकृतिम्) परमेश्वरोपदिष्टां प्रियां गाम् (अविष्ठः) अतिशयेन रक्षकः (यूयम्) राजाद्याः (पात) (स्वस्तिभिः) (सदा) (नः) ॥५॥

    भावार्थः

    यदि सर्वे सत्योपदेशकाः स्युस्तर्हि राजा कदाचिदपि प्रमाहीनो न स्याद्यदा राजा धर्मिष्ठो भवेत्तदा सर्वे मनुष्याः धर्मात्मानो भवेयुरेवं परस्परेषां रक्षणेन सदैव सुखं यूयं प्राप्नुतेति ॥५॥ अत्रेन्द्रराजप्रजाभृत्योपदेशककृत्यगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रिंशत्तमं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा और प्रजाजन परस्पर कैसे वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यः) जो (अविष्ठः) अतीव रक्षा करनेवाला (अर्चतः) सत्कार करते हुए (नः) हम लोगों को प्राप्त होकर (ब्रह्मकृतिम्) परमेश्वर ने उपदेश की हुई प्रिय वाणी (ददत्) देता है (यत्) जिस (एनम्) इस (मघवानम्) बहुत धन और ऐश्वर्य से युक्त तथा (महः) महान् (राधसः) उत्तम समृद्धि करनेवाले (रायः) धन की वृद्धि करने और (इन्द्रम्) भय विदीर्ण करनेवाले विषय को (वोचेम) सत्य कहें (इत्) उसी को तुम भी सत्य उपदेश करो। हे राजा आदि जनो ! (यूयम्) तुम (स्वस्तिभिः) सर्वसुखों से (नः) हम लोगों की (सदा) सर्वदा (पात) रक्षा करो ॥५॥

    भावार्थ

    यदि सब मनुष्य सत्य के उपदेश करनेवाले हों तो राजा कभी ज्ञानहीन न हो, जब राजा धर्मिष्ठ हो तब सब मनुष्य धर्मात्मा हों, ऐसे परस्पर की रक्षा से सदैव सुख तुम लोग पाओ ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, राजा, प्रजा, भृत्य और उपदेशक के काम का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तीसवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    उसको तदुचित आदेश

    भावार्थ

    व्याख्या देखो सू० २८ । मं० ५ ॥ इति चतुर्दशो वर्गः ॥ 5

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ विराट् त्रिष्टुप् । २ निचृत्त्रिष्टुप् । ३ निचृत्पंक्तिः । ४, ५ स्वराट् पंक्तिः ॥

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    विषय

    परमात्मा से ज्ञान और बल की प्रार्थना

    पदार्थ

    पदार्थ - (यत्) = जो (महः राय:) = बड़े-बड़े ऐश्वर्य (नः ददत्) = हमें देता है। (एनं मघवानम्) = उस ऐश्वर्य के स्वामी को हम (इन्द्रम् इत् वोचेम) = 'इन्द्र' ही पुकारें और (यः) = जो (अर्चतः) = अपने सत्कारकों को (ब्रह्म-कृतिम्) = धनैश्वर्य के उत्पन्न करने के साधन देता, वही (अविष्ठः) = उत्तम रक्षक है। हे विद्वान् पुरुषो! (यूयं) = आप लोग (नः सदा स्वस्तिभिः पात) = हमारा सदा उत्तम साधनों से पालन करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- परमेश्वर ऐश्वर्य का स्वामी है। उसी से ऐश्वर्य के साधन ज्ञान और बल प्राप्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। ज्ञान और बल से ही परमात्मा जीवों की रक्षा करता है। अगले सूक्त का वसिष्ठ ऋषि देवता इन्द्र है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जर सर्व माणसे सत्याचा उपदेश करणारी असतील तर राजा कधी ज्ञानहीन होणार नाही. जेव्हा राजा धार्मिक असेल तेव्हा सर्व माणसे धार्मिक बनतील. अशा प्रकारे परस्पर रक्षण करून सदैव सुख प्राप्त करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We sing and celebrate the honour and glory of this Indra, lord of magnificence, leader and ruler of the nation, who creates and gives us great wealth and honour and all means and materials of success and victory for life’s fulfilment, and who loves and accepts, protects and promotes the homage and adoration of the devotee. O lord, O learned and wise leaders, protect and promote us with all good fortune and all modes of well being for all time.

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