ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 34/ मन्त्र 9
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिपाद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒भि वो॑ दे॒वीं धियं॑ दधिध्वं॒ प्र वो॑ देव॒त्रा वाचं॑ कृणुध्वम् ॥९॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । वः॒ । दे॒वीम् । धिय॑म् । द॒धि॒ध्व॒म् । प्र । वः॒ । दे॒व॒ऽत्रा । वाच॑म् । कृ॒णु॒ध्व॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि वो देवीं धियं दधिध्वं प्र वो देवत्रा वाचं कृणुध्वम् ॥९॥
स्वर रहित पद पाठअभि। वः। देवीम्। धियम्। दधिध्वम्। प्र। वः। देवऽत्रा। वाचम्। कृणुध्वम् ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 34; मन्त्र » 9
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 9
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 9
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
सर्वैर्मनुष्यैः किमेष्टव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यान् देवत्रावर्त्तमानां देवीं धियं यूयमभि दधिध्वं तां वो वयमपि दधीमहि। यान् देवत्रा वाचं यूयं प्र कृणुध्वं तां वो वयमपि प्र कुर्याम ॥९॥
पदार्थः
(अभि) आभिमुख्ये (वः) युष्माकम् (देवीम्) दिव्याम् (धियम्) प्रज्ञाम् (दधिध्वम्) (प्र) (वः) युष्माकम् (देवत्रा) विद्वत्सु (वाचम्) (कृणुध्वम्) ॥९॥
भावार्थः
मनुष्यैर्विद्वदनुकरणेन प्रज्ञा विद्या वाक् च धर्त्तव्या ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
सब मनुष्यों को क्या इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! जैसे (देवत्रा) विद्वानों में वर्त्तमान (देवीम्) दिव्य (धियम्) बुद्धि को तुम (अभि, दधिध्वम्) सब ओर से धारण करो उस (वः) आपकी बुद्धि को हम लोग भी धारण करें, विद्वानों में जिस (वाचम्) वाणी को तुम (प्र, कृणुध्वम्) प्रसिद्ध करो उस (वः) आपकी वाणी को हम लोग भी (प्र) प्रसिद्ध करें ॥९॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों का अनुकरण कर बुद्धि, विद्या और वाणी को धारण करें ॥९॥
विषय
आचार्य का अहिंसावती होकर शिष्यों का आह्वान ।
भावार्थ
हे जनो ! आप लोग ( वः ) अपनी ( देवीं धियं ) दिव्य मति को ( अभि दधिध्वं ) धारण करो । और ( वः ) अपनी वाणी को भी (देवना वाचम्) विद्वानों में विद्यमान उत्तम वाणी के समान बनाओ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १-१५, १८-२५ विश्वे देवाः। १६ अहिः। १७ र्बुध्न्यो देवता। छन्दः— १, २, ५, १२, १३, १४, १६, १९, २० भुरिगर्चीगायत्री। ३,४,१७ आर्ची गायत्री । ६,७,८,९,१०,११,१५,१८,२१ निचृत्त्रिपादगायत्री। २२,२४ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । २३ आर्षी त्रिष्टुप् । २५ विराडार्षी त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
दिव्य बुद्धि का धारण
पदार्थ
पदार्थ- हे जनो! आप लोग (वः) = अपनी (देवीं धियं) = दिव्य मति को (अभि दधिध्वं) = धारण करो और (वः) = अपनी वाणी को भी (देवत्रा वाचम्) = विद्वानों में विद्यमान उत्तम वाणी के समान बनाओ।
भावार्थ
भावार्थ- - मनुष्य अपनी बुद्धि का उपयोग विध्वंस में न करके निर्माण में लगावे। इसके लिए वह अपनी बुद्धि में ईश्वर के दिव्य तेज को धारण करे जिससे उसकी बुद्धि एवं कर्म सदैव सुपथ में ही लगे रहें।
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी विद्वानांचे अनुकरण करून बुद्धी, विद्या व वाणी धारण करावी. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Acquire and maintain your intelligence and wisdom of the order of divinities and speak the language worthy of noble sages.
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