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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 42/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    ए॒वाग्निं स॑ह॒स्यं१॒॑ वसि॑ष्ठो रा॒यस्का॑मो वि॒श्वप्स्न्य॑स्य स्तौत्। इषं॑ र॒यिं प॑प्रथ॒द्वाज॑म॒स्मे यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । अ॒ग्निम् । स॒ह॒स्य॑म् । वसि॑ष्ठः । रा॒यःऽका॑मः । वि॒श्वऽप्स्न्य॑स्य । स्तौ॒त् । इष॑म् । र॒यिम् । प॒प्र॒थ॒त् । वाज॑म् । अ॒स्मे इति॑ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवाग्निं सहस्यं१ वसिष्ठो रायस्कामो विश्वप्स्न्यस्य स्तौत्। इषं रयिं पप्रथद्वाजमस्मे यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। अग्निम्। सहस्यम्। वसिष्ठः। रायःऽकामः। विश्वऽप्स्न्यस्य। स्तौत्। इषम्। रयिम्। पप्रथत्। वाजम्। अस्मे इति। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 42; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    धनकामाः पुरुषाः किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    यो रायस्कामो वसिष्ठो विश्वप्स्न्यस्य सहस्यमग्निं स्तौत् स एवास्मे इषं रयिं वाजं पप्रथत्, हे अतिथयः ! यूयं स्वस्तिभिर्नोऽस्मान् सदा पात ॥६॥

    पदार्थः

    (एव) (अग्निम्) पावकम् (सहस्यम्) सहसि भवम् (वसिष्ठः) अतिशयेन वसुः (रायस्कामः) रायो धनस्य काम इच्छा यस्य सः (विश्वप्स्न्यस्य) विश्वेषु समग्रेषु स्नुषु स्वरूपेषु भवस्य (स्तौत्) स्तौति (इषम्) अन्नादिकम् (रयिम्) श्रियम् (पप्रथत्) प्रथयति (वाजम्) विज्ञानमन्नं वा (अस्मे) अस्माकम् (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) (सदा) (नः) ॥६॥

    भावार्थः

    यस्य धनस्य कामना स्यात् स मनुष्योऽग्न्यादिविद्यां गृह्णीयात् येऽतिथिसेवां कुर्वन्ति तानतिथयोऽधर्माचरणात् पृथक्सदा रक्षन्तीति ॥६॥ अत्र विश्वेदेवगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्विचत्वारिंशत्तमं सूक्तं नवमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    धन की कामना करनेवाले क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (रायस्कामः) धन की कामनावाला (वसिष्ठः) अतीव निवासकर्ता जन (विश्वप्स्न्यस्य) समग्र रूपों में और (सहस्यम्) बल में हुए (अग्निम्) अग्नि की (स्तौत्) स्तुति करता है (एव) वही (अस्मे) हमारी (इषम्) अन्नादि सामग्री (रयिम्) लक्ष्मी (वाजम्) विज्ञान वा अन्न को (पप्रथत्) प्रसिद्ध करता है, हे अतिथि जनो ! (यूयम्) तुम (स्वस्तिभिः) सुखों से (नः) हम लोगों की (सदा) सदैव (पात) रक्षा करो ॥६॥

    भावार्थ

    जिसको धन की कामना हो, वह मनुष्य अग्न्यादि विद्या को ग्रहण करे, जो अतिथियों की सेवा करते हैं, उनको अतिथि लोग अधर्म के आचरण से सदा अलग रखते हैं ॥६॥ इस सूक्त में विश्वेदेवों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बयालीसवाँ सूक्त और नवम वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    तेजोमय परम की आराधना

    पदार्थ

    पदार्थ- (वसिष्ठः) = उत्तम विद्वान् (रायः काम:) = ऐश्वर्यों का इच्छुक होकर (विश्वप्न्यस्य) = सर्वत्र विद्यमान अग्नि आदि तत्त्व के (सहस्यं) = बलोत्पादक (अग्निं) = अग्नि या विद्युत् तत्त्व का (स्तौत्) = उपदेश करे। (अस्मे) = हमारे (इषं रयिम् वाजम् पप्रथद्) = अन्न, धन का विस्तार करे। हे विद्वान् पुरुषो! आप लोग (नः स्वस्तिभिः सदा पात) = हमें कल्याणकारी उपायों से सदा सुरक्षित रखिये।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्तम विद्वान् सर्वत्र व्याप्त तेजोमय परम पुरुष की आराधना की विधि गृहस्थ स्त्रीपुरुषों को सिखावें तथा अग्नितत्त्व में बल की उत्पत्ति, विद्युत् तत्त्व में शक्ति, अन्न में बल उस परमेश्वर ने कैसे भर दिया है इस तत्त्वज्ञान को विस्तार से समझावें । अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ और विश्वे देवा देवता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्याला ध्नाची कामना असेल त्या माणसाने अग्निविद्या ग्रहण करावी, जे अतिथींची सेवा करतात त्यांना अतिथी ग्रहण करावी. जे अतिथींची सेवा करतात त्यांना अतिथी सदैव अधर्माच्या आचरणापासून दूर ठेवतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thus does Vasishtha, the brilliant sage settled at peace in love with the pursuit of life’s wealth and excellence, adore Agni, omnipresent inspirer of life forms with fire and passion along with moral stability and spiritual constancy, Agni that creates, expands and gives us food and energy, wealth and honour, and speed, success and progress in social and cultural life. O divinities, protect and promote us with all round good fortune all time.

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