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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 46/ मन्त्र 3
या ते॑ दि॒द्युदव॑सृष्टा दि॒वस्परि॑ क्ष्म॒या चर॑ति॒ परि॒ सा वृ॑णक्तु नः। स॒हस्रं॑ ते स्वपिवात भेष॒जा मा न॑स्तो॒केषु॒ तन॑येषु रीरिषः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठया । ते॒ । दि॒द्युत् । अव॑ऽसृष्टा । दि॒वः । परि॑ । क्ष्म॒या । चर॑ति । परि॑ । सा । वृ॒ण॒क्तु॒ । नः॒ । स॒हस्र॑म् । ते॒ । सु॒ऽअ॒पि॒वा॒त॒ । भे॒ष॒जा । मा । नः॒ । तो॒केषु॑ । तन॑येषु । रि॒रि॒षः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
या ते दिद्युदवसृष्टा दिवस्परि क्ष्मया चरति परि सा वृणक्तु नः। सहस्रं ते स्वपिवात भेषजा मा नस्तोकेषु तनयेषु रीरिषः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठया। ते। दिद्युत्। अवऽसृष्टा। दिवः। परि। क्ष्मया। चरति। परि। सा। वृणक्तु। नः। सहस्रम्। ते। सुऽअपिवात। भेषजा। मा। नः। तोकेषु। तनयेषु। रिरिषः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 46; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥
अन्वयः
हे स्वपिवात ! ते तव या दिवः पर्यवसृष्टा दिद्युत् क्ष्मया चरति सा नोऽधर्माचरणात् परि वृणक्तु यस्य ते सहस्रं भेषजा सन्ति स त्वं तोकेषु तनयेषु वर्तमानो नोऽस्मानस्माकमपत्यान्यपि मा सु रीरिषः ॥३॥
पदार्थः
(या) (ते) तव (दिद्युत्) न्यायदीप्तिः (अवसृष्टाः) शत्रुप्रेरिता (दिवः) कमनीयस्य (परि) सर्वतः (क्ष्मया) भूम्या सह। क्ष्मेति पृथिवीनाम। (निघं०१.१)। (चरति) गच्छति (परि) (सा) (वृणक्तु) वर्जयतु (नः) अस्मान् (सहस्रम्) असंख्यम् (ते) तव (स्वपिवात) वायुरिव वर्तमान (भेषजा) ओषधानि (नः) अस्मानस्माकं वा (तोकेषु) सद्यो जातेष्वपत्येषु (तनयेषु) सुकुमारेषु (रीरिषः) हिंस्याः ॥३॥
भावार्थः
यस्य राज्ञो न्यायप्रकाशः सर्वत्र प्रदीप्यति स एव सर्वानधर्माचरणान्निरोद्धुं शक्नोति यस्य राष्ट्रे सहस्राणि दूताश्चारा वैद्याश्च विचरन्ति तस्य स्वल्पाऽपि राज्यस्य हानिर्न जायेत ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (स्वपिवात) पवन के समान वर्त्तमान ! (ते) आपकी (या) जो (दिवः) मनोहर कार्य के सम्बन्ध में (परि) सब ओर से (अवसृष्टा) शत्रुओं में प्रेरणा देनेवाली (दिद्युत्) न्यायदीप्ति (क्ष्मया) भूमि के साथ (चरति) जाती है (सा) वह (नः) हम लोगों को अधर्माचरण से (परि, वृणक्तु) सब ओर से अलग रक्खे जिस (ते) आपके (सहस्रम्) असंख्य हजारों (भेषजा) ओषधियाँ हैं, वह आप (तोकेषु) शीघ्र उत्पन्न हुए और (तनयेषु) कुमार अवस्था को प्राप्त हुए बालकों में वर्तमान (नः) हम लोगों को वा हमारे सन्तानों को (मा) मत (रीरिषः) नष्ट करो ॥३॥
भावार्थ
जिस राजा का न्यायप्रकाश सर्वत्र प्रदीपता है, वही सबको अधर्माचरण से रोक सकता है, जिसके राज्य में हजारों दूत और चार गुप्तचर मुखवर वैद्यजन विचरते हैं, उसकी थोड़ी भी राज्य की हानि नहीं होती है ॥३॥
विषय
उसका बलवत् पराक्रम और प्रजा के प्रति दयाभाव ।
भावार्थ
हे (सु-अपिवात) उत्तम रीति से शत्रुओं को वायु के प्रचण्ड वेग के सदृश वेगयुक्त आक्रमण से दूर करने हारे ( या ) जो ( ते ) तेरी ( दिद्युत् ) चमचमाती, तीक्ष्ण सेना ( दिवः परि ) विजय कामना से सब ओर ( अवसृष्टा ) छोड़ी हुई ( क्ष्मया ) भूमि के साथ ( परि चरति ) सब ओर जाती है ( सा नः ) वह हमें ( परि वृणक्तु ) कष्ट न दे । हे विद्वन् ! ( ते ) तेरी ( सहस्रं भेषजा ) सहस्रों ओषधियां हैं । तू (नः तोकेषु ) हमारे बच्चों और ( तनयेषु ) पुत्रों पर ( मा रीरिषा ) हिंसा का प्रयोग मत कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ रुद्रो देवता॥ छन्दः – २ निचृत्त्रिष्टुप् । १ विराड् जगती। ३ निचृज्जगती। ४ स्वराट् पंक्तिः॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
विषय
सेनापति का पराक्रम
पदार्थ
पदार्थ- हे (सु-अपिवात) = उत्तम रीति से शत्रुओं को प्रचण्ड वायु के सदृश प्रबल आक्रमण दूर करने हारे ! (या) = जो (ते) = तेरी (दिद्युत्) = चमचमाती सेना (दिवः परि) = विजय-कामना से सब ओर (अवसृष्टा) = छोड़ी हुई (क्ष्मया) = भूमि के साथ (परि चरति) = जाती है (सा नः) = वह हमें (परि वृणक्तु) = कष्ट न दे। हे विद्वन्! (ते) = तेरी (सहस्त्रं भेषजा) = सहस्रों ओषधियाँ हैं। तू (नः तोकेषु) = हमारे बच्चों और (तनयेषु) = पुत्रों पर (मा रीरिष:) = हिंसा का प्रयोग मत कर।
भावार्थ
भावार्थ- सेनापति अपनी सेना के प्रचण्ड प्रहार से शत्रु को नष्ट कर देवे तथा उसकी तेजस्वी सेना शत्रु राष्ट्र में सर्वत्र फैलकर उसकी भूमि को अपने अधिकार में लेवे। इस विजय अभियान में बच्चों व निर्बलों पर बल प्रयोग न करे।
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या राजाचा न्यायप्रकाश सर्वत्र दीप्तिमान असतो तोच सर्वांना अधर्माचरणापासून रोखू शकतो. ज्याच्या राज्यात हजारो दूत व गुप्तचर तसेच वैद्य वावरतात त्याच्या राज्याची किंचितही हानी होत नाही. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The blaze of your lightning power released from heaven prevails over earth which may, we pray, spare us and not uproot us. O lord of refreshing winds, thousands are your rejuvenations and medicaments. Pray strike not upon our children and grand children, refresh, nourish and strengthen them to full maturity.
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