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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 4
याः प्र॒वतो॑ नि॒वत॑ उ॒द्वत॑ उद॒न्वती॑रनुद॒काश्च॒ याः। ता अ॒स्मभ्यं॒ पय॑सा॒ पिन्व॑मानाः शि॒वा दे॒वीर॑शिप॒दा भ॑वन्तु॒ सर्वा॑ न॒द्यो॑ अशिमि॒दा भ॑वन्तु ॥४॥
स्वर सहित पद पाठयाः । प्र॒ऽवतः॑ । नि॒ऽवतः॑ । उ॒त्ऽवतः॑ । उ॒द॒न्ऽवतीः॑ । अ॒नु॒द॒काः । च॒ । याः । ताः । अ॒स्मभ्य॑म् । पय॑सा । पिन्व॑मानाः । शि॒वाः । दे॒वीः । अ॒शि॒प॒दाः । भ॒व॒न्तु॒ । सर्वाः॑ । न॒द्यः॑ । अ॒शि॒मि॒दाः । भ॒व॒न्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
याः प्रवतो निवत उद्वत उदन्वतीरनुदकाश्च याः। ता अस्मभ्यं पयसा पिन्वमानाः शिवा देवीरशिपदा भवन्तु सर्वा नद्यो अशिमिदा भवन्तु ॥४॥
स्वर रहित पद पाठयाः। प्रऽवतः। निऽवतः। उत्ऽवतः। उदन्ऽवतीः। अनुदकाः। च। याः। ताः। अस्मभ्यम्। पयसा। पिन्वमानाः। शिवाः। देवीः। अशिपदाः। भवन्तु। सर्वाः। नद्यः। अशिमिदाः। भवन्तु ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं निवार्य किं सेवनीयमित्याह ॥
अन्वयः
याः प्रवतो निवत उद्वतो देशान् गच्छन्ति याश्चोदन्वतीरनुदकास्सन्ति ताः सर्वा नद्योऽस्मभ्यं पयसा पिन्वमाना अशिपदा देवीः शिवा भवन्तु अशिमिदा भवन्तु ॥४॥
पदार्थः
(याः) (प्रवतः) गमनार्हान् (निवतः) निम्नान् (उद्वतः) ऊर्ध्वान् देशान् (उदन्वतीः) उदकयुक्ताः (अनुदकाः) जलरहिताः (च) (याः) (ताः) (अस्मभ्यम्) (पयसा) उदकेन। पय इत्युदकनाम। (निघं०१.१२)। (पिन्वमानाः) सिञ्चमानाः प्रीणन्त्यः (शिवाः) सुखकर्यः (देवीः) आनन्दप्रदाः (अशिपदाः) भोजनादिव्यवहाराय प्राप्ताः (भवन्तु) (सर्वाः) (नद्यः) (अशिमिदाः) भोजनादिस्नेहकारिकाः (भवन्तु) ॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्याः ! यावज्जलं नद्यादिषु गच्छति यावच्च मेघमण्डलं प्राप्नोति तावत्सर्वं होमेन शोधयित्वा सेवन्ताम्, यतः सर्वदा मङ्गलं वर्धित्वा दुःखप्रणाशो भवेदिति ॥४॥ अत्राबौषधीविषनिवारणेन शुद्धसेवनमुक्तमत एतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चाशत्तमं सूक्तं सप्तदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को किसका निवारण कर क्या सेवन करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(याः) जो (प्रवतः) जाने योग्य (निवतः) नीचे (उद्वतः) वा ऊपरले देशों को जाती हैं (याश्च) और जो (उदन्वतीः) जल से भरी वा (अनुदकाः) जलरहित हैं (ताः) वे (सर्वाः) सब (नद्यः) नदियाँ (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (पयसा) जल से (पिन्वमानाः) सींचती हुईं वा तृप्त करती हुईं (अशिपदाः) भोजनादि व्यवहारों के लिये प्राप्त होती हुईं (देवीः) आनन्द देने और (शिवः) सुख करनेवाली (भवन्तु) हों और (अशिमिदाः) भोजन आदि स्नेह करनेवाली (भवन्तु) हों ॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जितना जल नदी आदि में जाता है और जितना मेघमण्डल में प्राप्त होता है, उतना सब होम से शुद्ध कर सेवो जिससे सर्वदा मङ्गल बढ़ कर दुःख का अच्छे प्रकार नाश हो ॥४॥ इस सूक्त में जल और ओषधी विष के निवारण से शुद्ध सेवन कहा, इससे इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह पचासवाँ सूक्त और सत्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
नाना विषों को गुप्त प्रकृति और उनका प्रतिकार।
भावार्थ
( याः ) जो नदियां ( प्रवतः ) दूर २ देशों तक जाने वाली, ( याः निवतः ) जो नीचे की ओर बहने वाली, (याः उद्वतः ) जो ऊंचे की ओर जाने वाली, ( उदन्वतीः ) जो प्रचुर जल वाली, ( याः च अनुदका: ) और जो जलरहित या अल्प जल की नदियां हैं ( ताः ) वे ( अस्मभ्यं ) हमारे लिये ( पयसा ) उत्तम जल से देश को सींचती हुई ( शिवाः भवन्तु ) कल्याणकारी हों (देवीः) सुखप्रद, अन्नादि देने वाली हों और (अशिपदाः) भोजनार्थ सब प्रकार के अन्नोत्पादक हों और (सर्वाः नद्यः ) सब नदियें (अशिमिदाः भवन्तु ) अहिंसाकारिणी हों । अध्यात्म में—( १ ) ( कुलाययत् ) कुलाय अर्थात् अहंकारादि कृति को उत्पन्न करने वाला और ( विश्वयत् ) विश्व को बनाने वाला प्रधान प्रकृतितत्व ( नः मा आगन् ) हमें प्राप्त न हो । 'मित्र' और 'वरुण' प्राण और उदान गुरुजन मेरी रक्षा करें । ( अजकावं ) 'अजक' आत्माओं के समूह का रक्षक परब्रह्म ( दुर्दृशीकं ) बड़ी कठिनता से देखे जाने योग्य है । तो भी मैं उसे ( तिरः ) सदा विद्यमान के समान वा सब से तीर्ण, पृथक् रूप में ( दधे ) धारण करूं । जिससे ( त्सरुः ) ब्रह्मचारी, कुटिल काम क्रोधादि (पद्येना रपसा मा विदत् ) आचार सम्बन्धी पाप से हमें प्राप्त न हो । ( २ ) जो आप ( विजामन् ) विविध जन्म लेने में और पर्व पर बाधक होता है, जो ( अष्ठीवन्ती परिकुल्फौ च ) अस्थि वाले ( कुल्फौ = कुलपौ) प्राणगणों के पालक स्त्री पुरुष दोनों प्रकार के देहों में ( परि रेहत् ) व्यापता है 'अग्निः' ज्ञानी पुरुष प्रभु उस अज्ञान दोष को इसी जन्म में नाश करे । ( ३ ) जो ( विषम् ) विविध बन्धनों को काटने में समर्थ ज्ञान-शान्तिप्रद ( नदीषु ) उपदेष्टा गुरुओं में हो या प्रभु में हो और जो बल वा ज्ञान (ओषधीभ्यः) पापदाहक तेज को धारण करने वाली प्रजाओं में है सब विद्वान् उस ज्ञान को ओषधि रसवत् मेरे लिये प्राप्त करावें । (४) इसी प्रकार उत्तम, मध्यम, निकृष्ट ज्ञानवान् अज्ञानवान् सभी मनुष्य प्रजाएं सुख कल्याणकारिणी हों, ज्ञान अन्नादिदें, सब (अशि-पदाः ) अन्न देने वाली और ( अशिमिदाः ) अहिंसक हो । इति सप्तदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ १ मित्रावरुणौ। २ अग्निः। ३ विश्वेदेवाः॥ ४ नद्यो देवताः॥ छन्दः–१,३ स्वराट् त्रिष्टुप्। २ निचृज्जगती। ४ भुरिग्जगती॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
विषय
जल चिकित्सा
पदार्थ
पदार्थ-(याः) = जो नदियाँ (प्रवतः) = दूर देशों तक जानेवाली, (याः निवतः) = जो नीचे की ओर बहनेवाली, (याः उद्वतः) = जो ऊँचे की ओर जानेवाली, (उदन्वती:) = जो प्रचुर जलवाली, (याः च अनुदका:) = और जो जलरहित या अल्प जल की हैं (ताः) = वे (अस्मभ्यं) = हमारे लिये (पयसा) = जल से देश को सींचती हुईं (शिवाः भवन्तु) = कल्याणकारी हों (देवी:) = सुखप्रद, अन्नादि देनेवाली हों और (अशिपदा:) = भोजनार्थ सब प्रकार के अन्नोत्पादक हों और (सर्वाः नद्यः) = सब नदियें (अशिमिदाः भवन्तु) = अहिंसाकारिणी हों।
भावार्थ
भावार्थ- कुशल वैद्य प्राकृतिक तत्त्वों से भी चिकित्सा करे। इनमें जल चिकित्सा द्वारा अनेक रोगों को दूर किया जा सकता है। जैसे कटिस्नान, पाँव स्नान, मेहन स्नान, रीढ स्नान आदि द्वारा प्रजा को नीरोग बनावें। नदियों के जल, नदियों के किनारे की मिट्टी व रेत आदि का भी चिकित्सा में उपयोग लेवें। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ और आदित्य देवता है।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जितके जल नदी इत्यादीमध्ये जाते व जितके मेघमंडलातून प्राप्त होते ते सर्व यज्ञाने शुद्ध करून वापरा. ज्यामुळे सदैव कल्याण होऊन दुःखाचा चांगल्या प्रकारे नाश होतो. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
All streams of water, wind and energy, rushing, flowing, rising, on mountains, slopes and valleys or plains with abundant or lean content, may be for us full of nourishment, health giving, blissful and sparkling generous. May they ward off all disease, may they never be destructive.
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