ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 55/ मन्त्र 6
य आस्ते॒ यश्च॒ चर॑ति॒ यश्च॒ पश्य॑ति नो॒ जनः॑। तेषां॒ सं ह॑न्मो अ॒क्षाणि॒ यथे॒दं ह॒र्म्यं तथा॑ ॥६॥
स्वर सहित पद पाठयः । आस्ते॑ । यः । च॒ । चर॑ति॒ । यः । च॒ । पश्य॑ति । नः॒ । जनः॑ । तेषा॑म् । सम् । ह॒न्मः॒ । अ॒क्षाणि॑ । यथा॑ । इ॒दम् । ह॒र्म्यम् । तथा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
य आस्ते यश्च चरति यश्च पश्यति नो जनः। तेषां सं हन्मो अक्षाणि यथेदं हर्म्यं तथा ॥६॥
स्वर रहित पद पाठयः। आस्ते। यः। च। चरति। यः। च। पश्यति। नः। जनः। तेषाम्। सम्। हन्मः। अक्षाणि। यथा। इदम्। हर्म्यम्। तथा ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 55; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कीदृशानि गृहाणि निर्मातव्यानीत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथेदं हर्म्यमस्ति तथा यो जनो नो गृह आस्ते यश्च चरति यश्च नोऽस्मान् पश्यति तेषामक्षाणि वयं संहन्मस्तथा यूयमप्याचरत ॥६॥
पदार्थः
(यः) (आस्ते) उपविशति (यः) (च) (चरति) गच्छति (यः) (च) (पश्यति) (नः) अस्मानस्माकं गृहे वा (जनः) मनुष्यः (तेषाम्) (सम्) (हन्मः) संहितानि निमीलितान्यादर्शकानि कुर्मः (अक्षाणि) इन्द्रियाणि (यथा) (इदम्) (हर्म्यम्) कमनीयं गृहम् (तथा) ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । मनुष्यैरीदृशानि गृहाणि निर्मातव्यानि यत्र सर्वेष्वृतुषु निर्वाहस्स्यात् सर्वं सुखं वर्धेत बहिः स्थाः जना गृहस्थान् सहसा न पश्येयुर्न च गृहस्था बाह्यान् पश्येयुरिति ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को कैसे घर बनाने चाहियें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यथा) जैसे (इदम्) यह (हर्म्यम्) मनोहर घर है (तथा) वैसे (यः) जो (जनः) मनुष्य (नः) हमारे घर में (आस्ते) बैठता है (यः, चः) और जो (चरति) जाता है (यः, च) और जो हम लोगों को (पश्यति) देखता है (तेषाम्) उन सभों की (अक्षाणि) इन्द्रियों को हम लोग (सम्, हन्मः) सहित न देखनेवाले करें, वैसे तुम भी आचरण करो ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । मनुष्यों को ऐसे घर बनाने चाहियें, जिन में सब ऋतुओं में निर्वाह हो, सब सुख, बड़े और बाहरवाले जन गृहस्थों को सहसा न देखें और न घरवाले बाहरवालों को देखें ॥६॥
विषय
उत्तम गृहवत् देहनिर्माण
भावार्थ
( यः आस्ते ) जो बैठा हो ( यः च चरति ) जो चलता है, ( यः जनः ) जो मनुष्य ( नः ) हमें (पश्यति) देखता हो (तेषां) उन सबके (अक्षाणि) आंखों आदि इन्द्रियों को हम (संहन्मः) अच्छी प्रकार निमीलित करें जिससे बाहर के भीतर, भीतर के बाहर वालों को नहीं देख पावें । ऐसे ( यथा ) जैसे ( इदं हर्म्यं ) यह उत्तम भवन बना है ( तथा ) उसी प्रकार हम भी घर बनावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १ वास्तोष्पतिः । २—८ इन्द्रो देवता॥ छन्दः —१ निचृद्गायत्री। २,३,४ बृहती। ५, ७ अनुष्टुप्। ६, ८ निचृदनुष्टुप् । अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
भवन निर्माण
पदार्थ
पदार्थ - (यः आस्ते) = जो बैठा हो (यः च चरति) = जो चलता है, (यः जनः) = जो मनुष्य (नः) = हमें (पश्यति) = देखता है (तेषां) = उनके (अक्षाणि) = आँखों को हम (संहन्म:) = अच्छी प्रकार निमीलित करें जिससे बाहर के भीतर, भीतर के बाहरवालों को न देखें। (यथा) = जैसा (इदं हर्म्यं) = यह उत्तम भवन है तथा उसी प्रकार हम घर बनावें ।
भावार्थ
भावार्थ- राष्ट्र में ऐसे उत्तम कुशल शिल्पकार हों जो ऐसी भवन निर्माण कला जानते हों कि भवन के अन्दर रहनेवाला तो सबको देख सके किन्तु भवन में रहनेवालों को कोई ना देख पावें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी अशी घरे बनविली पाहिजेत ज्यामध्ये सर्व ऋतूंमध्ये व्यवहार करता यावा. सर्व सुख वाढावे. बाहेरच्या माणसांनी घरातील माणसांना पाहता कामा नये व घरातील माणसांनी बाहेर पाहता कामा नये. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The person who sits and works in an appointed place, the one who is always on the move on tours, and the one who is appointed to watch us all round, of all these we centralise the orbits of movement and activity as this house is, which is the centre and capital of the social order.
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