ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
प्र सा॑क॒मुक्षे॑ अर्चता ग॒णाय॒ यो दैव्य॑स्य॒ धाम्न॒स्तुवि॑ष्मान्। उ॒त क्षो॑दन्ति॒ रोद॑सी महि॒त्वा नक्ष॑न्ते॒ नाकं॒ निर्ऋ॑तेरवं॒शात् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सा॒क॒म्ऽउक्षे॑ । अ॒र्च॒त॒ । ग॒णाय॑ । यः । दैव्य॑स्य । धाम्नः॑ । तुवि॑ष्मान् । उ॒त । क्षो॒द॒न्ति॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । म॒हि॒ऽत्वा । नक्ष॑न्ते । नाक॑म् । निःऽऋ॑तेः । अ॒वं॒शात् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र साकमुक्षे अर्चता गणाय यो दैव्यस्य धाम्नस्तुविष्मान्। उत क्षोदन्ति रोदसी महित्वा नक्षन्ते नाकं निर्ऋतेरवंशात् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। साकम्ऽउक्षे। अर्चत। गणाय। यः। दैव्यस्य। धाम्नः। तुविष्मान्। उत। क्षोदन्ति। रोदसी इति। महिऽत्वा। नक्षन्ते। नाकम्। निःऽऋतेः। अवंशात् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 58; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
यस्तुविष्मान् दैव्यस्य धाम्नो ज्ञातास्ति तस्मै साकमुक्षे गणाय विदुषे यूयं प्रार्चत अपि ये वायवो महित्वा रोदसी नक्षन्ते सावयवानुत क्षोदन्ति निर्ऋतेरवंशान्नाकं व्याप्नुवन्ति तद्विदो विदुषो यूयमुत प्रार्चत ॥१॥
पदार्थः
(प्र) (साकमुक्षे) यः साकं सहोक्षति सुखेन सचति सम्बध्नाति तस्मै (अर्चता) सत्कुरुत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (गणाय) गणनीयाय (यः) (दैव्यस्य) देवैः कृतस्य (धाम्नः) नामस्थानजन्मनः (तुविष्मान्) बहुबलयुक्तः (उत) अपि (क्षोदन्ति) संपिंशन्ति (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (महित्वा) महत्त्वेन (नक्षन्ते) प्राप्नुवन्ति (नाकम्) अविद्यमानदुःखम् (निर्ऋतेः) भूमेः (अवंशात्) असन्तानात् ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! ये वायुविद्यां जानन्ति तान् नित्यं सत्कृत्यैतेभ्यो वायुविद्यां प्राप्य भवन्तो महान्तो भवत ॥१॥
हिन्दी (1)
विषय
अब छः ऋचावाले अट्ठावनवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
(यः) जो (तुविष्मान्) बहुत बल से युक्त (दैव्यस्य) देवताओं से किये गये (धाम्नः) नाम, स्थान और जन्म का जाननेवाला है उस (साकमुक्षे) साथ ही सुख से सम्बन्ध करनेवाले (गणाय) गणनीय विद्वान् के लिये आप लोग (प्र, अर्चत) सत्कार करिये और (अपि) भी जो पवन (महित्वा) महत्त्व से (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (नक्षन्ते) व्याप्त होते हैं, अवयवों के सहितों को (उत) भी (क्षोदन्ति) पीसते हैं (निर्ऋतेः) भूमि से (अवंशात्) सन्तान भिन्न से (नाकम्) दुःख से रहित स्थान को व्याप्त होते हैं, उनको जाननेवाले विद्वानों को आप लोग भी सत्कार कीजिये ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो वायु आदि की विद्या को जानते हैं, उनका नित्य सत्कार करके इनसे वायु की विद्या को प्राप्त होकर आप लोग श्रेष्ठ हूजिये ॥१॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात वायू व विद्वानांचे गुणवर्णन केलेले असल्यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे माणसांनो ! जे वायुविद्या जाणतात त्यांचा नित्य सत्कार करून त्यांच्याकडून वायुविद्या प्राप्त करून तुम्ही श्रेष्ठ व्हा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Honour the group of vibrant forces and leading heroes which arises mighty from the very light of heaven, creatively works together for progress, and reaches unto the very heights of divinity. Heaven and earth reverberate with the music of their honour and fame and they rise to celestial bliss of the spirit even across a state of adversity and denial of familial continuance.
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