ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 59/ मन्त्र 12
त्र्य॑म्बकं यजामहे सु॒गन्धिं॑ पुष्टि॒वर्ध॑नम्। उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नान्मृ॒त्योर्मु॑क्षीय॒ मामृता॑त् ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठत्र्य॑म्बकम् । य॒जा॒म॒हे॒ । सु॒गन्धि॑म् । पु॒ष्टि॒ऽवर्ध॑नम् । उ॒र्वा॒रु॒कम्ऽइ॑व । बन्ध॑नात् । मृ॒त्योः । मु॒क्षी॒य॒ । मा । अ॒मृता॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठत्र्यम्बकम्। यजामहे। सुगन्धिम्। पुष्टिऽवर्धनम्। उर्वारुकम्ऽइव। बन्धनात्। मृत्योः। मुक्षीय। मा। अमृतात् ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 59; मन्त्र » 12
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 30; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 30; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः क उपासनीय इत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यं सुगन्धिं पुष्टिवर्धनं त्र्यम्बकं वयं यजामहे तं यूयमपि यजध्वं यथाऽहं बन्धनादुर्वारुकमिव मृत्योर्मुक्षीय तथा यूयं मुच्यध्वं यथाऽहममृतादा मा मुक्षीय तथा यूयमपि मुक्तिप्राप्तेर्विरक्ता मा भवत ॥१२॥
पदार्थः
(त्र्यम्बकम्) त्रिष्वम्बकं रक्षणं यस्य रुद्रस्य परमेश्वरस्य यद्वा त्रयाणां जीवकारणकार्याणां रक्षकस्तं परमेश्वरम् (यजामहे) सङ्गच्छेमहि (सुगन्धिम्) सुविस्तृतपुण्यकीर्तिम् (पुष्टिवर्धनम्) यः पुष्टिं वर्धयति तम् (उर्वारुकमिव) यथोर्वारुकफलम् (बन्धनात्) (मृत्योः) मरणात् (मुक्षीय) मुक्तो भवेयम् (मा) निषेधे (आ) मर्यादाम् (अमृतात्) मोक्षप्राप्तेः ॥१२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! अस्माकं सर्वेषां जगदीश्वर एवोपास्योऽस्ति यस्योपासनात् पुष्टिर्वृद्धिः शुद्धकीर्तिर्मोक्षश्च प्राप्नोति मृत्युभयं नश्यति तं विहायान्यस्योपासनां वयं कदापि न कुर्यामेति ॥१२॥ अत्र वायुदृष्टान्तेन विद्वदीश्वरगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यृग्वेदे पञ्चमाष्टके चतुर्थोऽध्यायस्त्रिंशो वर्गः सप्तमे मण्डले एकोनषष्टितमं सूक्तं च समाप्तम् ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर मनुष्यों को किसकी उपासना करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जिस (सुगन्धिम्) अच्छे प्रकार पुण्यरूपय यशयुक्त (पुष्टिवर्धनम्) पुष्टि बढ़ानेवाले (त्र्यम्बकम्) तीनों कालों में रक्षण करने वा तीन अर्थात् जीव, कारण और कार्य्यों की रक्षा करनेवाले परमेश्वर को हम लोग (यजामहे) उत्तम प्रकार प्राप्त होवें उसकी आप लोग भी उपासना करिये और जैसे मैं (बन्धनात्) बन्धन से (उर्वारुकमिव) ककड़ी के फल के सदृश (मृत्योः) मरण से (मुक्षीय) छूटूँ, वैसे आप लोग भी छूटिये जैसे मैं मुक्ति से न छूटूँ, वैसे आप भी (अमृतात्) मुक्ति की प्राप्ति से विरक्त (मा, आ) मत हूजिये ॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! हम सब लोगों का उपास्य जगदीश्वर ही है, जिसकी उपासना से पुष्टि, वृद्धि, उत्तम यश और मोक्ष प्राप्त होता है, मृत्यु सम्बन्धि भय नष्ट होता है, उस का त्याग कर के अन्य की उपासना हम लोग कभी न करें ॥१२॥ इस सूक्त में वायु के दृष्टान्त से विद्वान् और ईश्वर के गुण और कृत्य के वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह ऋग्वेद में पाँचवे अष्टक में चौथा अध्याय तीसवाँ वर्ग तथा सप्तम मण्डल में उनसठवाँ सूक्त समाप्त हुआ ॥
पदार्थ
पदार्थ = ( त्र्यम्बकम् ) = तीनों काल में एकरस ज्ञानयुक्त, अथवा तीनों लोकों का जनक अथवा जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय इन तीनों के कर्त्ता परमात्मा ( सुगन्धिम् ) = बड़े यशवाले ( पुष्टिवर्धनम् ) = शरीर आत्मा और समाज के बल को बढ़ानेवाले जगदीश की ( यजामहे ) = स्तुति करते हैं। हे प्रभो ! ( उर्वारुकम् ) = जैसे पका हुआ खरबूजा ( बन्धनात् ) = लता बन्धन से छूट जाता है वैसे ही ( मृत्योः ) = मृत्यु से ( मुक्षीय ) = हम छूट जावें । ( अमृतात् मा ) = मोक्षरूप सुख से न छूटें ।
भावार्थ
भावार्थ = हे जगत् उत्पत्ति स्थिति प्रलयकर्ता परमात्मन्! आपका यश सब जगत् में व्याप रहा है, आप ही अपने भक्तों के शरीर आत्मा और समाज के बल को बढ़ानेवाले हैं । भगवन् ! जैसे पका हुआ खरबूजा अपने लता बन्धन से छूट जाता है, ऐसे ही मैं भी मृत्यु के बन्धन दुःख से छूट जाऊँ, किन्तु मुक्ति से कभी अलग न होऊँ। आपकी कृपा से मुक्ति सुख को अनुभव करता हुआ सदा आनन्द में मग्न रहूँ ।
विषय
युक्ति की प्रार्थना । त्र्यम्बक् का रहस्य ।
भावार्थ
( त्र्यम्बकं ) तीनों शब्दमय वेदों का उपदेश करने वाले, वा तीनों लोकों, तीनों वेदों और तीनों वर्णों के उपदेष्टा रक्षक द्विपात् चतुष्पात् और सरीसृप तीनों के माता के समान पालक, ( सु-गन्धिं ) उत्तम गन्ध से युक्त, उत्तम कुलोत्पन्न, शत्रुओं के उत्तम रीति से नाशक वा शुभ पुण्यमय गन्ध वाले, सत्कर्मा, ( पुष्टिवर्धनम् ) पुष्टि, समृद्धि को बढ़ाने वाले पूज्य पुरुष वा प्रभु की हम ( यजामहे ) सदा उपासना और पूजा करते हैं। मैं ( मृत्योः ) मृत्यु के ( बन्धनात् ) बन्धन से ( उर्वारुकम् इव ) खरबूजे के फल के समान ( मुक्षीय ) मुक्त होऊं और मैं ( अमृतात् ) अमृतमय मोक्ष सुख वा दीर्घ जीवन से ( मा मुक्षीय) पृथक् न होऊं ।
टिप्पणी
( त्र्यम्बकं ) – अबि शब्दार्थः। अम्बति शब्दायते इत्यम्बः, अम्बकः । त्रयाणां अम्बकः त्र्यम्बकः। 'सुगन्धिः' — गन्ध हिंसने। शोभनः शरीरगंध: पुण्यगन्धो वा यस्यासौ सुगन्धिः। यथा वृक्षस्य संपुष्पितस्य दूराद् गंधो वाति एवं पुण्यस्य कर्मणो दूराद् गन्धो वातीति श्रुतेः। सायणः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ १-११ मरुतः। १२ रुद्रो देवता, मृत्युविमोचनी॥ छन्दः १ निचृद् बृहती। ३ बृहती। ६ स्वराड् बृहती। २ पंक्ति:। ४ निचृत्पंक्तिः। ५, १२ अनुष्टुप्। ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्। ९,१० गायत्री। ११ निचृद्गायत्री॥
विषय
खरबूजे के समान बन्धन से छूटो
पदार्थ
पदार्थ - (त्र्यम्बकं) = तीनों शब्दमय वेदों के उपदेष्टा वा तीनों लोकों, तीनों वेदों, तीनों वर्णों के उपदेष्टा, रक्षक, द्विपात, चतुष्पात् और सरीसृप तीनों के माता के समान पालक, (सु-गन्धिं) = उत्तम गन्ध से युक्त, उत्तम कुलोत्पन्न, सत्कर्मा, (पुष्टिवर्धनम्) = समृद्धि बढ़ानेवाले पूज्य पुरुष वा प्रभु की हम (यजामहे) = उपासना पूजा करते हैं। मैं (मृत्योः) = मृत्यु के (बन्धनात्) = बन्धन से (उर्वारुकम् इव) = खरबूजे के फल के समान (मुक्षीय) = मुक्त होऊँ और (अमृतात्) = अमृतमय मोक्ष से (मा मुक्षीय) = पृथक् न होऊँ ।
भावार्थ
भावार्थ-सत्कर्म करनेवाले वेदों के उपदेष्टा विद्वानों की सुसंगति से उपदेश प्राप्त कर मनुष्य लोग अज्ञान व दुष्कर्मों से छूटकर ज्ञानी बनें तथा सांसारिक सुखों का उपभोग करें और अन्त परमात्मा के अमृतमय मोक्ष के आनन्द को प्राप्त करें। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ और देवता सूर्य तथा मित्रावरुण है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! आम्हा सर्व लोकांचे उपास्य जगदीश्वरच आहे. ज्याच्या उपासनेने पुष्टी, वृद्धी, उत्तम यश व मोक्ष प्राप्त होतो. मृत्यूसंबंधी भय नष्ट होते. त्याचा त्याग करून इतराची उपासना करू नये. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
We invoke and do homage to lord Tryambaka, creator and protector of the three worlds, whose immanent fragrance of energy and bliss enhances the life and joy of existence all three times. O Rudra, destroyer of evil and suffering, giver of bliss, release me from the bonds of mortality like the ripe fruit falling off from the stalk and redeem me into the infinite presence of Immortality.
बंगाली (1)
পদার্থ
ত্র্যম্বকং যজামহে সুগন্ধিং পুষ্টিবর্ধনম্।
উর্বারুকমিব বন্ধনান্ মৃত্যোর্মুক্ষীয় মামৃতাৎ।।৯৬।।
(ঋগ্বেদ ৭।৫৯।১২)
পদার্থঃ (ত্র্যম্বকম্) ত্রিলোকের জনক, ত্রিলোকের জ্ঞানযুক্ত, জগতের সৃষ্টি-স্থিতি-প্রলয় এই তিনের নিয়ন্ত্রক পরমাত্মা! (সুগন্ধিম্) উত্তম যশযুক্ত (পুষ্টিবর্ধনম্) শরীর ও আত্মার শক্তিপ্রদাতা জগদীশকে (যজামহে) স্তুতি করি। হে পরমাত্মা! (উর্বারুকম্ ইব) যেরূপে পক্ব ফল (বন্ধনাৎ) বোঁটার বন্ধন হতে মুক্ত হয়, সেইরূপে (মৃত্যোঃ) মৃত্যু থেকে (মুক্ষীয়) আমরা মুক্তি পাব (মা অমৃতাৎ) মোক্ষরূপ সুখ হতে পৃথক না হয়ে।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে জগতের সৃষ্টি-স্থিতি-প্রলয়কর্তা পরমাত্মা! তোমার যশ সমগ্র জগতে ব্যাপ্ত। তুমি আমাদের শরীর ও আত্মার শক্তিপ্রদাতা। হে ভগবান! যেরূপে পরিপক্ব ফল বোঁটার বন্ধন হতে ছিন্ন হয়, সেইরূপে আমরাও যেন মৃত্যুর বন্ধনরূপ দুঃখ হতে মুক্ত হয়ে অমৃতময় মোক্ষের সন্ধান লাভ করি। আমাদের মৃত্যু হতে মুক্ত করো, অমৃতত্ব হতে নয়!।। ৯৬।।
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