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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 59/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मरुतः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    यु॒ष्माकं॑ देवा॒ अव॒साह॑नि प्रि॒य ई॑जा॒नस्त॑रति॒ द्विषः॑। प्र स क्षयं॑ तिरते॒ वि म॒हीरिषो॒ यो वो॒ वरा॑य॒ दाश॑ति ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒ष्माक॑म् । देवाः॑ । अव॑सा । अह॑नि । प्रि॒ये । ई॒जा॒नः । त॒र॒ति॒ । द्विषः॑ । प्र । सः । क्षय॑म् । ति॒र॒ते॒ । वि । म॒हीः । इषः॑ । यः । वः॒ । वरा॑य । दाश॑ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युष्माकं देवा अवसाहनि प्रिय ईजानस्तरति द्विषः। प्र स क्षयं तिरते वि महीरिषो यो वो वराय दाशति ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युष्माकम्। देवाः। अवसा। अहनि। प्रिये। ईजानः। तरति। द्विषः। प्र। सः। क्षयम्। तिरते। वि। महीः। इषः। यः। वः। वराय। दाशति ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 59; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे देवा ! य ईजानोऽवसा द्विषस्तरति प्रियेऽहनि युष्माकं प्रियं साध्नोति यो महीरिषो वो वराय प्र दाशति स क्षयं प्र वि तिरते ॥२॥

    पदार्थः

    (युष्माकम्) (देवाः) विद्वांसः (अवसा) रक्षणादिना (अहनि) दिने (प्रिये) कमनीये प्रीतिकरे (ईजानः) (तरति) उल्लङ्घते (द्विषः) द्वेष्टॄन् (प्र) (सः) (क्षयम्) निवासम् (तिरते) वर्धयति (वि) (महीः) भूमीः सुशिक्षिता वाचो वा (इषः) अन्नाद्याः (यः) (वः) युष्मान् (वराय) श्रेष्ठत्वाय (दाशति) ॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! ये दुष्टतानिवारकास्सर्वेषां रक्षका विद्याद्यैश्वर्यप्रदाः सुखेन सर्वदा वासयितारो विद्वांसः स्युस्तानेव सेवयित्वा सङ्गत्य प्राप्नुत ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (देवाः) विद्वान् जनो ! (यः) जो (ईजानः) यजमान (अवसा) रक्षण आदि से (द्विषः) द्वेष करनेवालों का (तरति) उल्लङ्घन करता है और (प्रिये) प्रीति करनेवाले (अहनि) दिन में (युष्माकम्) आप लोगों के प्रिय को सिद्ध करता है और जो (महीः) भूमियों का उत्तम प्रकार शिक्षित वाणियों वा (इषः) अन्नादिकों (वः) आप लोगों के अर्थ (वराय) श्रेष्ठत्व के लिये (प्र, दाशति) देता है (सः) वह (क्षयम्) निवास को (प्र,वि, तिरते) बढ़ाता है ॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो दुष्टता के दूर करनेवाले, सब की रक्षा करनेवाले, विद्या आदि ऐश्वर्य्य के देनेवाले और सुख से सर्वदा वसानेवाले विद्वान् हों, उन्हीं की सेवा और मेल कर के विद्याओं को प्राप्त हूजिये ॥२॥

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    विषय

    विद्वानों वीरों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( देवाः ) विद्वान् जनो ! ( प्रिये अहनि ) प्रिय, मनोहर किसी दिन ( ईजानः ) यज्ञ वा आप लोगों का सत्संग करता हुआ पुरुष (वः ) आप लोगों को (वराय ) स्वीकार करने के लिये ( महीः इषः दाशति ) अपनी उत्तम २ इच्छाएं प्रकट करता और बड़े पूज्य अन्नादि समृद्धियों वा सैन्य का प्रदान करता है वह ( युष्माकं अवसा ) आप लोगों के ही ज्ञान और बल से ( द्विषः ) अप्रीतिकर भावों और शत्रुओं को ( तरति ) पार कर जाता है । ( सः ) और वह ( क्षयं ) अपने ऐश्वर्य को ( प्र तिरते ) खूब बढ़ा लेता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ १-११ मरुतः। १२ रुद्रो देवता, मृत्युविमोचनी॥ छन्दः १ निचृद् बृहती। ३ बृहती। ६ स्वराड् बृहती। २ पंक्ति:। ४ निचृत्पंक्तिः। ५, १२ अनुष्टुप्। ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्। ९,१० गायत्री। ११ निचृद्गायत्री॥

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    विषय

    सत्संगी बनो

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (देवाः) = विद्वान् जनो! (प्रिये अहनि) = किसी उत्तम दिन (ईजान:) = आप का सत्संग करता हुआ पुरुष (व:) = आप को (वराय) = स्वीकार करने के लिये (महीः इषः दाशति उत्तम) = उत्तम इच्छाएँ प्रकट करता और अन्नादि समृद्धियों को देता है, वह (युष्माकं अवसा) = आपके ज्ञान और बल से (द्विषः) = शत्रुओं को (तरति) = पार कर जाता है। (सः) = वह (क्षयं) = ऐश्वर्य को (प्र तिरते) = खूब बढ़ा लेता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- मनुष्यों को योग्य है कि वे श्रेष्ठ विद्वानों की संगति करें। अपने अन्दर उत्पन्न होनेवाली इच्छाओं की पूर्ति करने की विधि पूछें। इससे ज्ञान और बलों को बढ़ाकर अपने आन्तरिक व बाहरी शत्रुओं का नाश करें तथा अन्न और ऐश्वर्य की खूब वृद्धि करके सुखी हों।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जे दुष्टांचे निवारक, सर्व रक्षक, विद्या ऐश्वर्यप्रद, सुखाने वसविणारे विद्वान असतील तर त्यांची सेवा व संग करून विद्या प्राप्त करा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O vibrant powers of light and justice, by virtue of your patronage and protections, the man of yajnic action, who works for the growth and progress of society and performs holy acts of creativity in good time, overcomes all adversaries. The generous man who gives abundantly in terms of lands, food and energy in word and kind to people in your honour for the good of all expands his house and dominion and rules out all waste, impairment and decay.

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