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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 63/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नू मि॒त्रो वरु॑णो अर्य॒मा न॒स्त्मने॑ तो॒काय॒ वरि॑वो दधन्तु । सु॒गा नो॒ विश्वा॑ सु॒पथा॑नि सन्तु यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । मि॒त्रः । वरु॑णः । अ॒र्य॒मा । नः॒ । त्मने॑ । तो॒काय॑ । वरि॑वः । द॒ध॒न्तु॒ । सु॒ऽगा । नः॒ । विश्वा॑ । सु॒ऽपथा॑नि । स॒न्तु॒ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू मित्रो वरुणो अर्यमा नस्त्मने तोकाय वरिवो दधन्तु । सुगा नो विश्वा सुपथानि सन्तु यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु । मित्रः । वरुणः । अर्यमा । नः । त्मने । तोकाय । वरिवः । दधन्तु । सुऽगा । नः । विश्वा । सुऽपथानि । सन्तु । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ७.६३.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 63; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मित्रः) अध्यापकः (वरुणः) उपदेशकश्च (अर्यमा) न्यायकारी, विद्वान् एते सर्वे विद्वांसः (नः) अस्माकम् (त्मने) आत्मने (तोकाय) सन्तानाय च (वरिवः) धनम् “वरिव इति धननामसु पठितम्” ॥ निरु० ३।९॥ (दधन्तु) प्रयच्छन्तु (नः) अस्माकं (विश्वा) सर्वाणि (सुपथानि) मार्गाः (सुगा) सुखेन गन्तुं योग्याः (सन्तु) भवन्तु, हे अध्यापकोपदेशकगण ! (यूयम्) भवन्तः (स्वस्तिभिः) (नः) अस्मान् (सदा) (पात) रक्षत ॥६॥

    भावार्थः

    इति त्रयष्षष्टितमं सूक्तं समाप्तम्।

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (नु) निश्चय करके (मित्रः) सबका मित्र (वरुणः) वरणीय=सबका प्राप्य स्थान (अर्यमा) न्यायकारी परमात्मा (नः) हमारे (त्मने) आत्मा के (तोकाय) सुखप्राप्त्यर्थ (वरिवः) सब प्रकार का ऐश्वर्य (दधन्तु) धारण करायें अथवा अन्न धन आदि से सम्पन्न करें ताकि (विश्वा) सब (सुगा) मार्ग (नः) हमारे लिए (सुपथानि) सुमार्ग (सन्तु) हों और हे भगवन् ! (यूयं) आप (स्वस्तिभिः) कल्याणयुक्त वाणियों से (नः) हमको (सदा) सदा (पात) पवित्र करें ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना है कि हे प्रभो ! आप हमारे लिए सर्वदा=सब काल में कल्याणदायक हों और आपकी कृपा से हमको सब ऐश्वर्य तथा सुखों की प्राप्ति हो। इस मन्त्र में जो मित्र, वरुण तथा अर्यमा शब्द आये हैं, वे सब परमात्मा के नाम हैं, “शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा” ॥ यजु॰ ३६।९॥ में मित्रादि सब नाम परमात्मा के हैं ॥ कहीं मित्र, वरुण के अर्थ अध्यापक तथा उपदेशक, कहीं प्राणवायु तथा उदानवायु और कहीं परमात्मा करते हो, आपके इस भिन्नार्थ करने में क्या हेतु है? इसका उत्तर यह है कि जैसे एक ही “ब्रह्म” शब्द कहीं वेद का वाचक, कहीं प्रकृति का वाचक, कहीं अन्न का और मुख्यतया परमात्मा का वाचक है, इसी प्रकार उपर्युक्त नाम मुख्यतया ब्रह्म के प्रतिपादक हैं और गौणी वृत्ति से अध्यापक तथा उपदेशक आदि नामों में भी वर्त्तते हैं। इसी भाव को महर्षि व्यास ने “स्याच्चैकस्य ब्रह्मशब्दवत्” ब्र० सू० २।३।५॥ में यह वर्णन किया है कि एक ही शब्द प्रकरणभेद से ब्रह्म शब्द के समान नाना अर्थों का वाचक होता है, इसलिए कोई विरोध नहीं ॥६॥ ६३ वाँ सूक्त समाप्त हुआ।

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    विषय

    सूर्यवत् सन्मार्ग में गति, मित्र और वरुण का आदर ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो सू० ६२ । मं० ६ ॥ इति पञ्चमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १ – ५ सूर्यः । ५, ६ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विद्वानों से प्रेरणा

    पदार्थ

    पदार्थ - (नु) = अवश्य, शीघ्र ही (मित्रः) = स्नेहवान् और सर्वमित्र विद्वान् (वरुणः) = श्रेष्ठ पुरुष (अर्यमा) = न्यायकारी पुरुष (नः) = हमारे (त्मने) = अपने लिये (नः तोकाय) = हमारे पुत्र के लिये भी (वरिवः) = उत्तम धन (दधन्तु) = दें जिससे (न:) = हमारे (विश्वा) = सब कार्य सुगासुगम और (सुपथानि) = उत्तम मार्ग युक्त (सन्तु) = हों। हे विद्वान् जनो! (यूयं नः सदा स्वस्तिभिः पात) = आप हमारी सदा कल्याण-साधनों से रक्षा करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- विद्वान् जन मित्रवत् व्यवहार करते हुए लोगों को न्यायपूर्ण आचरण तथा पुरुषार्थ पूर्वक धन कमाने के लिए प्रेरणा करें। जिससे प्रजा अपने पुत्रादि सन्तानों को भी सुमार्ग पर चलाकर ऐश्वर्य सम्पन्न बना सके तथा कल्याण साधनों का संग्रह कर सके। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ और देवता मित्रावरुण है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thus the loving light of life, the leading light of judgement and discrimination, and the path maker to the divine destination of eternal truth and bliss may, we pray, bless us with the best gifts of life for our soul and the continuance of our race. May all our paths of life and progress be simple, straight and easy to follow. O saints and sages, scholars and teachers, protect and promote us by the paths of rectitude with all modes and means of happiness and well being for all time without relent.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमेश्वराची प्रार्थना केली जाते, की हे प्रभू! तू नेहमी कल्याणकारी हो. तुझ्या कृपेने आम्हाला सर्व ऐश्वर्य मिळावे व सुखाची प्राप्ती व्हावी. या मंत्रात मित्र, वरुण व अर्यमा शब्द आलेले आहेत, ती सर्व परमेश्वराची नावे आहेत. ‘शंनो मित्र: वरुण: शंनो भवत्वर्यमा’ यजु. ३६/९ मध्ये मित्र इत्यादी सर्व प्रश्न : कुठे मित्र, वरुण, अध्यापक, उपदेशक कुठे प्राणवायू व उदानवायू, तर कुठे परमात्मा म्हणता. तुमच्या भिन्नार्थ करण्याचा हेतू काय?

    टिप्पणी

    उत्तर - याचे उत्तर हे, की जसे एकच ‘ब्रह्म’ शब्द कधी वेदाचा वाचक, कधी प्रकृतिवाचक, कधी अन्न व मुख्यत्वे परमात्माचा वाचक आहे. त्याचप्रमाणे वरील नावे मुख्यत्वे ब्रह्माचे प्रतिपादक असून, गौण वृत्तीने अध्यापक व उपदेशक या अर्थाने येतात. याच भावाला महर्षी व्यासाने ‘स्याच्चैकस्य ब्रह्मशब्दवत्’ ॥ ब्र. सू. २/३/५ ॥ मध्ये हे वर्णन केलेले आहे, की एकच शब्द प्रकरण भेदाने ब्रह्मशब्दाप्रमाणे वेगवेगळ्या अर्थाचे वाचक आहेत. त्यामुळे कोणताही विरोध नाही. ॥६॥

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