ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 69/ मन्त्र 2
स प॑प्रथा॒नो अ॒भि पञ्च॒ भूमा॑ त्रिवन्धु॒रो मन॒सा या॑तु यु॒क्तः । विशो॒ येन॒ गच्छ॑थो देव॒यन्ती॒: कुत्रा॑ चि॒द्याम॑मश्विना॒ दधा॑ना ॥
स्वर सहित पद पाठसः । प॒प्र॒था॒नः । अ॒भि । पञ्च॑ । भूम॑ । त्रि॒ऽव॒न्धु॒रः । म॒न॒सा । या॒तु॒ । यु॒क्तः । विशः॑ । येन॑ । गच्छ॑थः । दे॒व॒ऽयन्तीः॑ । कुत्र॑ । चि॒त् । याम॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । दधा॑ना ॥
स्वर रहित मन्त्र
स पप्रथानो अभि पञ्च भूमा त्रिवन्धुरो मनसा यातु युक्तः । विशो येन गच्छथो देवयन्ती: कुत्रा चिद्याममश्विना दधाना ॥
स्वर रहित पद पाठसः । पप्रथानः । अभि । पञ्च । भूम । त्रिऽवन्धुरः । मनसा । यातु । युक्तः । विशः । येन । गच्छथः । देवऽयन्तीः । कुत्र । चित् । यामम् । अश्विना । दधाना ॥ ७.६९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 69; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सः) स रथः (पप्रथानः) विस्तृतः (पञ्च, भूमा, अभि, युक्तः) पृथिव्यादिपञ्चतत्त्वैर्निर्मितः (त्रिवन्धुरः) बन्धत्रयेण बद्धोऽस्ति (येन) रथेन (विशः) जनाः गच्छन्तः (देवयन्तीः) दिव्यज्योतींषि प्रति (गच्छथः) यान्ति, (अश्विना) हे राजपुरुषाः ! एवं भूतं (यामम्) दिव्यरथं (मनसा) हृदयेन (दधाना) धारयन्तः (कुत्रचित्) सर्वत्र (यातु) विचरन्तु भवन्त इति शेषः ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सः) वह रथ जो (पप्रथानः) विस्तृत (पञ्च, भूमा, अभि, युक्तः) पाँच भूतों से बना हुआ और (त्रिवन्धुरः) तीन बन्धनों से बन्धा हुआ है, (येन) जिससे (विशः) मनुष्य यात्रा करते हुए (देवयन्तीः, गच्छथः) दिव्य ज्योति की ओर जाते हैं। (अश्विना) हे राजपुरुषों ! (यामं) ऐसे दिव्य रथ को (मनसा, दधाना) मनसे धारण करते हुए (कुत्रचित्) सर्वत्र (यातु) विचरो ॥२॥
भावार्थ
हे राजपुरुषो ! वह शरीररूपी रथ क्षिति, जल, पावक, गगन तथा वायु इन पाँच तत्त्वों=भूतों से बना हुआ जानो और जिसमें सत्त्व, रज, तम इन तीनों गुणों के बन्धन लगे हुए हैं अर्थात् इनसे जगह-जगह पर बन्धा हुआ है, जिससे यात्रा करते हुए मनुष्य उस दिव्य ज्योति परमात्मा को प्राप्त होते हैं, जो मनुष्यजीवन का मुख्य उद्देश्य है। परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे संसार के यात्री लोगो ! तुम इस दिव्य रथ को मन से धारण करते हुए सर्वत्र विचरो अर्थात् मन को दमन करते हुए इस रथ में इन्द्रियरूप बड़े बलवान् घोड़े जुते हुए हैं, जो मनरूप रासों को दृढता से पकड़े विना कदापि वशीभूत नहीं हो सकते, इसलिए तुम मनरूप रासों को दृढ़ता से पकड़ो अर्थात् मन की चञ्चल वृत्तियों को स्थिर करो, ताकि ये इन्द्रियरूप घोड़े इस शरीररूप रथ को विषम मार्ग में ले जाकर किसी गर्त में न गिरायें ॥ इस मन्त्र में परमात्मा ने आध्यात्मिक उपदेश किया है, यही भाव कठ० ३।३ में इस प्रकार वर्णित है कि :−आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। बुद्धिन्तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ अर्थ–इस आत्मा को रथी जान, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथी और मन को रासें जान। फिर आगे कठ० ३।९ में यह वर्णन किया है कि–विज्ञानसारथिर्यस्तु मनःप्रग्रहवान्नरः। सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम्॥ जो पुरुष संस्कृतबुद्धिरूप सारथीवाला तथा संस्कृत मनरूप रासोंवाला है, वह इस संसार से पार होकर व्यापक परमात्मा के सर्वोपरि प्राप्य स्थान को प्राप्त होता है। इसी उच्च भाव का उपदेश उपर्युक्त मन्त्रों में परमात्मा ने किया है। इस उच्चोपदेश को न समझकर सायणादि भाष्यकारों ने इस रथ को अश्विनीकुमारों का लिखा है, जो एक अप्रसिद्ध देवता है और उस रथ का आकाशमार्ग से यजमानों के यज्ञ में आना लिखा है। कहीं-कहीं इसको सूर्य्य का रथ कल्पना करके और उसमें बलवान् घोड़े जोत कर उसकी गति ऐसी वर्णन की है कि वह क्षणमात्र में सहस्रों कोस पहुँच जाता है, इत्यादि कल्पनायें वेदाशय से सर्वथा विरुद्ध हैं, क्योंकि यहाँ पाँच भूत और सत्त्वादि तीनों गुणोंवाले शरीररूप रथ का वर्णन है, जिसमें रथी जीवात्मा स्थित है। इससे स्पष्ट है कि यह रथ किसी देवता वा सूर्यादि का नहीं, किन्तु यह रथ प्रत्येक आत्मा को प्राप्त है। इस भाव को रूपकालङ्कार से परमात्मा ने वर्णन किया है, जो मनुष्यमात्र को शिक्षाप्रद और उपादेय है ॥२॥
विषय
रथी-सारथिवत् पति-पत्नी के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार रथ (त्रि-वन्धुरः) सारथि आदि के बैठने के योग्य तीन स्थानों से युक्त होता है जिनसे ( कुत्र चित् यामं दधाता ) कहीं भी जाना चाहते हुए रथि सारथी जा सकते हैं उसी प्रकार हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! ( सः ) वह विद्वान् और वीर पुरुष ( भूमा ) महान् सामर्थ्य से युक्त, ( पञ्च अभि ) पांचों जनों के समक्ष ज्ञान और बल का विस्तार करता हुआ ( त्रि-वन्धुरः ) तीनों वेदों को धारण करने वाला, और तीन प्रकार के बल का आश्रय, होकर ( मनसा ) ज्ञान और प्रबल चित्त से युक्त होकर ( अभि यातु ) आगे आवे । ( येन ) जिसकी सहायता से आप दोनों विद्वान् स्त्री पुरुष राजा रानी, ( देवयन्तीः विशः ) कामना युक्त प्रजाओं को ( गच्छथः ) प्राप्त होते और ( कुत्र चित् ) जहां चाहे कहीं भी ( यामं दधाना ) गमन प्रयाण, परस्पर वैवाहिक बन्धन और राज्य प्रबन्ध को धारण करते हुए ( गच्छथः ) प्राप्त होते हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, ४, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ७ त्रिष्टुप् । ३ आर्षी स्वराट् त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
राज्य-प्रबन्ध
पदार्थ
पदार्थ - जैसे रथ (त्रि-बन्धुरः) = सारथि आदि के बैठने के योग्य तीन स्थानों से युक्त होता है जिनसे (कुत्र चित् यामं दधाता) = कहीं भी जाना चाहते हुए रथी सारथी जाते हैं वैसे ही हे (अश्विना) = जितेन्द्रिय स्त्री-पुरुषो! (सः) = वह विद्वान् और वीर पुरुष (भूमा) = महान् सामर्थ्य से युक्त, (पञ्च अभि) = पाँचों जनों के समक्ष ज्ञान और बल का विस्तार करता हुआ (त्रि-बन्धुरः) = तीनों वेदों का धारक और तीन प्रकार के बल का आश्रय होकर, (मनसा) = ज्ञान और प्रबल चित्त से युक्त होकर (अभि यातु) = आगे आवे । (येन) = जिसकी सहायता से आप दोनों स्त्री-पुरुष, राजा-रानी, (देवयन्तीः विशः) = कामनायुक्त प्रजाओं को (गच्छथः) = प्राप्त होते और (कुत्र चित्) = जहाँ चाहे कहीं भी (यामं दधानां) = गमन, परस्पर वैवाहिक बन्धन और राज्य प्रबन्ध को धारण करते हुए (गच्छथः) = प्राप्त होते हो।
भावार्थ
भावार्थ - राजा व रानी जितेन्द्रिय और सामर्थ्यवान् होवें। वे अपनी पाँचों प्रकार की प्रजाओं (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद) को वेद ज्ञान तथा बल से युक्त करने की व्यवस्था करें और राज्य प्रबन्ध में दोनों कुशल होवें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Let this chariot structured on five-fold body bound by three bonds come to us evolving day by day. It is structured on a five-fold chassis fixed by three bonds in an ascending order and it moves forward as controlled by the mind. By this, O Ashvins, you come to the people and radiate light and energy to those who are in search of divinity. On way, you choose your own stages of rest and travel for further progress.$(This mantra is a metaphor of the human body in which the ruler is soul, the controller is mind, and motive forces for perception and volition are senses. The body is made up of five elements: earth, water, fire, air and space, and characterised by three conditioning qualities of nature: sattva, rajas and tamas which are intellectual, sensual and material qualities of personality. It is through this body-chariot that the Ashvins, circuitous complementarities of divine nature radiate and inspire light and energy to the human being and to humanity too as one personality.)
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजपुरुषांनो! हा शरीररूपी रथ क्षिती, जल, पावक, गगन, वायू या पाच तत्त्वांनी = भूतांनी बनलेला आहे व ज्यात सत्त्व, रज, तम या तीन गुणांचे बंधन आहे. अर्थात, यांच्याशी सतत बांधलेला आहे. ज्याद्वारे यात्रा करताना माणसे या दिव्य ज्योती परमात्म्याला प्राप्त करतात. जो मानवी जीवनाचा मुख्य उद्देश आहे. परमात्मा उपदेश करतो, की हे संसार यात्रा करणाऱ्या लोकांनो! तुम्ही या दिव्य रथाला मनाने धारण करून सर्वत्र वावरा. अर्थात, या रथाला इंद्रियरूपी मोठे बलवान घोडे जुंपलेले आहेत. मनाला दमन करून मनरूपी लगामाला दृढतेने पकडल्याशिवाय ते कधीही वशीभूत होऊ शकत नाहीत. त्यासाठी तुम्ही मनरूपी लगाम दृढतेने धरा व चंचलवृत्ती स्थिर करा. हे इंद्रियरूपी घोडे या शरीररूपी रथाला विषम मार्गाने नेतात. त्यामुळे त्यांनी खड्ड्यात पाडता कामा नये.
टिप्पणी
या मंत्रात परमेश्वराने आध्यात्मिक उपदेश केलेला आहे. हाच भाव कठ. ३/३ मध्ये या प्रकारे आहे - $ आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु । $ बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च ॥ $ भावार्थ - या आत्म्याला रथी समज, शरीराला रथ, बुद्धीला सारथी व मनाला लगाम समज. कठ. ३ मध्ये हे म्हटलेले आहे - $ विज्ञानसारथिर्यस्तु मन: प्रग्रहवान्नर: । $ सोऽध्वन: पारमाप्नोति तदिष्णो: परमं पदम् ॥ क.९ $ भावार्थ - जो मनुष्य संस्कृत बुद्धिरूपी सारथीयुक्त व संस्कृत मनरूपी लगामयुक्त असतो, तो या संसारातून पार पडून व्यापक परमेश्वराचे परमोच्च स्थान प्राप्त करतो याच उच्च भावाचा उपदेश वरील मंत्रात परमेश्वराने केलेला आहे. या उच्चोपदेशाला न समजता सायण इत्यादी भाष्यकारांनी या रथाला अश्विनीकुमारांचा लिहिलेला आहे. जे अप्रसिद्ध देवता आहेत व आकाशमार्गातून त्या रथाचे यजमानाच्या यज्ञात आगमन लिहिलेले आहे. काही ठिकाणी त्याला सूर्याचा रथ ही कल्पना करून व त्यात बलवान घोडे जुंपून त्यांच्या गतीचे वर्णन आहे, की तो क्षणात हजारो मैल पोचू शकतो. या कल्पना वेदांशयाच्या विरुद्ध आहेत. कारण पाच भूत व सत्वादी तीन गुणयुक्त शरीररूप रथाचे वर्णन आहे. ज्यात रथी जीवात्मा स्थित आहे. यावरून हे स्पष्ट होते, की हा रथ एखाद्या देवता किंवा सूर्य इत्यादीचा नाही; परंतु हा रथ प्रत्येक आत्म्याला प्राप्त असतो. या भावाचे रूपकालंकाराने परमेश्वराने वर्णन केलेले आहे. जो माणसांना शिकवणूक देणारा असून उपादेय आहे ॥२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal