ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 70/ मन्त्र 1
आ वि॑श्ववाराश्विना गतं न॒: प्र तत्स्थान॑मवाचि वां पृथि॒व्याम् । अश्वो॒ न वा॒जी शु॒नपृ॑ष्ठो अस्था॒दा यत्से॒दथु॑र्ध्रु॒वसे॒ न योनि॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वि॒श्व॒ऽवा॒रा॒ । अ॒श्वि॒ना॒ । ग॒त॒म् । नः॒ । प्र । तत् । स्थान॑म् । अ॒वा॒चि॒ । वा॒म् । पृ॒थि॒व्याम् । अश्वः॑ । न । वा॒जी । शु॒नऽपृ॑ष्ठः । अ॒स्था॒त् । आ । यत् । से॒दथुः॑ । ध्रु॒वसे॑ । न । योनि॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ विश्ववाराश्विना गतं न: प्र तत्स्थानमवाचि वां पृथिव्याम् । अश्वो न वाजी शुनपृष्ठो अस्थादा यत्सेदथुर्ध्रुवसे न योनिम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । विश्वऽवारा । अश्विना । गतम् । नः । प्र । तत् । स्थानम् । अवाचि । वाम् । पृथिव्याम् । अश्वः । न । वाजी । शुनऽपृष्ठः । अस्थात् । आ । यत् । सेदथुः । ध्रुवसे । न । योनिम् ॥ ७.७०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 70; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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विषय - अब ज्ञानी तथा विज्ञानियों द्वारा यज्ञों का सुशोभित होना कथन करते हैं।
पदार्थ -
(विश्ववारा, अश्विना) हे वरणीय विद्वज्जनों ! (आगतं) आप आकर (नः) हमारे यज्ञ को (आ) भले प्रकार सुशोभित करें (वां) तुम्हारे लिए (तत्) उस (पृथिव्यां) पृथिवी में (शुनपृष्ठः) सुखपूर्वक बैठने के लिए (स्थानं) स्थान=वेदि (अवाची) बनाई गई है, (यत्) जो (योनिं, न) केवल बैठने को ही नहीं, किन्तु (ध्रुवसे, सेदथुः) दृढ़ता में स्थिर करनेवाली है। आप लोग (प्र) हर्षपूर्वक (वाजी, अश्वः, न) बलवान् अश्व के समान (अस्थात्) शीघ्रता से आयें ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा उपदेश करते हैं कि याज्ञिक लोगो ! तुम अपने यज्ञों में ज्ञानी और विज्ञानी दोनों प्रकार के विद्वानों को सत्कारपूर्वक बुलाकर यज्ञवेदि पर बिठाओ और उनसे नाना प्रकार के सदुपदेश ग्रहण करो, क्योंकि यह वेदि केवल बैठने के लिए ही नहीं, किन्तु यज्ञकर्मों की दृढ़ता में स्थिर करानेवाली है ॥ तात्पर्य्य यह है कि जिन यज्ञों में ज्ञानी और विज्ञानी दोनों प्रकार के विद्वानों को निमन्त्रित कर सत्कार किया जाता है, वे यज्ञ सुशोभित और कृतकार्य्य होते हैं। आध्यात्मिक विद्या के जाननेवाले “ज्ञानी” और कला-कौशल की विद्या को जाननेवाले “विज्ञानी” कहाते हैं, अथवा पदार्थों के ज्ञाता को “ज्ञानी” और अनुष्ठाता को “विज्ञानी” कहते हैं। वह विद्वान्, पुरुषार्थी तथा अश्व के समान शीघ्रगामी केवल तुम्हारे स्थानों को ही सुशोभित करनेवाले न हों, किन्तु दृढ़तारूप व्रत में स्थिर करें। उक्त दोनों प्रकार के विज्ञानों से ही यज्ञ सफल होता है, अन्यथा नहीं ॥१॥
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विषयः - अथ ज्ञानभिर्विज्ञानिभिश्च यज्ञाः सम्भावनीया इत्युपदिश्यते।
पदार्थः -
(विश्ववारा, अश्विना) हे वर्य्या विद्वज्जनाः, यूयं (आगतम्) आगत्य (नः) अस्माकं यज्ञं (आ) सम्यक् सम्भावयत (वाम्) युष्मभ्यं (तत्) तत्र (पृथिव्याम्) धरातले (शुनपृष्ठः) सुखेनासितुं (स्थानम्) वेदिरूपं स्थलं (अवाची) निर्वाचितमस्ति (यत्) स्थानं (न, योनिम्) न केवलमासनं किन्तु (ध्रुवसे, सेदथुः) दृढतायै स्थैर्यदायकमपि वर्त्तते, भवन्तः (प्र) हर्षेण (वाजी, अश्वः, न) वल्गन्तोऽश्वा इव शीघ्रतया (अस्थात्) आगच्छत ॥१॥
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Meaning -
Ashvins, world heroes of universal choice, come to our yajna. The seat on the earth vedi is fixed, reserved and proclaimed for you and stays like a war horse at rest after victory. That you would occupy without disturbance as in your own home and there be firm as the pole star.
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भावार्थ - परमात्मा उपदेश करतो, की हे याज्ञिकांनो! तुम्ही आपल्या यज्ञात ज्ञानी व विज्ञानी दोन्ही प्रकारच्या विद्वानांना सत्कारपूर्वक बोलावून यज्ञवेदीवर बसवा व त्यांच्याकडून नाना प्रकारचा सदुपदेश ग्रहण करा. कारण ही वेदी बसण्यासाठी नाही, तर यज्ञकर्माच्या दृढतेमध्ये स्थिर करविणारी आहे.
टिप्पणी -
तात्पर्य हे, की ज्या यज्ञात ज्ञानी व विज्ञानी दोन्ही प्रकारच्या विद्वानांना आमंत्रित करून सत्कार केला जातो ते यज्ञ सुशोभित व कृतकार्य होतात. अध्यात्मविद्या जाणणारे ‘ज्ञानी’ व कलाकौशल्य विद्या जाणणारे ‘विज्ञानी’ म्हणविले जातात किंवा पदार्थांच्या ज्ञात्याला ‘ज्ञानी’ व अनुष्ठात्याला ‘विज्ञानी’ म्हणतात. ते विद्वान पुरुषार्थी व अश्वाप्रमाणे शीघ्रगामी केवळ तुमच्या स्थानांनाच सुशोभित करणारे नसावे, तर तुम्हाला दृढतारूपी व्रतात स्थिर करणारे असावेत. वरील दोन्ही प्रकारच्या विज्ञानांनीच यज्ञ सफल होतो, अन्यथा नाही. ॥१॥
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