ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 73/ मन्त्र 2
न्यु॑ प्रि॒यो मनु॑षः सादि॒ होता॒ नास॑त्या॒ यो यज॑ते॒ वन्द॑ते च । अ॒श्नी॒तं मध्वो॑ अश्विना उपा॒क आ वां॑ वोचे वि॒दथे॑षु॒ प्रय॑स्वान् ॥
स्वर सहित पद पाठनि । ऊँ॒ इति॑ । प्रि॒यः । मनु॑षः । सा॒दि॒ । होता॑ । नास॑त्या । यः । यज॑ते । वन्द॑ते । च॒ । अ॒श्नी॒तम् । मध्वः॑ । अ॒श्वि॒नौ॒ । उ॒पा॒के । आ । वा॒म् । वो॒चे॒ । वि॒दथे॑षु । प्रय॑स्वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न्यु प्रियो मनुषः सादि होता नासत्या यो यजते वन्दते च । अश्नीतं मध्वो अश्विना उपाक आ वां वोचे विदथेषु प्रयस्वान् ॥
स्वर रहित पद पाठनि । ऊँ इति । प्रियः । मनुषः । सादि । होता । नासत्या । यः । यजते । वन्दते । च । अश्नीतम् । मध्वः । अश्विनौ । उपाके । आ । वाम् । वोचे । विदथेषु । प्रयस्वान् ॥ ७.७३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 73; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(नासत्या) हे सत्यवादिनो विद्वांसः ! (यः) यः (होता) जिज्ञासुः (यजते) यज्ञं करोति (वन्दते च) स्तौति च, सः (प्रियः) परमात्मप्रियः (मनुषः) मनुष्यः (निसादि) तत्रैव स्थितिं लभते लब्ध्वा च (मध्वम्) मधुविद्यारसं (अश्नीतम्) अनुभवति। (अश्विना) हे अध्यापकोपदेशकौ ! स पुरुषः (विदथेषु) यज्ञेषु (प्रयस्वान्) अन्नादिकं दत्त्वा (वाम्) युष्मान् (आ वोचे) आह्वयति (उपाके) भवत्समीपे स्थितो ब्रह्मविद्यां लभते ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(नासत्या) हे सत्यवादी विद्वानों ! (यः) जो (होता) जिज्ञासु (यजते) यज्ञ करता (च) और (वन्दते) वन्दना करता है, वह (प्रियः) परमात्मा का प्रिय (मनुषः) पुरुष (निसादि) उसी में स्थित होकर (अश्नीतं मध्वं) मधुविद्या का रसपान करता अर्थात् मधुविद्या का जाननेवाले होता है। (अश्विना) हे अध्यापक तथा उपदेशको ! वह पुरुष (विदथेषु) यज्ञों में (प्रयस्वान्) अन्नादि पदार्थों का पान करके (वां) तुम्हारा (वोचे) आह्वान करता (आ) और (उपाके) तुम्हारे समीप स्थिर होकर ब्रह्मविद्या का लाभ करता है ॥२॥
भावार्थ
जो पुरुष यज्ञादि कर्म करता हुआ परमात्मा की उपासना में प्रवृत्त रहता है, वह परमात्मा का प्रिय पुरुष परमात्माज्ञापालन करता हुआ मधुविद्या का रसपान करनेवाला होता है। मधुविद्या का विस्तारपूर्वक वर्णन “बृहदारण्यकोपनिषद्” में किया गया है। विशेष जाननेवाले वहाँ देख लें, यहाँ विस्तारभय से उद्घृत नहीं किया, वही पुरुष ऐश्वर्य्यशाली होकर यज्ञों में दान देनेवाला होता, वही विद्वानों का सत्कार करनेवाला होता और वही ब्रह्मविद्या का अधिकारी होता है। इससे सिद्ध है कि याज्ञिक पुरुष ही ब्रह्म का समीपी होता है, अन्य नहीं ॥२॥
विषय
उन के कर्तव्य और उपदेश ।
भावार्थ
हे ( नासत्या ) प्रमुख, सत्यनिष्ठ, ( अश्विना ) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! ( यः ) जो ( प्रियः ) प्रिय ( मनुषः ) मननशील, (होता) ज्ञान का देने वाला, पुरुष ( यजते ) यज्ञ करता, (वन्दते च ) भगवान् की स्तुति करता या ज्ञान देता, सत्संग करता और प्रणाम और उपदेशादि करता है और जो ( विदथेषु ) यज्ञों और संग्रामों में ( प्रयस्वान्) प्रयत्नशील होकर (वाम् आ वोचे ) तुम दोनों की अभ्यर्थना करता है आप उसके ( उपाके ) समीप ( मध्वः अश्नीतं ) मधु, ज्ञान और अन्नादि प्राप्त करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते । छन्दः—१, ५ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
यज्ञ और वन्दना
पदार्थ
पदार्थ- हे (नासत्या) = सत्यनिष्ठ, (अश्विना) = जितेन्द्रिय स्त्री-पुरुषो! (यः) = जो (प्रियः) = प्रिय (मनुषः) = मननशील, (होता) = ज्ञानदाता पुरुष (यजते) = यज्ञ करता, (वन्दते च) = भगवान् की स्तुति करता, या उपदेशादि करता है और जो (विदथेषु) = यज्ञों में (प्रयस्वान्) = प्रयत्नशील होकर (वाम् आ वोचे) = तुम दोनों की अभ्यर्थना करता है, आप उसके उपाके समीप (मध्वः अश्नीतं) = ज्ञान और अन्नादि प्राप्त करो।
भावार्थ
भावार्थ- सत्यनिष्ठ स्त्री-पुरुष विचारपूर्वक नित्य प्रति यज्ञ एवं ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना उपासना करते हुए ज्ञान का संग्रह करें तथा उपदेश द्वारा अन्यों का मार्गदर्शन करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
O light and love of life divine, Ashvins, harbingers of bliss, the person who joins the divine consciousness in concentration, worships the lord of bliss and surrenders his carnal self in communion, gets settled in the peace of samadhi. Come close into the heart, O light of divinity and radiations of super life, suffuse this spirit in the honey sweets of bliss, so says the yajamana in union to you in the sessions of yoga yajna.
मराठी (1)
भावार्थ
जो पुरुष यज्ञ इत्यादी कर्म करून परमेश्वराच्या उपासनेत प्रवृत्त होतो तो पुरुष परमात्म्याच्या आज्ञेचे पालन करीत मधुविद्येचे रसपान करणारा असतो. मधुविद्येचे विस्तारपूर्वक वर्णन ‘बृहदारण्यकोपनिषद’मध्ये केलेले आहे. विशेष जाणू इच्छिणाऱ्यांनी तेथे पाहावे. येथे विस्तारभयाने उद्धृत केलेले नाही. तोच पुरुष ऐश्वर्यवान बनून यज्ञात दान देणारा होता, विद्वानांचा सत्कार करणारा होता व ब्रह्मविद्येचा अधिकारी असतो. यावरून सिद्ध होते, की याज्ञिक पुरुषच ब्रह्माच्या समीप असतो, इतर नसतो. ॥२॥
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