ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 74/ मन्त्र 6
प्र ये य॒युर॑वृ॒कासो॒ रथा॑ इव नृपा॒तारो॒ जना॑नाम् । उ॒त स्वेन॒ शव॑सा शूशुवु॒र्नर॑ उ॒त क्षि॑यन्ति सुक्षि॒तिम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ये । य॒युः । अ॒वृ॒कासः । रथाः॑ऽइव । नृ॒ऽपा॒तारः । जना॑नाम् । उ॒त । स्वेन॑ । शव॑सा । शू॒शु॒वुः॒ । नरः॑ । उ॒त । क्षि॒य॒न्ति॒ । सु॒ऽक्षि॒तिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ये ययुरवृकासो रथा इव नृपातारो जनानाम् । उत स्वेन शवसा शूशुवुर्नर उत क्षियन्ति सुक्षितिम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । ये । ययुः । अवृकासः । रथाःऽइव । नृऽपातारः । जनानाम् । उत । स्वेन । शवसा । शूशुवुः । नरः । उत । क्षियन्ति । सुऽक्षितिम् ॥ ७.७४.६
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 74; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ये) ये यजमानाः (अवृकासः) सरलप्रकृतयः सन्तः (प्रययुः) वेदमार्गं प्राप्ताः, अन्यच्च (नृपातारः) नृणां रक्षितारः (रथा इव) यानानीव (उत) अन्यच्च (जनानाम्) प्रजानां (स्वेन) स्वेन (शवसा) यशसा (शूशुवुः) सुशोभते (उत) अपरं च त एव नराः (सुक्षितिम्) सुभूमिं (क्षियन्ति) प्राप्नुवन्ति ॥६॥ इति चतुःसप्ततितमं सूक्तमेकविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ये) जो यजमान (अवृकासः) कुटिलताओं को छोड़कर (प्रययुः) वेदमार्ग को प्राप्त होते हैं, वे (नृपातारः रथा इव) राजाओं के रथ के समान सुशोभित होते (उत) और (जनानां) प्रजाओं को (स्वेन) अपने (शवसा) यश से (शूशुवुः) सुशोभित करते हैं (उत) और (नराः) वे ही मनुष्य (सुक्षितिं क्षियन्ति) उत्तम भूमि को प्राप्त होते हैं ॥६॥
भावार्थ
जो यजमान वेदमर्यादा पर चलते हुए अपने ऐश्वर्य्य को बढ़ाते हैं, वे विजयप्राप्त राजाओं के रथ के समान सुशोभित होते हैं अर्थात् जब राजा विजयी होकर अपने देश को आता है, उस समय उसकी प्रजा उसका मान हार्दिक भावों से करती है, इसी प्रकार प्रजा उन नरों का सत्कार अपने हार्दिक भावों से करती है। जो विद्वानों से उत्तम शिक्षा प्राप्त करके तदनुकूल अपने आचरण करते हैं, वे ही अपने यश से सुशोभित होकर प्रजा को सुशोभित करते और वे ही उत्तम भूमि को प्राप्त होते हैं ॥६॥ यह ७४वाँ सूक्त और २१वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
उत्तम नृपालों का वर्णन ।
भावार्थ
( ये ) जो ( अवृकासः ) चोर-स्वभाव से रहित, सत्यनिष्ठ, निश्च्छल ( रथाः ) रथों के समान ( स्वेन शवसा ) अपने ज्ञान सामर्थ्य और प्रबल पराक्रम से ( प्र ययुः ) आगे जाते हैं और जो ( नर: ) नेता जन ( शुशुवुः ) खूब बढ़ते हैं, उन्नति को प्राप्त होते हैं (उत ) और ( सुक्षितिम्) उत्तम भूमि को ( क्षियन्ति ) प्राप्त कर उसमें रहते और उसको ऐश्वर्य युक्त करते हैं वे ही ( जनानां नृपातारः ) सब मनुष्यों को पालन करने में समर्थ, नृपति होते हैं । इत्येकविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, ३ निचृद् बृहती । २, ४, ६ आर्षी भुरिग् बृहती । ५ आर्षी बृहती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
नृपति
पदार्थ
पदार्थ- (ये) = जो (अवृकासः) = चोर स्वभाव से रहित, निश्छल (रथाः) = रथों के समान (स्वेन शवसा) = अपने ज्ञान-सामर्थ्य और पराक्रम से (प्र ययुः) = आगे जाते हैं और जो (नरः) = नेता जन (शूशुवुः) = खूब उन्नति को प्राप्त होते हैं (उत) = और (सुक्षितिम्) = उत्तम भूमि को (क्षियन्ति) = प्राप्त कर उसमें रहते हैं वे ही (जनानां नृपातारः) = सब मनुष्यों को पालने में समर्थ 'नृपति' होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - राष्ट्र का नेतृत्व वर्ग निश्छल, ज्ञानी तथा पराक्रमी होवे। इससे राष्ट्र की उन्नति होगी, राष्ट्र में भ्रष्टाचार नहीं बढ़ेगा तथा प्रजा समृद्ध होगी। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ देवता उषा है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Those who are simple, honest and non-violent saviours and protectors of the people go forward shining as by royal chariots. They, leaders and pioneers, rise by their own strength and find a happy home in the promised land of their own choice.
मराठी (1)
भावार्थ
जे यजमान वेदमर्यादेनुसार वागून आपले ऐश्वर्य वाढवितात ते विजयी राजाच्या रथाप्रमाणे सुशोभित होतात. अर्थात, जेव्हा राजा विजयी होऊन स्वदेशी परततो तेव्हा प्रजा त्याचा हार्दिक सत्कार करते. तसेच जे विद्वानांकडून उत्तम शिक्षण प्राप्त करून तदनुकूल आपले आचारण ठेवतात त्या पुरुषांचा प्रजा सत्कार करते. तेच आपल्या यशाने सुशोभित होऊन प्रजेला सुशोभित करतात व त्यांनाच उत्तम भूमी प्राप्त होते. ॥६॥
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