ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 75/ मन्त्र 1
व्यु१॒॑षा आ॑वो दिवि॒जा ऋ॒तेना॑विष्कृण्वा॒ना म॑हि॒मान॒मागा॑त् । अप॒ द्रुह॒स्तम॑ आव॒रजु॑ष्ट॒मङ्गि॑रस्तमा प॒थ्या॑ अजीगः ॥
स्वर सहित पद पाठवि । उ॒षाः । आ॒वः॒ । दि॒वि॒ऽजाः । ऋ॒तेन॑ । आ॒विः॒ऽकृ॒ण्वा॒ना । म॒हि॒मान॑म् । आ । अ॒गा॒त् । अप॑ । द्रुहः॑ । तमः॑ । आ॒वः॒ । अजु॑ष्टम् । अङ्गि॑रःऽतमा । प॒थ्याः॑ । अ॒जी॒ग॒रिति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
व्यु१षा आवो दिविजा ऋतेनाविष्कृण्वाना महिमानमागात् । अप द्रुहस्तम आवरजुष्टमङ्गिरस्तमा पथ्या अजीगः ॥
स्वर रहित पद पाठवि । उषाः । आवः । दिविऽजाः । ऋतेन । आविःऽकृण्वाना । महिमानम् । आ । अगात् । अप । द्रुहः । तमः । आवः । अजुष्टम् । अङ्गिरःऽतमा । पथ्याः । अजीगरिति ॥ ७.७५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 75; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनो महत्त्वं वर्णयन् ब्रह्ममुहूर्ते ब्रह्मोपासनं वर्ण्यते।
पदार्थः
(उषाः) ब्रह्ममुहूर्तकाले सूर्यस्य विकाशः (दिविजाः) अन्तरिक्षं प्रकाशयन् (ऋतेन) स्वतेजसा (आविष्कृण्वाना) प्रकटो भूत्वा (महिमानम् आ अगात्) परमात्मनो महिमानं दर्शयन् तथा (वि) विशेषतया (तमः) अन्धकारं (अपद्रुहः) दूरीकुर्वन् (आवः) प्रकाशितो भूत्वा (अङ्गिरस्तमा) मनुष्याणामालस्यं निवर्तयन् (अजुष्टं) परमात्मना योजयन् (पथ्याः अजीगः) पथ्याय शुभमार्गाय प्रेरयति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब परमात्मा की महिमा का वर्णन करते हुए उषा=ब्रह्ममुहूर्त्तकाल में ब्रह्मोपासना का विधान कथन करते हैं।
पदार्थ
(उषाः) उषा=ब्रह्ममुहूर्त्तकाल के सूर्य्य का विकाश (दिविजाः) अन्तरिक्ष को प्रकाशित करता हुआ (ऋतेन) अपने तेज से (आविष्कृण्वाना) प्रकट होकर (महिमानम् आ अगात्) परमात्मा की महिमा को दिखलाता और (वि) विशेषतया (तमः) अन्धकार को (अपद्रुहः) दूर करता हुआ (आवः) प्रकाशित होकर (अङ्गिरस्तमा) मनुष्यों में आलस्य को निवृत्त करके (अजुष्टं) परमात्मा के साथ जोड़ता हुआ (पथ्याः अजीगः) पथ्य=शुभमार्ग का प्रेरक होता है ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा की महिमा वर्णन करते हुए यह उपदेश किया है कि हे सांसारिक जनों ! तुम सूर्य्य द्वारा परमात्मा की महिमा का अनुभव करते हुए उनके साथ अपने आपको जोड़ो अर्थात् ब्रह्ममुहूर्त्तकाल में जब सूर्य्य द्युलोक को प्रकाशित करता हुआ अपने तेज से उदय होता है, उस काल में मनुष्यमात्र का कर्तव्य है कि वह आलस्य को त्याग कर परमात्मा की महिमा को अनुभव करते हुए ऋत=सत्य के आश्रित हों, उस महान् प्रभु की उपासना में संलग्न हों और याज्ञिक लोग उसी काल में यज्ञों द्वारा परमात्मा का आह्वान करें अर्थात् मनुष्यमात्र को ब्रह्मज्ञान का उपदेश करें, जिससे सब प्राणी परमात्मा की आज्ञा का पालन करते हुए सुखपूर्वक अपने जीवन को व्यतीत करें। यह परमात्मा का उच्च आदेश है ॥१॥
विषय
उषा के नाना दृष्टान्तों से उत्तम स्त्री वा वधू के कर्त्तव्यों का उपदेश ।
भावार्थ
( दिविजाः उषाः ) सूर्य के आश्रय रह कर प्रकट होने वाली प्रभात वेला जिस प्रकार ( आप: ) विशेषरूप से खिलती ( ऋतेन महिमानम् आविष्कृण्वाना आगात् ) तेज से महान् स्वरूप को प्रकट करती हुई आती है, ( तमः अप आवः ) अन्धकार को दूर करती और ( पथ्याः अजीगः ) मार्गों वा मार्गवर्ती प्रजाओं को जगाती, प्रकाशित कर देती है, उसी प्रकार ( दिवि-जा: ) सूर्यवत् तेजस्वी गुरु के अधीन जन्म लाभ करके वा ( दिवि-जाः ) उत्तम शुभ कामना में विद्यमान ( उषाः ) कान्तियुक्त युवति ( वि आव: ) अपने विविध गुणों को प्रकट करे, वह ( ऋतेन ) सत्य व्यवहार, ज्ञान से अपने ( महिमानम् ) महान् आदरणीय मातृसामर्थ्य को ( आविः कृण्वाना ) प्रकट करती हुई, ( आगात् ) आवे । ( अजुष्टम् ) न सेवन करने योग्य (तमः) अज्ञान, शोकादि को अन्धकारवत् और ( द्रुहः ) द्रोह, अप्रीति के भावों को भी ( अप आवः ) दूर करे । वह ( अङ्गिरस्तमा ) प्राणों में भी सर्वश्रेष्ठ, प्राणवत् अतिप्रियतमा वा ज्ञानवती विदुषी होकर ( पथ्याः ) उत्तम पथ योग्य, धार्मिक, शिष्टाचारों को ( अजीगः ) जागृत करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप् । ३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप् । ६, ७ आर्षी त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
स्त्री के कर्त्तव्य १
पदार्थ
पदार्थ- (दिविजाः उषा:) = सूर्य के आश्रय प्रकट होनेवाली प्रभात वेला जैसे (आव:) = विशेषरूप से खिलती, (ऋतेन महिमानम् आविष्कृण्वाना आगात्) = तेज से स्वरूप को प्रकट करती हुई आती है, (तमः अप आवः) = अन्धकार को दूर करती और (पथ्याः अजीग:) = मार्गवर्त्ती प्रजाओं को जगाती है, वैसे ही (दिविजा:) = सूर्यवत् तेजस्वी गुरु के अधीन जन्म- लाभ करके (उषाः) = कान्तियुक्त युवति (वि आवः) = विविध गुणों को प्रकट करे, वह (ऋतेन) = सत्य ज्ञान से (महिमानम्) = मातृ-सामर्थ्य को (आविः कृण्वाना) = प्रकट करती हुई, (आगात्) = आवे। (अजुष्टम्) = न सेवने योग्य (तमः) = अज्ञान को अन्धकारवत् और (द्रुहः) = अप्रीति भावों को (अप आवः) = दूर करे। वह (अङ्गिरस्तमा) = प्राणवत् प्रियतमा वा ज्ञानवती विदुषी होकर (पथ्या:) = उत्तम हितकारी, शिष्टाचारों को (अजीग:) = जागृत करे।
भावार्थ
भावार्थ-युवति स्त्रियों को योग्य है कि वे उत्तम तपस्वी गुरुजनों के सान्निध्य में रहकर मातृत्व सामर्थ्य, ज्ञान प्राप्ति, समाज से अज्ञान अन्धकार का नाश, लोगों के परस्पर के विषादों का निपटारा, आपसी वैर-भाव का नाश करने आदि गुणों से युक्त होकर कान्तियुक्त होवे।
इंग्लिश (1)
Meaning
The dawn arises from the light of heaven, revealing the awful splendour and majesty of Divinity by the law of eternity, dispelling the odious darkness, hate and jealousy, and illuminates the paths of daily activity with inspirations of highest freshness of life energy for humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमात्म्याचा महिमा वर्णित आहे व उपदेश केलेला आहे, की हे सांसारिक लोकांनो! तुम्ही सूर्यापासून परमात्म्याच्या महिमेचा अनुभव घेऊन त्याच्याबरोबर आपल्याला जोडा. अर्थात, ब्रह्ममुर्हूत काळात जेव्हा सूर्य द्युलोकाला प्रकाशित करीत आपल्या तेजाने उदित होतो. त्यावेळी सर्व माणसांचे हे कर्तव्य आहे, की त्यांनी आळस सोडून परमात्म्याचा महिमा जाणून ऋत=सत्याचा आश्रय घ्यावा व त्या महान प्रभूच्या उपासनेत संलग्न व्हावे. याज्ञिक लोकांनी त्याच काळात यज्ञाद्वारे परमात्म्याला आव्हान करावे. अर्थात, मनुष्यमात्राला ब्रह्मज्ञानाचा उपदेश करावा. ज्यामुळे सर्व प्राण्यांनी परमात्म्याच्या आज्ञेचे पालन करीत सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करावे. हा परमात्म्याचा आदेश आहे. ॥१॥
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