ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 76/ मन्त्र 1
उदु॒ ज्योति॑र॒मृतं॑ वि॒श्वज॑न्यं वि॒श्वान॑रः सवि॒ता दे॒वो अ॑श्रेत् । क्रत्वा॑ दे॒वाना॑मजनिष्ट॒ चक्षु॑रा॒विर॑क॒र्भुव॑नं॒ विश्व॑मु॒षाः ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । ज्योतिः॑ । अ॒मृत॑म् । वि॒श्वऽज॑न्यम् । वि॒श्वान॑रः । स॒वि॒ता । दे॒वः । अ॒श्रे॒त् । क्रत्वा॑ । दे॒वाना॑म् । अ॒ज॒नि॒ष्ट॒ । चक्षुः॑ । आ॒विः । अ॒कः॒ । भुव॑नम् । विश्व॑म् । उ॒षाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु ज्योतिरमृतं विश्वजन्यं विश्वानरः सविता देवो अश्रेत् । क्रत्वा देवानामजनिष्ट चक्षुराविरकर्भुवनं विश्वमुषाः ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ऊँ इति । ज्योतिः । अमृतम् । विश्वऽजन्यम् । विश्वानरः । सविता । देवः । अश्रेत् । क्रत्वा । देवानाम् । अजनिष्ट । चक्षुः । आविः । अकः । भुवनम् । विश्वम् । उषाः ॥ ७.७६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 76; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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विषय - अब उषा=ब्रह्ममुहूर्त्त में यज्ञकर्मानन्तर परमात्मा की स्तुति करना कथन करते हैं।
पदार्थ -
(ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप (अमृतं) मुत्युरहित (विश्वजन्यं) सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आदि कारण (विश्वानरः) सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्यापक (सविता) सबका उत्पत्तिस्थान (देवः) दिव्यगुणस्वरूप परमात्मा का हम लोग (अश्रेत्) आश्रयण करें, जो (देवानां) विद्वानों को (क्रत्वा) शुभ मार्गों में प्रेरित करके (अजनिष्ट) उत्तम फलों को उत्पन्न करता है, (भुवनं विश्वं) सम्पूर्ण भुवनों का (उषाः) प्रकाशक (उत्) और (आविः चक्षुः) चराचर का चक्षु जो परमात्मदेव है, हम उसकी (अकः) स्तुति करें ॥१॥
भावार्थ - इस मन्त्र में परमात्मा की स्तुति वर्णन की गई है कि जो परमात्मदेव सब ब्रह्माण्डों में ओतप्रोत हो रहा है और जो सबका उत्पत्तिस्थान तथा विद्वानों को शुभमार्ग में प्रेरित करनेवाला है, उसी देव का हम सबको आश्रयण करना चाहिए और उसी की उपासना में हमें संलग्न होना चाहिए, जो चराचर का चक्षु और हमारा पितृस्थानीय है ॥ कई एक टीकाकारों ने यहाँ “उषा” को ही सविता तथा देवी माना है, यह उनकी भूल है, क्योंकि ज्योति, अमृत तथा विश्वानर आदि शब्द परमात्मा के ग्राहक तथा वाचक हैं, किसी जड़ पदार्थ के नहीं। दूसरी बात यह है कि उषःकाल में यज्ञादि कर्मों का वर्णन किया गया है, जैसा कि पीछे स्पष्ट है। उसके अनन्तर परमात्मा की स्तुति प्रार्थना करना ही उपादेय है, इसलिए यह मन्त्र परमात्मोपासना का ही वर्णन करता है, किसी जड़ पदार्थ का नहीं ॥१॥
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विषयः - सम्प्रत्युषःकाले (ब्रह्ममुहूर्ते) यज्ञकर्मानन्तरं परमात्मनः स्तुतिकरणं प्रस्तूयते।
पदार्थः -
(ज्योतिः) प्रकाशस्वरूपं (अमृतम्) मृत्युरहितं (विश्वजन्यम्) अखिलब्रह्माण्डस्यादिभूतं कारणं (विश्वानरः) सकलब्रह्माण्डव्यापकं (सविता) सर्वेषामुत्पत्तिस्थानं (देवः) दिव्यगुणस्वरूपं परमात्मानं वयम् (अश्रेत्) आश्रयेमहि, यः (देवानाम्) विदुषः (क्रत्वा) शुभमार्गे सम्प्रेर्य (अजनिष्ट) उत्तमफलान्युत्पादयति (भुवनम् विश्वम्) सकलभुवनानां (उषाः) प्रकाशकः (उत्) तथा च (आविः चक्षुः) चराचरस्य चक्षुर्भूतम्, योऽसौ परमात्मदेवोऽस्ति, तं वयं (अकः) स्तुयाम ॥१॥
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Meaning -
Self-refulgent Savita, leading light of the world and inspirer of life, radiates universal and immortal light for the benefit of humanity. The sun, eye of the divinities of nature and humanity, is risen by the cosmic yajna of divinity and the light of dawn illuminates and reveals the entire world to view.
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भावार्थ - या मंत्रात परमात्म्याची स्तुती केलेली आहे. जो परमात्मा सर्व ब्रह्मांडात ओतप्रोत आहे. जो सर्वांचे उत्पत्तिस्थान असून, विद्वानांना शुभमार्गात् प्रेरित करणारा आहे. त्याच देवाचा आम्ही सर्वांनी आश्रय घेतला पाहिजे व त्याच्याच उपासनेत आम्ही संलग्न असले पाहिजे. जो चराचराचा चक्षू व आमच्या पितृस्थानी आहे.
टिप्पणी -
कित्येक टीकाकारांनी येथे ‘उषे’लाच सविता व देवी मानलेले आहे. ही त्यांची चूक आहे. कारण ज्योती, अमृत व विश्वानर इत्यादी शब्द परमेश्वराचे ग्राहक व वाचक आहेत. एखाद्या जड पदार्थाचे नाहीत. उष:कालात यज्ञ इत्यादी कर्मांचे वर्णन केलेले आहे. त्यानंतर परमात्म्याची स्तुती, प्रार्थना करणे उपादेय आहे. त्यामुळे हा मंत्र परमात्म्याच्या उपासनेचेच वर्णन करतो. जड पदार्थाचे नाही ॥१॥
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