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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 77/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - उषाः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    विश्वं॑ प्रती॒ची स॒प्रथा॒ उद॑स्था॒द्रुश॒द्वासो॒ बिभ्र॑ती शु॒क्रम॑श्वैत् । हिर॑ण्यवर्णा सु॒दृशी॑कसंदृ॒ग्गवां॑ मा॒ता ने॒त्र्यह्ना॑मरोचि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्व॑म् । प्र॒ती॒ची । स॒ऽप्रथाः॑ । उत् । अ॒स्था॒त् । रुश॑त् । वासः॑ । बिभ्र॑ती । शु॒क्रम् । अ॒श्वै॒त् । हिर॑ण्यऽवर्णा । सु॒दृशी॑कऽसन्दृक् । गवा॑म् । मा॒ता । ने॒त्री । अह्ना॑म् । अ॒रो॒चि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वं प्रतीची सप्रथा उदस्थाद्रुशद्वासो बिभ्रती शुक्रमश्वैत् । हिरण्यवर्णा सुदृशीकसंदृग्गवां माता नेत्र्यह्नामरोचि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वम् । प्रतीची । सऽप्रथाः । उत् । अस्थात् । रुशत् । वासः । बिभ्रती । शुक्रम् । अश्वैत् । हिरण्यऽवर्णा । सुदृशीकऽसन्दृक् । गवाम् । माता । नेत्री । अह्नाम् । अरोचि ॥ ७.७७.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 77; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सप्रथा) सर्वथा (विश्वम्) सकलं जगत् (प्रतीची) पूर्वम् (अस्थात्) उत्पादयित्री (रुशत्) दिव्यशक्तिः (वासः) तादृशदीप्तिमत् स्वरूपं (उत्) तथा (शुक्रम्) बलं च (बिभ्रती) धारयन्ती (अश्वैत्) सर्वत्र व्याप्नोति, या (हिरण्यवर्णा) दिव्यस्वरूपा (सुदृशीकसन्दृक्) सर्वोपरिदर्शनीया सर्वज्ञा (गवाम् माता) अखिलब्रह्माण्ड-जननी तथा च (अह्नां नेत्री) सूर्यादिसमस्त-प्रकाशानामपि प्रकाशिका (अरोचि) सर्वं प्रकाशयन्ती विराजते ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सप्रथा) सब प्रकार से (विश्वं) सम्पूर्ण विश्व को (प्रतीची) प्रथम (अस्थात्) उत्पन्न करनेवाली (रुशत्) दिव्यशक्ति (वासः) उस दीप्तिवाले स्वरूप (उत्) और (शुक्रं) बल को (बिभ्रती) धारण करती हुई जो (अश्वैत्) सर्वत्र परिपूर्ण हो रही है, (हिरण्यवर्णा) दिव्यस्वरूप (सुदृशीकसंदृक्) सर्वोपरि दर्शनीय सर्वज्ञानी (गवां माता) सब ब्रह्माण्डों की जननी और (अह्नां नेत्री) सूर्यादि सब प्रकाशों की प्रकाशक (अरोचि) सबको प्रकाशित कर रही है ॥२॥

    भावार्थ

    जो दिव्यशक्ति सम्पूर्ण विश्व को धारण करके कोटानुकोटि ब्रह्माण्डों को चला रही है, वही दिव्यशक्तिरूप परमात्मा सब ब्रह्माण्डों की जननी और वही सबका अधिष्ठान होकर स्वयं प्रकाशमान हो रहा है ॥२॥

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    विषय

    दिनों की नायिका उषावत् परमेश्वरी शक्ति और उत्तम युवति, नायिका के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (अह्नां नेत्री) उषा, प्रभात वेला जिस प्रकार दिनों की प्रारम्भक नायिका, ( गवां माता ) सूर्य की किरणों को अपने में से माता के समान पैदा करती है, वह ( हिरण्य-वर्णा ) सुवर्ण के समान चमकती हुई ( सुदृशीक-सन्दृग् ) आंखों को सब पदार्थ अच्छी प्रकार दिखला देती है, वह ( प्रतीची ) प्रत्यक्ष होती हुई, ( स-प्रथा ) विस्तृत होकर ( रुशद् वासः बिभ्रती ) मानो चमकीला वस्त्र पहने ( विश्वं शुक्रम् अश्वेत् ) समस्त संसार को दीप्तियुक्त कर चमका देती और बढ़ती है उसी प्रकार परमेश्वरी शक्ति और नव वधू माता भी ( अह्नां ) न नाश होने वाले, नित्य, जीवों, न मरने योग्य बालक जीवों की ( नेत्री ) नायिका, प्राप्त कराने वाली, ( गवां ) लोकों, वाणियों और गौ आदि पशुओं की भी ( माता ) माता के समान पालन करने वाली । ( सुदृशीक-संदृग् ) दर्शनीय सम्यक् दृष्टि से युक्त, निष्पक्षपात, सौम्यनयनी, (हिरण्य-वर्णा) उज्ज्वल, हित रमणीव वर्ण वाली हो । वह ( प्रतीची ) प्रत्येक की दृष्टि में पूजनीय, ( रुशद्-वासः ) उज्ज्वल वस्त्रादि को ( बिभ्रती ) धारण करती हुई, ( सप्रथा ) समान रूप से विख्यात होकर ( उत्-अस्थात् ) उत्तम स्थिति प्राप्त करे और ( शुक्रम् अश्वैत्) शुद्धरूप, शुद्ध आचरण और वीर्योत्पन्न सन्तति की वृद्धि करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ उषा देवताः॥ छन्दः—१ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ निचृत्: त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    नव वधू का कर्त्तव्य

    पदार्थ

    पदार्थ - (अह्वां नेत्री) = प्रभात वेला जैसे दिनों की प्रारम्भिक नायिका, (गवां माता) = किरणों को अपने में से माता के समान पैदा करती है, वह (हिरण्य-वर्णा) = सुवर्ण-समान चमकती हुई (सुदृशीक-सन्दृग्) = आँखों को सब पदार्थ अच्छी प्रकार दिखलाती है, वह (प्रतीची) = प्रत्यक्ष होती हुई, (स-प्रथा) = विस्तृत होकर (रुशद् वासः बिभ्रती) = मानो चमकीला वस्त्र पहने (विश्वं शुक्रम् अश्वैत्) = समस्त संसार को दीप्तियुक्त कर चमका देती और बढ़ती है वैसे ही परमेश्वरी शक्ति और नव वधू माता भी (अह्नां) = न नाश होनेवाले, नित्य जीवों, न मरने योग्य बालक जीवों को (नेत्री) = प्राप्त करानेवाली, (गवां) = लोकों और गौ आदि पशुओं को भी माता-माता के समान पालक। (सुदृशीकसंदृग्) = सम्यक् दृष्टि से युक्त, रमणीय वर्णवाली हो । वह (प्रतीची) = प्रत्येक की दृष्टि में पूजनीय, (रुशद्-वासः) = उज्ज्वल वस्त्रादि (बिभ्रती) = धारण करती हुई, (सप्रथा) = समान रूप से विख्यात होकर (उत्-अस्थात्) = उत्तम स्थिति प्राप्त करे और (शुक्रम् अश्वैत्) = शुद्ध आचरण करे।

    भावार्थ

    भावार्थ- माता बननेवाली नव वधू अपनी होनेवाली सन्तान को दीर्घायु तथा स्वस्थ, पुष्ट् बनाने के लिए श्रेष्ठ चिन्तन व शुद्ध आचरण करे। अपनी दृष्टि व वस्त्रादि को उज्ज्वल रखे इससे समाज में उसका सम्मान व प्रतिष्ठा बढ़ेगी।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    It rises, advancing, expanding, shining, wearing the light of glory, bearing the power and purity of divinity, and thus it beams forth over the world in golden majesty and blissful beauty as the mother of light and holy speech and shines as harbinger of days, each anew every morning.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी दिव्यशक्ती संपूर्ण विश्वाला धारण करून कोटी कोटी ब्रह्मांडाला चालवीत आहे तोच दिव्यशक्तीरूपी परमात्मा सर्व ब्रह्मांडाची जननी व तोच सर्वांचे अधिष्ठान बनून स्वत: प्रकाशमान होत आहे. ॥२॥

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