ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 81/ मन्त्र 6
श्रव॑: सू॒रिभ्यो॑ अ॒मृतं॑ वसुत्व॒नं वाजाँ॑ अ॒स्मभ्यं॒ गोम॑तः । चो॒द॒यि॒त्री म॒घोन॑: सू॒नृता॑वत्यु॒षा उ॑च्छ॒दप॒ स्रिध॑: ॥
स्वर सहित पद पाठश्रवः॑ । सू॒रिऽभ्यः॑ । अ॒मृत॑म् । व॒सु॒ऽत्व॒नम् । वाजा॑न् । अ॒स्मभ्य॑म् । गोऽम॑तः । चो॒द॒यि॒त्री । म॒घोनः॑ । सू॒नृता॑ऽवती । उ॒षाः । उ॒च्छ॒त् । अप॑ । स्रिधः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रव: सूरिभ्यो अमृतं वसुत्वनं वाजाँ अस्मभ्यं गोमतः । चोदयित्री मघोन: सूनृतावत्युषा उच्छदप स्रिध: ॥
स्वर रहित पद पाठश्रवः । सूरिऽभ्यः । अमृतम् । वसुऽत्वनम् । वाजान् । अस्मभ्यम् । गोऽमतः । चोदयित्री । मघोनः । सूनृताऽवती । उषाः । उच्छत् । अप । स्रिधः ॥ ७.८१.६
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 81; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे भगवन् ! (सूरिभ्यः, श्रवः) स्तोतृभ्यो विद्वद्भ्यो यशः (अमृतम्) अमृतम्=मुक्तिं (वसुत्वनम्) श्रेष्ठं धनं तथा (वाजान्) अनेकधाऽन्नानि प्रददातु, तथा च (अस्मभ्यम्, गोमतः) ज्ञानसाधनानि कलाकौशलादीनि (चोदयित्री) सर्वस्य प्रेरयित्रीं शक्तिं (उषाः, मघोनः) उषःकाले यज्ञसाधकं सामर्थ्यं (सूनृतावती) सत्यप्रियभाषण-साधिकां शक्तिं च प्रयच्छतु, तथा (अप, स्रिधः) अस्मत्सकाशात् सन्तापं (उच्छत्) अपनयतु ॥६॥ इत्येकाशीतितमं सूक्तं प्रथमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे भगवन् ! (सूरिभ्यः, श्रवः) विद्वानों के लिए यश (अमृतं) अमृत (वसुत्वनं) उत्तम धन, तथा (वाजान्) नानाप्रकार के अन्न प्रदान करें और (अस्मभ्यं) हमको (गोमतः) ज्ञान के साधन कला-कौशलादि (चोदयित्री) सबको प्रेरण करनेवाली शक्ति (उषाः, मघोनः) उषःकाल में यज्ञ करने का सामर्थ्य और (सूनृतावती) उत्तम भाषण करने की शक्ति दें और (अप, स्रिधः) हमसे संताप को (उच्छत्) दूर करें ॥६॥
भावार्थ
हे सर्वशक्तिसम्पन्न भगवन् ! आप शूरवीरों की वीरतारूप सामर्थ्य देनेवाले, विज्ञानियों को विज्ञानरूप सामार्थ्य देते, आप ही नानाप्रकार के अन्न तथा ज्ञान के साधन कला-कौशलादि के प्रदाता हैं, आप ही सब शोकों को दूर करके अमृत पद देनेवाले हैं, अर्थात् आप ही अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों प्रकार के उपभोग देते हैं ॥ तात्पर्य्य यह है कि ऋषियों ने शोक-मोह की निवृत्तिरूप मुक्ति पद तथा संसारिक ऐश्वर्य्यों का प्रदाता एकमात्र परमात्मा को ही माना है अर्थात् परमात्मज्ञान से ही शोक-मोह की निवृत्ति होती है, जैसा कि “तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः” जो परमात्मस्वरूप को एकरस, अविनाशी और सजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेदशून्य मानता है, उसको कोई शोक-मोह नहीं होता और “तमेव विदित्वातिमृत्युमेति” उसी को जानकर पुरुष मृत्यु से अतिक्रमण कर जाता है, इस वाक्य में परमात्मज्ञान को ही एकमात्र मुक्ति पद का साधन कथन किया गया है, इसलिए जिज्ञासुओं को शोक-मोह की निवृत्ति तथा परमानन्दप्राप्ति के लिए एकमात्र उसी का अवलम्बन करना चाहिए ॥६॥ यह ८१वाँ सूक्त और पहिला वर्ग समाप्त हुआ।
विषय
माता के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( सूनृतावति ) उत्तम ऋत ज्ञान और धन की स्वामिनि ! तू ( सूरिभ्यः ) विद्वान् पुरुषों के लिये ( अमृतम् ) कभी नाश न होने वाला, अमृतमय ( श्रवः ) श्रवणयोग्य ज्ञान और आयुप्रद अन्न तथा ( वसुत्वनं ) ऐश्वर्ययुक्त कीर्त्ति, और ( गोमतः वाजान् ) भूमिसम्पन्न ऐश्वर्य प्रदान कर । तू ( मघोनः ) ऐश्वर्य वालों को भी ( चोदयित्री ) अपने अधीन चलाती हुई ( स्त्रिधः ) हिंसक दुष्टों को (अप उच्छत् ) दूर कर । यहां प्रभुशक्ति का वर्णन स्पष्ट है । इति प्रथमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ उषा देवता॥ छन्दः—१ विराड् बृहती। २ भुरिग् बृहती। ३ आर्षी बृहती। ४,६ आर्षी भुरिग् बृहती, निचृद् बृहती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
ऐश्वर्य का वितरण
पदार्थ
पदार्थ- हे (सूनृतावति) = ऋत, ज्ञान और धन की स्वामिनि! तू (सूरिभ्य:) = विद्वान् पुरुषों के लिये (अमृतम्) = अमृतमय (श्रवः) = श्रवण-योग्य ज्ञान, आयुप्रद अन्न, (वसुत्वनं) = ऐश्वर्ययुक्त कीर्त्ति और (गोमतः वाजान्) = पशु- भूमिसम्पन्न ऐश्वर्य दे। तू (मघोनः) = ऐश्वर्यवालों को (चोदयित्री) = अपने अधीन चलाती हुई (स्त्रिधः) = हिंसक दुष्टों को (अप उच्छत्) दूर कर ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञानवती स्त्री विद्वान् पुरुषों को उत्तम अन्न, धनैश्वर्य, गाय व भूमि का दान प्रदान करके यश प्राप्त करती है तथा दुष्टों को हिंसा आदि से दूर रखने हेतु भी ऐश्वर्य बाँटती है। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ तथा देवता इन्द्रावरुणौ है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O dawn, inspirer of the wealthy and powerful, commanding the light and truth of existence in action, bring immortal food and wealth, honour and fame to the wise and brave. Bring food and energy and the wealth of lands and cows for us all, and ward off all sin, error and enmity from us, shine and give us settlement in peace.
मराठी (1)
भावार्थ
हे सर्वशक्तिसंपन्न भगवान! तू शूरवीरांना वीरतारूपी सामर्थ्य देणारा, विज्ञानी लोकांना विज्ञानरूपी सामर्थ्य देतोस, तूच विविध प्रकारचे अन्न व ज्ञानाचे साधन कलाकौशल्य इत्यादीचा प्रदोता आहेस. तूच सर्व शोक इत्यादींना दूर करून अमृतपद देणारा आहेस. अर्थात, तूच अभ्युदय व नि:श्रेयस दोन्ही प्रकारचा उपभोग देतोस.
टिप्पणी
तात्पर्य हे, की ऋषींनी शोक-मोहाची निवृत्तिरूपी मुक्तिपद व सांसारिक ऐश्वर्याचा प्रदाता एकमेव परमात्म्यालाच मानले होते. अर्थात, परमात्मज्ञानानेच शोक-मोहाची निवृत्ती होते. जसे ‘तत्र कोमोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत:’ जो परमात्मस्वरूपाला एकरस, अविनाशी व सजातीय, विजातीय तसेच स्वगतभेदशून्य मानतो त्याला कोणताही शोक-मोह होत नाही. ‘तमेव विदित्वातिमृत्युममेति’ जाणून पुरुष मृत्यूच्या पलीकडे जातो. या वाक्यात परमात्मज्ञानालाच एकमेव मुक्तीचे साधन म्हटलेले आहे. त्यासाठी जिज्ञासूंना, शोक-मोहाची, निवृत्ती व परमानंद प्राप्तीसाठी एकमात्र त्याचेच अवलंबन केले पाहिजे. ॥६॥
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